रिपोर्ट : सवेरा
अनुवाद : संजय पराते
आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ पर, उन काले दिनों को याद करते हुए भाजपा और आरएसएस धार्मिक उत्साह से भरे हुए हैं। वे इस दिन को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मना रहे हैं। गृह मंत्री अमित शाह ने एक पुस्तक का विमोचन किया है, जिसमें इस बात की याद ताजा की गई है कि किस प्रकार प्रधानमंत्री मोदी, जो उस समय आरएसएस के प्रचारक थे, ने भूमिगत होकर विभिन्न संगठनात्मक कार्य किए थे। आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ में आपातकाल के विभिन्न पहलुओं पर कई लेख हैं, जिनमें से एक लेख आपातकाल का विरोध करने में आरएसएस की भूमिका पर भी है।
इस सबके बीच, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उस दौरान आरएसएस नेताओं द्वारा जो समझौते और समर्पण किए गए थे, उस सबको यहां कोई जगह नहीं मिलती। इस घिनौने अध्याय को छाती ठोकने वाली घोषणाओं की बौछार के नीचे दबा दिया गया है। इस अवसर पर इस दोहरेपन को याद करने की जरूरत है।
बालासाहेब देवरस द्वारा इंदिरा गांधी को लिखे गए पत्र
बालासाहेब देवरस उस समय आरएसएस के सरसंघचालक (सुप्रीमो) थे। आपातकाल के शुरुआती दिनों में उन्हें विपक्षी दलों के कई अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ गिरफ्तार किया गया था। बाद में पुणे की यरवदा जेल से उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और अन्य लोगों को कई पत्र भेजे, जिसमें उन्होंने अपने को जेल से रिहा करने की गुहार लगाई और आश्वासन दिया कि आरएसएस के कार्यकर्ता राष्ट्र निर्माण के लिए काम करेंगे। क्रिस्टोफ़ जैफ़रलॉट और प्रतिनव अनिल द्वारा लिखित “भारत की पहली तानाशाही : आपातकाल, 1975-1977” के निम्नलिखित अंशों पर एक नज़र डालें। मूल पत्र बालासाहेब देवरस द्वारा लिखित “हिंदू संगठन और सत्तावादी राजनीति” के परिशिष्ट में देखे जा सकते हैं।
22 अगस्त 1975 को लिखे गए पहले पत्र में उन्होंने लिखा था :
“15 अगस्त 1975 को आकाशवाणी से प्रसारित और राष्ट्र के नाम आपके संदेश को मैंने जेल से ध्यानपूर्वक सुना। आपका भाषण इस अवसर के लिए उपयुक्त और संतुलित था।”
ध्यान दें कि वे इंदिरा गांधी के उस भाषण का जिक्र कर रहे थे, जिसमें आपातकाल को व्यापक रूप से उचित ठहराने का प्रयास किया गया था। इस आपातकाल का मतलब था विपक्षी नेताओं को जेल में डालना, प्रेस पर सेंसरशिप लगाना, मौलिक अधिकारों को निलंबित करना, न्यायपालिका को बेड़ियों में जकड़ना और मजदूरों के सभी अधिकारों को छीन लेना। उन्हें यह सब “अच्छी तरह से संतुलित” लगता है।
उन्होंने 4 अगस्त 1975 को एक अध्यादेश के माध्यम से आरएसएस पर लगाए गए प्रतिबंध को हटाने के लिए आगे तर्क देते हुए कहा :
“आरएसएस ने कभी भी ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे सरकार के सुचारू संचालन, देश की आंतरिक सुरक्षा और शांति में बाधा उत्पन्न हो। संघ का उद्देश्य अखिल भारतीय हिंदू समुदाय को एकजुट करना, संगठित करना और उसका अनुकरण करना है। संगठन हमारे समाज को अनुशासित करने का प्रयास करता है… संगठन ने कभी भी हिंसा के कारणों की वकालत नहीं की है, न ही इसने किसी को ऐसे कृत्यों के लिए उकसाया है… यद्यपि संघ का क्षेत्र केवल हिंदू समुदाय तक ही सीमित है, फिर भी यहां किसी भी गैर-हिंदू समाज के खिलाफ कुछ भी नहीं सिखाया जाता है।”
“मेरी आपसे विनम्र प्रार्थना है कि आप कृपया उपरोक्त बातों को ध्यान में रखें और आरएसएस पर से प्रतिबंध हटा लें। यदि आप इसे उचित समझते हैं, तो आपसे मेरी मुलाकात मेरे लिए खुशी की बात होगी।”
इस पत्र में संविधान के साथ विश्वासघात, लोकतंत्र के दमन या किसी अन्य अन्याय पर कोई विरोध या आपत्ति नहीं है — थोड़ी-सी भी नहीं! सुप्रीमो देवरस केवल यह तर्क दे रहे हैं कि केवल आरएसएस को ही छोड़ दिया जाए, क्योंकि यह सरकार के सुचारू संचालन में कभी बाधा नहीं बनेगा!
उन्होंने अपने पत्र का अंत इस प्रकार किया है : “मेरी आपसे विनम्र प्रार्थना है कि आप कृपया उपरोक्त बातों को ध्यान में रखें और आरएसएस पर से प्रतिबंध हटा लें। यदि आप इसे उचित समझें तो आपसे मेरी मुलाकात मेरे लिए खुशी की बात होगी।”
इंदिरा गांधी ने इस अपील का जवाब नहीं दिया। इसलिए बालासाहेब को 10 नवंबर 1975 को एक और पत्र लिखना पड़ा। तब तक कानून में बदलाव के कारण सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी को उनके लोकसभा क्षेत्र से हटाने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया था। यह आपातकाल का प्रतीक था। लेकिन बालासाहेब के लिए यह खुशी मनाने का मौका था :
“मैं आपको बधाई देता हूं, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों ने आपके चुनाव की वैधता घोषित कर दी है।”
फिर वे अपनी सोच बताते हैं : “हजारों आरएसएस कार्यकर्ताओं को मुक्त कर दिया जाए और संघ पर लगे प्रतिबंध हटा दिए जाएं। अगर ऐसा किया जाता है, तो लाखों आरएसएस स्वयंसेवकों की निस्वार्थ सेवा की शक्ति का उपयोग राष्ट्रीय उत्थान (सरकारी और गैर-सरकारी) के लिए किया जा सकेगा और जैसा कि हम सभी चाहते हैं, हमारा देश समृद्ध होगा।”
सरसंघचालक बालासाहेब ने इंदिरा गांधी की सेवा और उनके ‘राष्ट्रीय उत्थान’ और ‘समृद्धि’ के अभियान के लिए पूरे आरएसएस को समर्पित कर दिया है। इससे अधिक स्पष्ट समर्पण का कोई और बयान नहीं हो सकता।
प्रधानमंत्री ने इस अपील को भी नज़रअंदाज़ कर दिया। इसके बाद बालासाहेब ने तपस्वी संत और भूदान आंदोलन के नेता विनोबा भावे की ओर रुख किया, जो इंदिरा गांधी के ध्वजवाहक बन गए थे। 24 फरवरी 1976 को, जब उन्हें पता चला कि इंदिरा गांधी पवनार में भावे के आश्रम में उनसे मिलने आने वाली हैं, तो बालासाहेब ने भावे को पत्र लिखकर उनसे उनकी ओर से हस्तक्षेप करने के लिए कहा। यहाँ उन्होंने यह कहा :
“मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप संघ के बारे में प्रधानमंत्री की गलत धारणा को दूर करने का प्रयास करें, जिसके परिणामस्वरूप आरएसएस के स्वयंसेवक रिहा हो जाएंगे, संघ पर लगा प्रतिबंध हट जाएगा और ऐसी स्थिति बनेगी कि संघ के स्वयंसेवक प्रधानमंत्री के नेतृत्व में देश की प्रगति और समृद्धि से संबंधित कार्यवाही के योजनाबद्ध कार्यक्रम में भाग ले सकेंगे।”
ये और अन्य पत्र, जो बालासाहेब देवरस द्वारा महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री एस.बी.चव्हाण को लिखे गए थे, को चव्हाण ने 18 अक्टूबर 1977 को महाराष्ट्र विधानसभा में रखा था। चव्हाण को लिखे अपने पत्र में बालासाहेब ने उनसे आग्रह किया था कि वे इंदिरा गांधी को आरएसएस पर लगे प्रतिबंध को हटाने के लिए मना लें। आपातकाल के दौरान जेल में बंद कई लोगों ने बताया है कि कैसे आरएसएस के सदस्य माफ़ीनामे या अंडरटेकिंग (महाराष्ट्र सरकार द्वारा जारी किए गए प्रारूप) पर हस्ताक्षर करने के लिए उत्सुक थे, जिसमें आश्वासन दिया गया था कि हस्ताक्षरकर्ता आपातकाल का विरोध नहीं करेंगे। हस्ताक्षर करने वालों में डी.आर. गोयल (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, 2000 में), समाजवादी कार्यकर्ता बाबा अधव, (जनता वीकली, 1979 और सेक्युलर डेमोक्रेसी, 1977 में) और भारतीय लोक दल के नेता ब्रह्म दत्त, (फाइव हेडेड मॉन्स्टर, 1978) में शामिल हैं।
वाजपेयी की पैरोल और आरएसएस की आत्मसमर्पण योजना
विभिन्न स्रोतों के अनुसार, अटल बिहारी वाजपेयी आपातकाल के 21 महीनों में से 20 महीनों तक पैरोल पर रहे। पूर्व सांसद और भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी (द हिंदू, 2000) के अनुसार, आपातकाल की शुरुआत में अपनी गिरफ्तारी के तुरंत बाद उन्होंने सरकार विरोधी कोई भी गतिविधि न करने का वचन दिया था। वे पूरे समय अपने घर पर ही रहे, जबकि मोरारजी देसाई, जय प्रकाश नारायण आदि जैसे अन्य नेता जेलों में सड़ रहे थे।
स्वामी ने यह भी खुलासा किया कि आरएसएस द्वारा आत्मसमर्पण की एक योजना तैयार की गई थी और इसे जनवरी 1977 के अंत तक घोषित किया जाना था। स्वामी लिखते हैं कि आपातकाल के दौरान विरोध गतिविधियों के प्रभारी आरएसएस नेता माधवराव मुले ने नवंबर 1976 की शुरुआत में उनसे कहा कि स्वामी को “फिर से विदेश भाग जाना चाहिए, क्योंकि आरएसएस ने जनवरी 1977 के अंत में हस्ताक्षर किए जाने वाले आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ को अंतिम रूप दे दिया था, और श्री वाजपेयी के आग्रह पर मुझे क्रोधित इंदिरा और भड़के हुए संजय को खुश करने के लिए बलिदान कर दिया जाएगा, जिनके नाम मैंने अपने अभियान द्वारा सफलतापूर्वक विदेश में बदनाम किए थे। मैंने उनसे संघर्ष के बारे में पूछा, और उन्होंने कहा कि देश में हर कोई 42वें संशोधन से सहमत हो गया है, और लोकतंत्र जैसा कि हम जानते थे, वह खत्म हो गया है।”
इस आत्मसमर्पण योजना के बारे में तत्कालीन इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रमुख टीवी राजेश्वर ने अपनी पुस्तक “इंडिया- द क्रूशियल इयर्स” में भी लिखा है। इंदिरा गांधी के तत्कालीन सूचना सलाहकार एचवाई शारदा प्रसाद के बेटे रवि विश्वेश्वरैया शारदा प्रसाद ने भी इस आत्मसमर्पण योजना के बारे में लिखा है। द प्रिंट, जून 2020 के अनुसार :
“नवंबर 1976 में, माधवराव मुले, दत्तोपंत ठेंगड़ी और मोरोपंत पिंगले के नेतृत्व में आरएसएस के 30 से ज़्यादा नेताओं ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर वादा किया था कि अगर सभी आरएसएस कार्यकर्ताओं को जेल से रिहा कर दिया जाए, तो वे आपातकाल का समर्थन करेंगे। जनवरी 1977 से लागू होने वाले उनके ‘आत्मसमर्पण के दस्तावेज़’ को मेरे पिता एच.वाई. शारदा प्रसाद ने आगे बढ़ाया था।”
हालाँकि, इस अपमानजनक आत्मसमर्पण की ज़रूरत नहीं पड़ी, क्योंकि इंदिरा गांधी चुनाव कराने की ओर बढ़ गईं – जिसमें वे मार्च 1977 में बुरी तरह हार गईं।
सत्याग्रह और सहयोग
सच तो यह है कि आपातकाल के प्रति आरएसएस ने दोहरा रवैया अपनाया था। इसने विपक्ष के नेतृत्व वाली लोक संघर्ष समिति से खुद को जोड़ रखा था, जिसमें समाजवादी और अन्य लोग शामिल थे, लेकिन इसने इंदिरा गांधी सरकार के साथ भी संपर्क बनाए रखा, जैसा कि ऊपर दिए गए संक्षिप्त विवरण में देखा जा सकता है। क्रिस्टोफ जैफरलॉट और प्रतिनव अनिल द्वारा उनकी पुस्तक में दिए गए अनुमानों के अनुसार, उस समय आरएसएस और इसके सभी संबद्ध संगठनों की सदस्यता लगभग 20 से 30 लाख थी। हालांकि, आपातकाल के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों में इसकी ताकत दिखाई नहीं दी और जैसे-जैसे समय बीतता गया, निराशा और आत्मसमर्पण की भावना बढ़ती गई। आपातकाल के प्रति उनके दोहरे रवैये के रूप में इसे देखा जा सकता है।
इसका नतीजा यह हुआ कि जमीनी स्तर पर कई आरएसएस कार्यकर्ताओं ने आत्मसमर्पण कर दिया। उत्तर प्रदेश में, जनसंघ इकाई ने जून 1976 में सरकार को समर्थन देने का वादा किया। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के 34 विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए। ये वे राज्य हैं, जहाँ जनसंघ और आरएसएस की मजबूत उपस्थिति है। सरकार की शुरुआती कार्रवाई में एबीवीपी और आरएसएस के हजारों कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया गया था। इन लोगों के लिए जेल में रहना शायद बहुत मुश्किल काम था, जैसा कि पहले उल्लेख किए गए अंडरटेकिंग पर हस्ताक्षर करने के बाद बाहर निकलने की कोशिश कर रहे बंदियों की संख्या में वृद्धि से स्पष्ट है। सरकार के अनुसार, 4 प्रतिशत बंदियों का संबंध आरएसएस से था। बहरहाल, आरएसएस खुद दावा करता है कि सही आंकड़ा 33 प्रतिशत है।
जो भी हो, यह तथ्य कि आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व का एक प्रभावशाली तबका समझौता करने और आत्मसमर्पण करने के लिए इच्छुक था, इसका अच्छी तरह से दस्तावेजीकरण हो चुका है। भाजपा/आरएसएस द्वारा आज आपातकाल का विरोध करने वालों में आगे रहने का दिखावा करने के लिए की जा रही हड़बड़ी को इसी पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर देखा जाना चाहिए।
साभार : ‘पीपुल्स डेमोक्रेसी’। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।
व्हाट्सएप पर शेयर करें
No Comments






