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Tuesday, May 13, 2025 12:24:22 AM

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सावरकर के ‘हिंदुत्व’ को डॉक्टर अम्बेडकर ने सिर्फ असंगत नहीं, देश के लिए खतरनाक भी बताया था!

सावरकर के ‘हिंदुत्व’ को डॉक्टर अम्बेडकर ने सिर्फ असंगत नहीं, देश के लिए खतरनाक भी बताया था!

रिपोर्ट : उर्मिलेश

 

संसद के शीतकालीन सत्र में ‘संविधान के 75 वर्ष’ के गौरवशाली मौके पर लोकसभा में दो दिनों की बहुत जीवंत बहस हुई। इसमें तमाम तरह के राजनीतिक और वैचारिक मुद्दे उठे। सत्तापक्ष का जोर समसामयिक राजनीतिक मुद्दों पर रहा।

 

कई विपक्षी नेताओं ने समकालीन राजनीतिक मुद्दों के अलावा संविधान और राष्ट्र-निर्माण से जुड़े बड़े वैचारिक सवालों को भी उठाया। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान और स्वतंत्र भारत में सक्रिय रहे कुछ बड़े नेताओं और विचारकों के योगदान की भी चर्चा हुई।

 

इस सिलसिले में वी डी सावरकर और डॉक्टर बी आर अम्बेडकर के नाम बार-बार लिये गये। सत्तापक्ष की तरफ से बहस की शुरुआत करते हुए रक्षामंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता राजनाथ सिंह ने सबसे पहले वी डी सावरकर का नामोल्लेख किया। उनका कहना था कि संविधान सभा में कई बड़े नेता शामिल नहीं थे पर संविधान-निर्माण की वैचारिक-प्रक्रिया में उनके योगदान को भी नहीं भुलाया जाना चाहिए। इस सिलसिले में उन्होंने मदन मोहन मालवीय सहित कई लोगों के साथ वी डी सावरकर का भी नाम लिया।

 

निस्संदेह, वी डी सावरकर स्वाधीनता आंदोलन के वैचारिक नेताओं में थे। वह आंदोलन में हिंदुत्व की उस धारा का प्रतिनिधित्व करते थे, जिसका मकसद भारत को ‘हिन्दुस्थान’ या ‘हिन्दोस्थान’ के तौर पर एक ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाना था। वह बेहद विवादास्पद भी रहे। ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें अंडमान जेल में रखा। अंततः वहां से उन्हें कई माफीनामों के बाद ‘मुक्ति’ मिली। फिर उन्होंने अपने कामकाज को नये ढंग से संयोजित किया और रत्नागिरी में रहते हुए सामाजिक कामकाज पर ज्यादा ध्यान दिया।

 

1948 में महात्मा गांधी की नृशंस हत्या में अभियुक्त के तौर पर उनकी गिरफ्तारी हुई। लेकिन मुकदमे की सुनवाई के दौरान साक्ष्यों की कमी का उन्हें फायदा मिला और रिहा कर दिये गये।

 

वी डी सावरकर के बारे में यह ज़रूर कहा जा सकता है कि वह ‘हिंदुत्व’ की वैचारिकी के शुरुआती प्रतिपादकों में थे। सन् 1923 में उन्होंने हिंदुत्व की अपनी वैचारिकी को व्याख्यायित करते हुए किताब लिखी। उसी पुस्तक का संशोधित-परिवर्द्धित संस्करण 1928 में छपा। वी डी सावरकर को ‘टू नेशन थियरी’ के प्रतिपादक के तौर पर भी जाना जाता है। मो. अली जिन्ना से भी कुछ साल पहले उन्होंने दो राष्ट्रों के अपने विवादास्पद सिद्धांत को सामने लाया था। पर उनका सिद्धांत मोहम्मद अली जिन्ना के पूर्ण विभाजनकारी सिद्धांत से कुछ अलग था।

 

भारतीय संविधान की ड्रॉफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन और विख्यात विचारक डॉ बी आर अम्बेडकर ने दोनों के विभाजनकारी सिद्धांत को सिरे से खारिज किया था। इस मामले में वह गांधी जी की वैचारिकी के कुछ नजदीक दिखाई देते हैं, जिनसे उनका हमेशा वैचारिक संघर्ष जारी रहा।

 

अपने इस आलेख में मैंने वी डी सावरकर और बी आर अम्बेडकर के विचारों की रोशनी में दोनों की भारत-राष्ट्र की बिल्कुल अलग संकल्पना को समझने की कोशिश की है। सावरकर ने अपनी दो राष्ट्रों की सैद्धांतिकी को व्याख्यायित करते हुए अनेक मौकों पर बोला और लिखा।

 

गांधी जी और कांग्रेस के अन्य उदारपंथी नेताओं से अलग एक हिन्दुत्ववादी नेता के तौर पर उनका मानना था कि इंडिया यानी भारत में दो राष्ट्र हैं-हिन्दू और मुस्लिम। ये दोनों अलग-अलग राष्ट्र हैं। यहां तक उनकी सैद्धांतिकी का जिन्ना की सैद्धांतिकी से साम्य है।

 

लेकिन सावरकर साहब जिन्ना साहब की तरह इंडिया यानी भारत को भौगोलिक रूप से दो अलग-अलग मुल्कों में बांटने के पक्षधर नहीं हैं। वह कहते हैं कि एक ही भौगोलिक इकाई के तहत दोनों राष्ट्र-हिन्दू और मुस्लिम साथ रह सकते हैं। हिंदू महासभा के सन् 1939 में आयोजित कलकत्ता सम्मेलन में सावरकर ने अपने विचारों को सार्वजनिक तौर पर व्याख्यायित किया।

 

उन्होंने ‘दो राष्ट्रों के अपने सिद्धांत’ को समझाते हुए कहा, ‘स्वराज का तात्पर्य है कि हिंदुओं के लिए उनका अपना स्वराज्य होना चाहिए, जिसमें उनका हिंदुत्व प्रभावी हो, जिस पर गैर-हिंदू लोगों का प्रभुत्व न हो, चाहे वे हिंदुस्तान की सीमा में रहने वाले हों या उसकी सीमा के बाहर।’

 

अपने स्वराज्य के लिए सावरकर ने दो बातों पर जोर दिया है, अपने देश इंडिया या भारत का नाम हिंदु्स्थान या हिंदोस्थान बनाये रखा जाय। दूसरी बात कि संस्कृत देव-भाषा के रूप में रहे और संस्कृतनिष्ठ हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया जाय। संस्कृत भाषा को हमेशा ही हमारे हिंदू युवकों के शास्त्रीय पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बनाए रखा जाना चाहिए।

 

संस्कृतनिष्ठ हिंदी से सावरकर का तात्पर्य ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की भाषा से है जो दयानंद सरस्वती ने लिखी थी। सावरकर ने साफ शब्दों में कहा: “स्वामी दयानंद जी पहले हिंदू नेता थे, जिन्होंने इस विचार को समझते-बूझते हुए निश्चित रूप दिया कि हिंदी ही भारत की सर्व-हिंदू राष्ट्रीय भाषा हो सकती है। … इस संस्कृतनिष्ठ हिंदी का तथाकथित संकर हिंदुस्तानी से कोई वास्ता नहीं, जिसे वर्धा स्कीम के अंतर्गत बढ़ावा दिया जा रहा है। यह भाषा की विरूपता के सिवाय और कुछ नहीं और इसे सख्ती से दबा दिया जाना चाहिए। … न केवल यही, बल्कि हमारा यह भी कर्तव्य है कि हर हिंदू भाषा से, चाहे वह प्रांतीय भाषा हो या कोई बोली, अरबी और अंग्रेजी के अनावश्यक शब्दों को जोरदार ढंग से निकाल दिया जाए।”

 

सावरकर के भाषा सम्बन्धी विचार न सिर्फ गांधी-नेहरू-पटेल-सुभाष बोस आदि की भाषा सम्बन्धी समझ के बिल्कुल उलट हैं अपितु समूचे दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर के लोगों की सोच और मिजाज के विपरीत हैं। उन्होंने अपने भाषण में में जिस वर्धा-स्कीम का उल्लेख किया है, वह गांधी जी से प्रेरित हिन्दुस्तानी भाषा के विकास का प्रकल्प है।

 

इसी तरह सावरकर की राष्ट्र सम्बन्धी धारणा स्वाधीनता आंदोलन के सभी प्रमुख नेताओं की वैचारिकी के ठीक उलट है। अहमदाबाद के हिन्दू महासभा सम्मेलन (1937) में उन्होंने अपनी धारणा को इन शब्दों में पेश किया- “हमें अप्रिय तथ्यों का बहादुरी से सामना करना चाहिए’। … आज हिंदुस्तान को एकात्मक और समजातीय राष्ट्र नहीं कहा जा सकता बल्कि इसके ठीक विपरीत यहां हिंदू और मुस्लिम दो प्रमुख राष्ट्र हैं।” श्री सावरकर की दो राष्ट्रों की चर्चित सैद्धांतिकी का यही सार-संक्षेप है। इस विषय पर उन्होंने काफी विस्तार से लिखा है।

 

डॉ बी आर अम्बेडकर ने उसी दौर में सावरकर की इन तमाम धारणाओं और सैद्धांतिकियों को सिरे से खारिज किया। ‘पाकिस्तान का हिंदू विकल्प’ शीर्षक अपने लंबे आलेख में बाबा साहेब ने लिखा — “यह बात सुनने में भले ही विचित्र लगे पर एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के प्रश्न पर श्री सावरकर और श्री जिन्ना के विचार परस्पर विरोधी होने के बजाय एक-दूसरे से पूरी तरह मेल खाते हैं। … दोनों ही इस बात को स्वीकार करते हैं और न केवल स्वीकार करते हैं अपितु इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं-एक मुस्लिम राष्ट्र और एक हिंदू राष्ट्र। उनमें मतभेद सिर्फ इस बात पर है कि इन दोनों राष्ट्रों को किन शर्तों पर एक-दूसरे के साथ रहना चाहिए। … जिन्ना कहते हैं कि हिंदुस्तान के दो टुकड़े कर देना चाहिए-पाकिस्तान और हिंदुस्तान। मुस्लिम कौम पाकिस्तान में रहे और हिंदू कौम हिंदुस्तान में। दूसरी ओर सावरकर इस बात पर जोर देते हैं कि यद्यपि भारत में दो राष्ट्र हैं पर हिंदुस्तान को दो भागों में-एक मुस्लिमों के लिए और दूसरा हिंदुओं के लिए, नहीं बांटा जायेगा। … ये दोनों कौमें एक ही देश में रहेंगी और एक ही संविधान के अंतर्गत रहेंगी। यह संविधान ऐसा होगा, जिसमें हिंदू राष्ट्र को वह वर्चस्व मिले, जिसका वह अधिकारी है और मुस्लिम राष्ट्र को हिंदू राष्ट्र के अधीनस्थ-सहयोग की भावना से रहना होगा।”

 

बाबा साहेब सावरकर को उद्धृत करते हुए उनके इन विचारों की धज्जियां उड़ाते हैं, (बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर, संपूर्ण वांग्मय, खंड-15, पृष्ठ-132-33)।

 

बाबा साहेब ने सावरकर के इस विचित्र दो राष्ट्र की थीसिस को खारिज करते हुए कहा कि बहुत सारे लोगों को लग सकता है कि सावरकर ‘हिंदू और मुस्लिम इन दो राष्ट्रों’ को एक ही राष्ट्रीय-भूभाग में रहने की बात करके कुछ बिल्कुल नयी धारणा या थियरी पेश कर रहे हैं। पर यह भी नकल है।

 

बाबा साहेब ने कहा। –“श्री सावरकर को यह श्रेय भी नहीं दिया जा सकता कि उन्होंने कोई नया फार्मूला ढूंढ निकाला है। उन्होंने स्वराज की अपनी योजना को पुराने आस्ट्रिया और पुराने तुर्की के नमूने और ढांचे पर आधारित किया है। … उन्होंने देखा कि आस्ट्रिया और तुर्की में एक बड़े राष्ट्र की छाया में अन्य छोटे राज्य रहते थे, जो एक विधान से बंधे हुए थे और उस बड़े राष्ट्र का छोटे राष्ट्रों पर प्रभुत्व रहता था। फिर वह तर्क देते हैं कि आस्ट्रिया या तुर्की में यह संभव है तो हिंदुस्तान में हिंदुओं के लिए वैसा करना क्यों संभव नहीं?”

 

सावरकर की उक्त टिप्पणी को उद्धृत करते हुए डॉ. अम्बेडकर उसकी अव्यावहारिकता और विफलता पर लिखते हैं — “यह बात वास्तव में बड़ी विचित्र है कि श्री सावरकर ने पुराने आस्ट्रिया और पुराने तुर्की को (अपने विचार-प्रतिपादन के लिए) नमूने या आदर्श के रूप में पेश करते हैं। … ऐसा लगता है कि श्री सावरकर को शायद यह नहीं मालूम कि अब पुराना आस्ट्रिया या पुराना तुर्की बचे ही नहीं। वह नमूना नहीं रहा। शायद उन्हें उन ताकतों का तो बिल्कुल ही नहीं पता जिन्होंने पुराने आस्ट्रिया और पुराने तुर्की के टुकड़े-टुकड़े कर दिये।” (संपूर्ण वांग्मय, खंड-15, पृष्ठ-134)।

 

बाबा साहेब कहते हैं कि “सावरकर के ऐसे विचार यदि विचित्र नहीं तो तर्कहीन ज़रूर हैं। सावरकर मुस्लिमों को एक अलग राष्ट्र ही नहीं मानते, वे यह भी मान लेते हैं कि उन्हें सांस्कृतिक स्वायत्तता का अधिकार भी है। उन्हें अपना पृथक ध्वज रखने की भी अनुमति देते हैं। … पर इन सबके बावजूद वह मुस्लिमों को अलग कौमी वतन की अनुमति नहीं देते। यदि सावरकर हिंदुओं को एक राष्ट्र मानते हुए उन्हें एक अलग कौमी वतन की अनुमति देते हैं तो मुस्लिमों को एक अलग राष्ट्र के साथ अन्य अधिकारों को देने के बावजूद अलग कौमी वतन पाने की अनुमति क्यों नहीं देना चाहते?”

 

डॉ. अम्बेडकर ने सावरकर के ऐसे विचारों को न सिर्फ असंगति-पूर्ण अपितु भारत की सुरक्षा के लिए खतरा भी बताया। उन्होंने लिखा है — “यदि श्री सावरकर की एकमात्र गलती उनके विचारों और तर्कों की असंगति होती तो ये कोई बहुत चिंता का विषय नहीं होता। … परन्तु अपनी योजना का समर्थन करके वह भारत की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा पैदा कर रहे हैं।” (पृष्ठ-133-34)।

 

अम्बेडकर ने बहुत विस्तार से लिखा है कि सावरकर के ऐसे विचार और बेतुके तर्क भारत की एकता और सुरक्षा के लिए क्यों और कैसे बहुत खतरनाक हैं! हिंदू और मुस्लिम, दोनों को अलग-अलग राष्ट्र बताते हुए भी दोनों को एक ही देश में रखने की बात करने की क्या व्याख्या हो सकती है! ये विचार बेतुके ही नहीं, खतरनाक भी हैं।

 

इस तरह बाबा साहेब बी आर अम्बेडकर ने अपने लंबे आलेख में ‘हिंदुत्व के सबसे प्रखर विचारक’ बताये जाने वाले वी डी सावरकर के विचारों और तर्कों के अलावा उनकी पूरी समझ को ठोस तथ्यों और तर्कों के साथ खारिज किया है।

 

बाबा साहेब ने यह सब सावरकर के सक्रिय जीवनकाल में ही लिखा है। पर सावरकर कभी भी बाबा साहेब के इन अकाट्य तर्कों और तथ्यों का प्रतिकार नहीं कर सके।

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