Breaking News

आवश्यकता है “बेखौफ खबर” हिन्दी वेब न्यूज़ चैनल को रिपोटर्स और विज्ञापन प्रतिनिधियों की इच्छुक व्यक्ति जुड़ने के लिए सम्पर्क करे –Email : [email protected] , [email protected] whatsapp : 9451304748 * निःशुल्क ज्वाइनिंग शुरू * १- आपको मिलेगा खबरों को तुरंत लाइव करने के लिए user id /password * २- आपकी बेस्ट रिपोर्ट पर मिलेगी प्रोत्साहन धनराशि * ३- आपकी रिपोर्ट पर दर्शक हिट्स के अनुसार भी मिलेगी प्रोत्साहन धनराशि * ४- आपकी रिपोर्ट पर होगा आपका फोटो और नाम *५- विज्ञापन पर मिलेगा 50 प्रतिशत प्रोत्साहन धनराशि *जल्द ही आपकी टेलीविजन स्क्रीन पर होंगी हमारी टीम की “स्पेशल रिपोर्ट”

Monday, April 21, 2025 5:21:31 PM

वीडियो देखें

संघ में इजाजत : न्यौता या जाल!!

संघ में इजाजत : न्यौता या जाल!!

रिपोर्ट : बादल सरोज

इन दिनों अब मुसलमानों पर हेज उमड़ रहा है। आजादी के बाद का सबसे बड़ा “क़ानून बनाकर संपत्ति हड़पो” घोटाला वक्फ कब्जा कांड करने के साथ ही देश के इस सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाकर बयान दागे जा रहे हैं। यह बात अलग है कि वे शब्दों में कुछ भी हों, भावों में और पंक्तियों के बीच के अर्थ में एक समान हैं। इसी तरह का एक बयान खुद संघ प्रमुख का है, जिसमे उन्होंने कहा है कि “मुसलमान भी संघ में शामिल हो सकते हैं।“ इसी के साथ यह दावा भी किया है कि “संघ किसी की पूजा पद्धति या धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करता।“ वे यहीं तक नहीं रुके, इससे आगे बढ़ते हुए यह भी बोले कि “संघ केवल हिंदुओं के लिए नहीं है। संघ का दरवाजा हर जाति, संप्रदाय और धर्म के लिए खुला है। चाहे वह हिंदू हो, मुसलमान हो, सिख हो या ईसाई — हर कोई इसमें शामिल हो सकता है।”

संघ मतलब आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत वाराणसी में यह एकदम नयी पेशकश तब कर रहे थे, जब होली और जुमे को लेकर उन्हीं कुनबे द्वारा घमासान मचाया जा चुका था। यह बात वे उस उत्तरप्रदेश में कह रहे थे, जिसमें ईद की नमाज को कहां, कैसे, कब पढ़ना है, की सख्त हिदायते जारी की जा रही थी, खुले मैदानों की बात अलग रही, घर की छतों तक पर नमाज अदा करना प्रतिबंधित किया जा रहा था। यह बात वे तब कह रहे थे, जब उन्हीं के मंत्री, संत्री, मुख्यमंत्री, यहाँ तक कि खुद प्रधानमंत्री मुसलमानों के खिलाफ उन्माद भडकाने में पूरे प्राणप्रण से जुटे हुए थे।

हालांकि इस एलान के साथ उन्होंने ‘शर्तें लागू’ का किन्तुक-परंतुक भी जोड़ा है । इन शर्तों में “भारत माता की जय” का नारा स्वीकार करना और भगवा झंडे का सम्मान करना तो है ही, एक अतिरिक्त चेतावनी भी नत्थी कर दी है कि “जो खुद को औरंगजेब का वारिस समझते हैं, उनके लिए संघ में कोई जगह नहीं है।” और जैसा कि इस तरह के बयान देने के पीछे का मकसद होता है, इस बार भी था, वही हुआ ; कईयों ने यह मानना शुरू कर दिया कि बताइये बेचारे को यूंही बदनाम करते रहते हैं, देखिये संघ तो मुसलमानों के लिए भी बाँहें खोले खड़ा है। भले ही हिंदुत्व की विचारधारा से जुड़ा हो, लेकिन वह ऐसे मुस्लिमों को भी स्वीकार करने को तैयार है, जो भारत की संस्कृति को अपनाते हैं और राष्ट्रवाद में विश्वास रखते हैं।

क्या सच में बात इतनी ही सीधी-सादी और सरल है? नहीं!! यह औरंगजेब के नाम पर योजनाबद्ध तरीके से सुलगाई गयी ध्रुवीकरण की भट्टी में खुद श्रीमुख से सूखी लकडियाँ झोंके जाने की कोशिश है। क्या भारत में ऐसा कोई मुसलमान है, जिसने अपने आपको औरंगजेब का वारिस बताया हो? कोई नहीं। अविभाजित भारत को भी जोड़ लें, तो ऐसा कोई है, जिसने औरंगजेब को अपना पुरखा या किसी भी तरह का नायक बताया हो? हाँ, वंशावली के आधार पर देखा जाए, तो औरंगजेब की एक सचमुच की वारिस और निकटतम जैविक रिश्तेदार जरूर हैं और वे राजस्थान में भाजपा सरकार में उपमुख्यमंत्री पद की शोभा अवश्य बढ़ा रही हैं।

बहरहाल बयानों की शिगूफेबाजी को अलग रखते हुए असल मुद्दे पर आते हैं कि जैसा कि भागवत साहब ने फरमाया है, क्या वैसा संघ में हो सकता है? क्या कोई मुसलमान या अहिंदू आरएसएस का सदस्य बन सकता है? बिल्कुल नहीं!! पहली बात तो यह है कि खुद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कहना है कि उसकी कोई औपचारिक सदस्यता नहीं होती। जो लोग आरएसएस की शाखाओं में भाग लेते हैं, उन्हें स्वयंसेवक कहा जाता है। अब स्वयंसेवक कौन बन सकता है? संघ के मुताबिक़ कोई भी “हिंदू पुरुष” स्वयंसेवक बन सकता है। यहाँ “हिन्दू पुरुष” पर गौर फरमाने की आवश्यकता है, क्योंकि यह वह संगठन है, जो दावा तो अखिल ब्रह्माण्ड के हिन्दुओं को एकजुट और संगठित करने का करता है, लेकिन जिसकी सदस्य महिलायें – हिन्दू महिलायें भी – नहीं बन सकतीं।

इसकी वेब साईट के एफएक्यू यानि ‘फ्रीक्वेंटली आस्क्ड क्वेश्चंस’ मतलब ‘अक्सर पूछे जाने वाले सवालों’ के अध्याय में लिखा गया है कि “उसकी स्थापना हिंदू समाज को संगठित करने के लिए की गई थी और व्यावहारिक सीमाओं को देखते हुए संघ में महिलाओं को सदस्यता नहीं दी जाती है, सिर्फ हिन्दू पुरुष ही इसमें शामिल हो सकते हैं, इसके स्वयंसेवक बन सकते है।“ सौवें साल में भी संघ महिलाओं के प्रवेश के बारे में कोई पुनर्विचार करने को तैयार नहीं है। बस इतना भर कहा गया है कि “अपने शताब्दी वर्ष में महिला समन्वय कार्यक्रमों के ज़रिए वो भारतीय चिंतन और सामाजिक परिवर्तन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी को बढ़ाना चाहता है।“

बहरहाल फिलहाल चूँकि भागवत साहब ने अपने संघ में हिन्दू महिलाओं की नहीं, ‘म्लेच्छ’ मुसलमानों के दाखिले की बात की है, इसलिए उसी पर संघ की धारणा और नीति पर नजर डालना ठीक होगा। मुसलमानों के बारे में संघ की सोच की झलक इसके दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर की किताब “बंच ऑफ़ थॉट्स” में मिलती है । गोलवलकर ने लिखा था, “हर कोई जानता है कि यहाँ – भारत में – केवल मुट्ठी भर मुसलमान ही दुश्मन और आक्रमणकारी के रूप में आए थे। इसी तरह यहां केवल कुछ विदेशी ईसाई मिशनरी ही आए। अब मुसलमानों और ईसाइयों की संख्या में बहुत वृद्धि हुई है।” इसी रौ में वे आगे लिखते हैं कि “वे मछलियों की तरह सिर्फ़ गुणन से नहीं बढे, उन्होंने स्थानीय आबादी का धर्मांतरण किया। हम अपने पूर्वजों का पता एक ही स्रोत से लगा सकते हैं, जहां से एक हिस्सा हिंदू धर्म से अलग होकर मुसलमान बन गया और दूसरा ईसाई बन गया। बाक़ी लोगों का धर्मांतरण नहीं हो सका और वे हिंदू ही बने रहे।”

यही वह किताब है, जिसमें गोलवलकर – जिन्हें संघ अपना परम पूज्य गुरु मानता है — ने मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को “राष्ट्र का आंतरिक शत्रु” बताया था। सनद रहे कि वर्ष 2018 में जब भागवत से गोलवलकर के उनकी किताब “बंच ऑफ़ थॉट्स” में मुसलमानों को शत्रु कहे जाने के बारे में पूछा गया था, तो उन्होंने कहा था कि “बातें जो बोली जाती हैं, वह स्थिति विशेष, प्रसंग विशेष के संबंध में बोली जाती हैं, वह शाश्वत नहीं रहती हैं”। अब गोलवलकर के विचारों के संकलन के नए संस्करण में आंतरिक शत्रु वाला प्रसंग हटा दिया गया है। कहने की जरूरत नही कि सिर्फ किताब में से ही हटाया गया है, एजेंडे में वह पहले से भी कही अधिक प्राथमिकता पर ले आया गया है।

क्या इस सबसे भागवत जी ने किनारा कर लिया है? अब उनकी बाँहें और उनके संघ के दरवाजे मुसलमानों और बाकी अहिंदुओं के लिए खुल गए है? क्योंकि अगर ऐसा है, तो फिर इसे अपने संस्थापक के कहे से भी पल्ला झाड़ना होगा। अपने संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की स्वयं आरएसएस द्वारा प्रकाशित आधिकारिक जीवनी में से एक में यह साफ किया गया है कि हेडगेवार स्वतंत्रता संघर्ष से क्यों अलग हुए। जीवनी बताती है कि “यह साफ़ है कि गांधीजी हिंदू-मुस्लिम एकता को हमेशा केंद्र में रखकर ही काम करते थे … लेकिन डाक्टरजी को इस बात में खतरा दिखायी दिया। दरअसल वे हिंदू-मुस्लिम एकता के नए नारे को पसंद तक नहीं करते थे।” 1937 में महाराष्ट्र के अकोला में सीपी एंड बरार (अब महाराष्ट्र ) की हिन्दू महासभा के सावरकर की अध्यक्षता में हुए प्रांतीय अधिवेशन से लौटने पर, कांग्रेस छोड़ने की वजह पूछे जाने पर हेडगेवार का जवाब था “क्योंकि कांग्रेस हिंदू-मुस्लिम एकता में विश्वास करती है।”

उनका मुस्लिम विरोध किस ऊंचाई का था, यह संघ के शुरुआती दिनों में उनके स्वयं के व्यवहार से समझ आ जाता है। उनकी एक जीवनी में बताया गया है कि मस्जिदों के आगे बैंड बाजा बजाने, शोर मचाने की कार्यविधि उन्हीं की खोज थी, जिसे संघ आज तक आजमा रहा है। जब कभी-कभी बैंड (संगीत) बजाने वाली टोली मस्जिद के सामने बैंड बजाने में हिचकिचाती थी, तो हेडगेवार “खुद ड्रम ले लेते और शांतिप्रिय हिंदुओं को उत्तेजित कर उनकी मर्दानगी को ललकारते थे।” गौरतलब है कि 1926 तक, मस्जिदों के बाहर ढोल-बाजे बजाना सांप्रदायिक दंगों के उकसाने की मुख्य वज़ह था। हेडगेवार ने हिंदुओं में आक्रामक सांप्रदायिकता उकसाने में निजी तौर पर भूमिका अदा की। इस तथ्य को उनके घनिष्ठ और आरएसएस के संस्थापक सदस्यों मे से एक रहे नागपुर की इस्पात मिल के मालिक अन्नाजी वैद का कथन पुष्ट करता है। उन्होंने बताया है : “सन् 1926 में कई जगह हिंदू-मुसलमान दंगे होना प्रारंभ हुआ था। इसलिए हम लोगों ने तय किया कि हर एक मस्जिद के सामने से जुलूस निकलते समय ढोल बजने ही चाहिए। एक बार शुक्रवार के दिन जब वाद्य बजाने वाले एक मस्जिद के दरवाजे पर पहुंचे, तो संगीत बजाना बंद कर दिया। तब डाक्टरजी ने स्वयं ढोल खींच कर अपने गले में बांध कर बजाया। उसके बाद ही बाजा बजना प्रारंभ हुआ।”

क्या भागवत साहब ने हेडगेवार के इन सब किये-धरों को अनकिया करने का मन बना लिया है और सचमुच में आरएसएस को मुसलमानों और बाकी धर्मों के मानने वालों के लिए खोलने का फैसला कर लिया है? यदि हाँ, तो फिर वे अपने उस संविधान का क्या करेंगे, जिसमे कुछ और ही दर्ज किया हुआ है। गांधी हत्याकांड में प्रतिबंधित होने के बाद भारतीय संविधान के प्रति निष्ठा रखते हुए और गोपनीयता से दूर रहते हुए और हिंसा से दूर रहते हुए राष्ट्रीय ध्वज को मान्यता देते हुए एक लोकतांत्रिक, सांस्कृतिक संगठन के रूप में कार्य करने की अनुमति हासिल करने के लिए बनाये गये संघ के संविधान में क्या इसकी गुंजाइश है?

संघ के इस संविधान की शुरुआत ही “हिन्दू समाज में अलग-अलग पंथों, आस्थाओं, जाति और नस्लों, राजनीतिक, आर्थिक, भाषायी, प्रांतीय फ़र्कों को समाप्त कर हिन्दू समाज का सर्वोन्मुखी उत्थान” करने के वाक्य से होती है। संघ के साथ जुड़ने का एकमात्र तरीका उसका स्वयंसेवक बनना है और संविधान में स्वयंसेवक बनने के लिए ली जाने वाली शपथ में दर्ज है कि “सर्वशक्तिमान श्री परमेश्वर तथा अपने पूर्वजों का स्मरण कर मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अपने पवित्र हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू समाज की अभिवृद्धि कर भारत वर्ष की सर्वांगीण उन्नति करने क लिए मैं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का घटक बना हूँ …।” इस संविधान का पहला लक्ष्य ही “हिन्दू समाज के विविध समूहों को साथ लाना, उन्हें धर्म और सस्कृति के आधार पर पुनर्जीवित और पुन: युवतर करने” का है। क्या मुसलमानों, सिखों और बाकियों को शामिल करने के लिए भागवत अपने संघ का संविधान बदलेंगे?

वे कुछ नहीं बदलने वाले। अपने इस तरह के दिखावटी बयानों से भी वे अपने एजेंडे को ही आगे बढ़ाने का जाल बिछा रहे होते हैं। ऐसे भ्रामक, निराधार और कभी भी अमल में न लाये जा सकने वाले बयानों के जरिये जहां जनता के एक हिस्से में वे अपने सुधरे, सुथरे और भले रूप की मरीचिका का आभास देना चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर, मुस्लिम समुदाय के बारे ऐसा अहसास दिलाना चाहते हैं, जैसे वे इतनी बड़ी पेशकश को भी ठुकरा कर अपनी संकीर्णता का परिचय दे रहे हों।

*(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)*

व्हाट्सएप पर शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *