रिपोर्ट : बृजेश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार
यूपी की राजनीति में सरगर्मियां न हो ऐसा कैसे संभव है। चुनाव हो या न हो लेकिन यूपी हमेंशा राजनीतिक अखाड़ा बना रहता है। वैसे भी चुनावी बिसात का कोई मौसम नहीं होता। विपक्ष और बीजेपी में बस एक ही महत्वपूर्ण फर्क है जिसकी वजह से बीजेपी अन्य दलों पर भारी रहती है। बीजेपी हो या आरएसएस हमेशा चुनावी मोंड में ही होते हैं। जबकि विपक्षी दल चुनावी बेला आने पर बाहर निकलते हैं। जैसे बारिस आने पर मेढ़क बाहर आकर टर्र-टर्र करनें लगता है।यही वो वजह है जिससे बीजेपी भारी पड़ती है। एक और बात बीजेपी राजनीतिक दलों को अपने पाले में करने के लिये साम दाम दंड भेद आदि तौर तरिकों के इस्तेमाल से भी नहीं चूकती। बड़े बड़े नेता शुरूआत में ही या तो नतमस्तक हो गये या उन्हे इस लायक नहीं छोड़ा गया कि मुँह उठा सके। केंद्र में 2014 में सरकार आने के बाद से ही बीजेपी की नजर कांग्रेस के आलावा लालू परिवार और मुलायम परिवार पर खासतौर पर रही। जिसके परिणाम स्वरूप रामकृपाल जो लालू परिवार के वफादार हुआ करते थे विरोधी खेमें मे नजर आने लगे।या अन्य कई उदाहरण देखने को मिल जायेंगें।और इस बार चर्चा समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश के चाचा शिवपाल को लेकर है। हालांकि अखिलेश और शिवपाल की खिंचतान पिछले कई सालों से है।2017 के चुनाव के पहले से ही पार्टी पर वर्चस्व की लडाई शुरू हो गयी थी। स्थिति अब तक सामान्य नहीं हुई।मुलायम सिंह नें कुनबे को एक करने का पूरा प्रयास किया लेकिन आपस में दल तो मिले लेकिन दिल नहीं मिल सके। 2017 के चुनाव में अखिलेश खुलकर चुनाव लड़े साथ ही अपने साथ गठबंधन में बसपा और कांग्रेस को भी सम्मिलित करनें में कामयाब हुये ।लेकिन 49 सीट तक सीमित होकर रह गये। परिवार की लड़ाई की वजह से सपा का कोर वोटर मुस्लिम ,और यादव नें सपा से दूरी बना ली थी। 2017 मे सभी जातीयों नें एक तरफा बीजेपी को वोट किया था। लेकिन अब जब 2022 का चुनाव था अखिलेश यादव ने प्रसपा प्रमुख चाचा को मनाने का प्रयास किया औऱ सफल भी रहे। लेकिन सरकार बनाने से दूर ही रहें। हालाकिं लडाई सपा ही नहीं बीजेपी के लिये भी कठिन थी ।सपा गठबंधन कुल मिलाकर 125 सींटे जीतनें में कामयाब रहा ।जबकि सरकार बनाने के लिये कम से कम 203 सीटें चाहिये थी। 2017 की भांति इस बार भी योगी औऱ मोदी का प्रभाव चुनाव में देखने को मिला । बहुमत से सरकार बनाने में बीजेपी कामयाब रही। चुनाव के पहले जहां सपा बीजेपी के कई बड़े कद्दावर नेताओं को अपने पाले में लाने में कामयाब रही तो वहीं दूसरी तरफ बीजेपी ने भी सपा के कई नेताओ को तोड़ने में सफलता पायी। अखिलेश यादव के घर में भी बीजेपी सेंध लगाने में कामयाब रही ।जिसका परिणाम यह रहा कि अपर्णा यादव सपा कुनबा छोड़कर बीजेपी में चली गयी। हालांकि अभी तक उन्हें कोई कार्यभार या जिम्मेदारी नहीं मिली। परन्तु इसी बीच सपा गठबंधन के कद्दावर नेता ओमप्रकाश राजभर की दिल्ली में गृहमंत्री के साथ साथ अन्य नेताओं से मुलाकात चर्चा में रही। राजनीतिक गलियारों में यहा तक कहा गया कि राजभर कभी भी गठबंधन से अलग हो सकते हैं। हालाकिं ओमप्रकाश राजभर नें इन खबरों का खंडन किया ।
शिवपाल यादव उस समय नाराज हो गये जब सपा विधायक दल की बैठक में नहीं बुलाया गया। जबकि सपा से ही शिवपाल यादव विधायक थे। शिवपाल यादव का कहना है कि की मैं अपने सारे कार्यक्रम को स्थगित कर आमंत्रण का इंतजार कर रहा था।
खैर अब शिवपाल यादव का मन कितना बीजेपी से मिलेगा यह कहना अभी मुश्किल है। बीजेपी और शिवपाल की मुलाकात में अहम योगदान अखिलेश यादव के गठबंधन के सहयोगी का है। अभी यह भी चर्चा चल रही है कि बीजेपी शिवपाल को राज्यसभा में भेजकर केंद्र में मंत्री बना सकती है। लेकिन अभी तक कुछ कहना संभव नहीं हो सकता क्योंकि बीजेपी भले ही शिवपाल यादव को साधकर यादव वोट में सेंध लगाना चाहेगी परन्तु यह कभी नहीं चाहेगी की शिवपाल का कद बढ़े। शिवपाल यादव मुलायम सिंह यादव के भाई हैं। और राजनीति के मंझे हुये खिलाड़ी भी हैं। शिवपाल यादव यह बखूबी जानते हैं कि बीजेपी के साथ जुड़ने से तात्कालिक रूप से लाभ हो सकता है। परन्तु चिराग पासवान और साहनी की तरह हश्र भी संभव है। इसलिये अभी जल्दबादजी होगी कहना कि शिवपाल यादव किस प्रकार से बीजेपी से जुड़ेगें भी या नहीं । अखिलेश यादव से हुई चूक को भले ही मीडिया शिवपाल के अपमान के तौर पर देख रहा है ।लेकिन यह भी कहा जा सकता है कि जब बात परिवार की होगी तो शिवपाल यादव अपने परिवार का पक्ष लेने से नहीं चूकेंगें।क्योंकि शिवपाल जमीन से जुड़े नेता हैं और अपनें संघर्षों से समाजवादी पार्टी को सींचा है। एक बार के लिये अगर मान भी लिया जाय कि शिवपाल यादव बीजेपी की तरफ चले जायेंगें।लेकिन यह भी कभी नहीं चाहेंगें की समाजवादी पार्टी कमजोर हो। और रही बात यादव वोट की तो शिवपाल यादव कितना प्रभाव दिखा पायेंगें यह भी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन 2024 के लिये चला गया यह दांव कितना कारगर होगा यह भी कहना मुश्किल है।
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