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Wednesday, April 30, 2025 12:24:32 AM

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भारत जोड़ो यात्रा : मंज़िल और उस तक पहुँचने के रास्ते तलाशने अभी बाकी हैं

भारत जोड़ो यात्रा : मंज़िल और उस तक पहुँचने के रास्ते तलाशने अभी बाकी हैं

 रिपोर्ट : बादल सरोज

 

यात्रा अमूमन वह होती है, जिसकी पूर्व निर्धारित मंज़िल हो। इसीलिये यात्राओं की सफलता उस तयशुदा मंज़िल तक पहुँचने में ही निहित होती है। 7 सितम्बर 2022 से शुरू होकर गाँधी शहादत की 75वीं बरसी 30 जनवरी 2023 को पूरी हुयी यात्रा – जिसे भारत जोड़ो यात्रा का नाम दिया गया था – इस हिसाब से थोड़ी भिन्न थी। इसका मूल्यांकन इसके गंतव्य या उस तक पहुँचने के मार्ग से नहीं, बल्कि उस प्रभाव से किया जाएगा, जिसे इसने लगभग 5 महीनों के दौरान पैदा किया।

 

इस यात्रा का समय लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य “भारत दैट इज इंडिया” के ताजे इतिहास का मुश्किल और जटिल समय था। एक अजीब-से घटाटोप और असहज-सी घुटन का समय है। किसी भी सभ्य और लोकतांत्रिक समाज के लिए खुलापन, बेबाक बहस, असहमति और प्रतिरोध सबसे जरूरी है। भारत और दुनिया में समाज इन्हीं की दम पर आगे बढ़ा है, आगे बढ़ता है। हाल के दौर में, खासकर 2014 के बाद से यह लगभग गायब है। एकपक्षीय गरल का प्रवाह है। संवाद यहां तक कि बोलने और लिखने के कामों को भी अघोषित रूप से लगभग प्रतिबंधित कर दिया गया है।

 

मीडिया, शिक्षा, विश्वविद्यालय, प्रशासन हर माध्यम पर जॉर्ज ऑरवेल का बिग ब्रदर खाकी नेकर पहने लाठी लिए बैठा है। वो कुछ भी कह सकता है, कुछ भी बोल सकता है, उसके कहे की समीक्षा नहीं की जा सकती। जिस देश में ईश्वर से प्रश्न किये जा सकते हैं, उसमें इस बिग ब्रदर और उसके लगुओं-भगुओं ने जो कहा, जो किया, उसको लेकर कोई सवाल जवाब नहीं किये जा सकते। सूचना और कम्युनिकेशन के हर माध्यम पर वर्चस्व कायम कर लिया गया है। सिर्फ अमावस की बात करनी है, उसकी भी सराहना ही करनी है। पूर्णिमा तो दूर रही – मोमबत्ती या दीपक जलाना भी अपराध है ; राष्ट्रद्रोह है।

 

यह हमला सर्वग्रासी है, सर्वआयामी है ; निशाने पर सिर्फ वर्तमान नहीं है, अतीत भी है। पिछले 5 हजार वर्षों में भारतीय समाज की जड़ता पर हुए प्रहारों से जो सामाजिक समझ, संस्कार और साझा विवेक हासिल हुआ है, उसे वापस लौटाने की मुहिम है। अब तक के सारे सकारात्मक हासिल का निषेध है। इसलिए यह मसला सिर्फ चुनावी हार-जीत का नहीं है। ‘दूबरे के दो आषाढ़’ की तर्ज पर यह समय सन्निपात का भी समय है। उधर हड़बड़ी है – एक फासिस्ट राज कायम करने की जल्दबाजी है, तो इधर भी झुंझलाहट है। चिड़चिड़ापान है, खुद को एकमात्र सही मानने और बाकी सब कुछ को खारिज कर देने का भाव है। समग्रता में मूल्यांकन का विवेक गायब हो रहा है।

 

भारत जोड़ो यात्रा इस प्रायोजित और जान-बूझकर रचे गए सन्नाटे को तोड़ने में एक हद तक सफल रही है। इस लिहाज से यह हमारे कालखंड की एक महत्वपूर्ण और विशिष्ट घटना है।

 

यकीनन इसने हुक्मरानों और उनके रिमोट धारियों के बीच बेचैनी और चिंता पैदा की है। उनमें इसके संभावित असर से घबराहट दिखी है। वहीं भारत की सलामती के प्रति चिंतित, इसकी एकजुटता और बेहतरी के लिए आतुर और प्रयत्नशील व्यक्तियों, सामाजिक संगठनों, सिविल सोसायटी समेत भारत की जनता ने इस यात्रा को एक राहत की तरह देखा है ।

 

इसे एक पार्टी विशेष या नेता विशेष की कदमताल से आगे का कदम मानकर देखा है। कांग्रेस की पहुँच और आधार, सांगठनिक तंत्र और फिलहाल के उसके आत्मविश्वास से कहीं ज्यादा – काफी ज्यादा – इसकी रीच इसी के चलते संभव हुयी। इस लिहाज से यह कवायद यात्रा को नए तरीके से परिभाषित करने में कामयाब हुई है। इसलिए भी यह आज के दौर की उल्लेखनीय घटना है।

 

यह वातावरण इसी प्रकार बना रहेगा, यह सोचना कुछ ज्यादा ही सदाशयता होगी।

 

एक तो इसलिए कि हाल के दौर में खासतौर से 2014 के बाद से मैदान बहुत ही ऊबड़-खाबड़ हुआ। नतीजे में राजनीतिक संघर्ष लड़ाई रूप में ही नहीं, सार में भी भिन्न हुआ है ; उसके मुकाबले के लिए जो तरीके अपनाने होंगे, वे नए होंगे, अब तक आजमाए गए तरीके तो नहीं ही होंगे। जो होंगे, वे रूप और सार दोनों में भिन्न और समावेशी होंगे। इस समावेशिता को हासिल करने के लिए भी, भिन्नताओं के बावजूद समन्वय के नए आकार-प्रकार ढूंढने होंगे।

 

दूसरे, इस कालखण्ड की जो सबसे बड़ी संक्रामता है, उसे कायदे से चीन्हना होगा और बिना हिचके पूरी एकाग्रता के साथ उससे निबटना होगा। धर्म की अधर्मी व्याख्या और उसका राजनीति के लिए इस्तेमाल इस संक्रामकता का विषाणु है – जो शास्त्रीय अर्थों में अब सिर्फ साम्प्रदायिकता तक महदूद नहीं रहा। विभाजन और विखंडन की जो प्रक्रिया सत्ता का रिमोट धारे विचार समूह – आरएसएस – ने शुरू की है, वह वर्टीकल और हॉरिजॉन्टल हर तरफ गहरी और बड़ी दरारें बनाती जा रही है। इसे ब्लैकहोल में बदलने से रोकना होगा और यह काम आहिस्ता-आहिस्ता नहीं किया जा सकता।

 

शकुनि की चौसर पर शकुनि के पांसों से खेलकर शकुनि ही जीतता है। इसलिए खेल के मैदान को बदलना होगा – सांड़ को पूंछ से नहीं, सींगों से पकड़ना होगा। कुल मिलाकर यह कि मौजूदा नैरेटिव बदलना होगा। ऐसा करना मुमकिन है – बशर्ते बीमारी को पूरी समग्रता से लिया जाए। “हम दो हमारे दो” के वाक्यांश को उसके तार्किक मुकाम तक पहुंचाया जाए ; अडानी और अम्बानी सिर्फ रूपक भर तक सीमित न रहें, उनकी क्रियाओं से उपजी परिस्थितियों की शिकार जनता के दुःख-दर्दों के समाधान भी संज्ञान में आएं।

 

मतलब यह कि चर्चा सिर्फ ‘क्या हुआ है’ तक न रहे, ‘क्या होना चाहिए’ तक भी जाये ; एक वैकल्पिक दृष्टिकोण को भी सूत्रबद्ध किया जाए।

 

अंधेरों को कोसना काफी नहीं होता, उन्हें चूर-चूर करने के लिए उजाला भी करना होता है ; वैकल्पिक नीतियां भी लानी होती हैं। बदलाव व्यक्तियों या दलों के नहीं, नीतियों के होते हैं। वैकल्पिक नीतियां ही वह क्रिटिकलिटी पैदा करती हैं, जिससे अपार ऊर्जा बनती है। इसके अनेक उदाहरण हैं।

 

हाल के दिनों को ही ले लें, तो मंदसौर में 2017 में किसानों पर चली गोलियों के बाद निकली किसान संगठनों की यात्रा ने महज दो-ढाई वर्ष में देश के किसानों को जगाकर साढ़े तेरह महीने के लिए दिल्ली की बॉर्डर पर खड़ा कर दिया था – इसलिए कि वह बाकायदा एक विकल्प लेकर निकली थी। कुछ इसी तरह से इस दिशा में यदि पहल होती है, तो इस यात्रा ने जो माहौल बनाया है, वह एक मंज़िल तक पहुँच सकता है।

 

लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।

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