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Monday, May 12, 2025 10:01:38 PM

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वर्ष 2024 : संविधान और आंबेडकर की केंद्रीयता का वर्ष

वर्ष 2024 : संविधान और आंबेडकर की केंद्रीयता का वर्ष

रिपोर्ट : वीरेंद्र यादव

 

यह पहली बार है कि स्वाधीन भारत में लोकसभा का कोई चुनाव (2024) संविधान और उसके प्रावधानों के इर्द-गिर्द लड़ा गया। सत्ता विरोधी इंडिया गठबंधन ने जहां जोर-शोर से संविधान के खतरे में होने और इसमें आमूलचूल परिवर्तन किये जाने की आशंका को धार दी, वहीं सत्तापक्ष का नेतृत्व हिंदुत्व के मुद्दे को कमजोर पड़ता देख रक्षात्मक मुद्रा में यह कहने को विवश हुआ कि ‘यदि आंबेडकर भी आ जायें तो संविधान को नहीं बदल सकते।’

 

संविधान और आंबेडकर की इस चर्चा की अनुगूंज लोकसभा के चुनाव नतीजे आने के बाद नव-निर्वाचित सदस्यों द्वारा हाथ में संविधान की प्रति और ‘जय भीम’ के उद्घोष के साथ परवान चढ़ी। वर्ष की शुरुआत 22 जनवरी को अयोध्या में राममंदिर के उद्घाटन के साथ जिस आपाधापी से हुई थी, उसके पीछे लोकसभा के चुनाव को हिंदुत्व के मुद्दे पर लड़ने और जीतने का मंतव्य साफ था। लेकिन भाजपा के ‘चार सौ पार’ के नारे को संविधान और आरक्षण के लिये खतरे की घंटी बताने में इंडिया गठबंधन की रणनीति ने जिस तरह भाजपा को अपने बूते लोकसभा में बहुमत से वंचित रखा, वह हिंदुत्व के मुद्दे की करारी हार और संविधान के मुद्दे की केंद्रीयता का द्योतक है।

 

राममंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के राजनीतिक-धार्मिक कार्निवाल के बाद अयोध्या (फैज़ाबाद) की अनारक्षित लोकसभा सीट से समाजवादी पार्टी के दलित उम्मीदवार अवधेश प्रसाद पासी का चुनाव जीतना और चुनाव के दौरान यह नारा लगना कि ‘न मथुरा न काशी, अबकी जिति हैं अवधेश पासी’ के गहरे निहितार्थ हैं। इतना ही नहीं, बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी से नरेंद्र मोदी के जीत का अंतर महज डेढ़ लाख के अंतर तक सिमट जाना भी हिंदुत्व के मुद्दे पर ग्रहण लगाने वाला था।

 

इस सबके बीच जातिगत जनगणना के मुद्दे को राहुल गांधी ने संविधान की प्रति हाथ में लेकर लगातार जिस तरह धार दी, वह संविधान को केंद्रीय मुद्दे के रूप में जीवंत रखने में सफल रहा है। लेकिन इस सबके बावजूद हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र के चुनाव में भाजपा ने जिस तरह से हिंदुत्व के मुद्दे को पुनर्जीवन प्रदान किया, उससे यह स्पष्ट है कि लोकसभा के चुनावी धक्के के बावजूद भाजपा के लिये हिंदुत्व पर आधारित बहुसंख्यकवाद की राजनीति ही उसका प्रमुख लक्ष्य है।

 

स्वीकार करना चाहिए कि भारतीय संविधान में सन्निहित ‘समता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व’ के मूल्य हिंदुत्व की राजनीति से मेल नहीं खाते। बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा ही था कि ‘अगर वास्तव में हिंदू राज बन जाता है तो निस्संदेह इस देश के लिये एक भारी खतरा उत्पन्न हो जायेगा। हिंदू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लिये एक खतरा है। इस आधार पर प्रजातंत्र के लिये यह अनुपयुक्त है। हिंदू राज को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।’ ( डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर, सम्पूर्ण वाङ्मय, खंड-15, पृ. 365)।

 

कहना न होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की राजनीति धर्मनिरपेक्षता के बरक्स जिस धर्म आधारित राजनीति पर टिकी है, उसके रास्ते में वर्तमान संविधान एक बड़ी बाधा है। यह अनायास नहीं है कि देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनकर का यह स्पष्ट अभिमत है कि ‘संविधान की मूल संरचना जैसा कोई सिद्धांत नहीं है। संसद सर्वोपरि है, वह इसमें कोई भी संशोधन कर सकती है।’

 

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के तत्कालीन प्रमुख विवेक देबरॉय (अब दिवंगत) ने तो नये संविधान के लिखे जाने की ही वकालत की थी। लोकसभा चुनाव के पूर्व कई भाजपा सांसदों ने भी संविधान बदले जाने की बात कही ही थी। तात्पर्य यह कि भारत के संविधान को लेकर वर्तमान भाजपा और इसके पूर्ववर्ती मूल संगठन इससे असंतोष और असहमति व्यक्त करते रहे हैं।

 

इस संदर्भ में याद आता है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अघोषित मुखपत्र ‘आर्गैनाइजर’ का वह संपादकीय, जो संविधान सभा द्वारा संविधान को स्वीकार किये जाने के चार दिन बाद 30 नवम्बर. 1949 को प्रकाशित हुआ था।

 

स्वीकृत संविधान को खारिज करते हुए इस संपादकीय में कहा गया था कि, ‘भारत के इस नये संविधान में सबसे खराब बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नही है। इसमें पुरातन भारतीय संवैधानिक विधि, संस्थाओं, नामों और शब्दावली का कोई संकेत नहीं है, न ही इसमें प्राचीन भारत में हुए संवैधानिक विकास का उल्लेख है। मनु की विधि, स्पार्टा के लाइसर्जस और पर्सिया के सोलन के, काफी पहले लिखी गई थी। उनके द्वारा रचित मनुस्मृति आज भी विश्व में प्रशंसित, सम्मानित और अनुकरणीय है।’

 

भारत के संविधान के इस नकार के मूल में भारत की संकल्पना का वह विचार (आइडिया ऑफ़ इंडिया) था, जो ‘सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता. प्रतिष्ठा और अवसर की समानता व बंधुत्व पर टिका था।’ इस विचार में हिंदू चोल-राजशाही के प्रतीक दंड ‘सेंगोल’ की कर्मकांड के साथ संसद में स्थापना या अयोध्या में प्रधानमंत्री द्वारा राममंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का कोई स्थान व औचित्य नहीं था।

 

सच तो यह है कि विगत दस वर्षों के इस समूचे दौर में सत्तापोषित हिंदुत्ववादी राजनीति द्वारा संविधान संरक्षित भारतीय समाज की बहुलतावादी संरचना की अनदेखी करते हुए बहुसंख्यकवाद की राजनीति को उग्र तरीके से अमल में लाया गया है। यहां तक कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए राजनेताओं ने चुनावी प्रचार के दौरान ‘एक हैं, तो नेक हैं’ और ‘बटेंगे, तो कटेंगें’ सरीखे विभाजक नारों का भी सहारा लिया। चुनावी रैलियों के दौरान संवैधानिक पदों पर आसीन नेताओं द्वारा ‘जय बजरंग बली’ और ‘जय श्रीराम’ का उद्घोष और चुनाव आयोग द्वारा इसकी अनदेखी संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण का ही परिचायक है।

 

केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह द्वारा बिहार में ‘हिंदू स्वाभिमान यात्रा’ का निकाला जाना संविधान के प्रति बेपरवाही का ही परिचायक है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के संवैधानिक पद पर आसीन न्यायाधीश द्वारा यह कहना कि ‘यह देश बहुसंख्यक के अनुसार चलेगा’ और ‘हिंदू अधिक सहिष्णु और उदार’ होते हैं, इस दौर में संविधान की अवमानना का ज्वलंत उदाहरण है।

 

दरअसल, भारतीय संविधान के रहते हुए संविधान की इस अवमानना के मूल में वह हिंदुत्ववादी सोच है, जिसकी जड़ें मनुवादी विचार में अवस्थित हैं। सनातन के मुद्दे को इसी आधार पर हवा दी जा रही है। तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति द्वारा सनातन विरोध स्वाभाविक ही था। संविधान की अनदेखी कर धर्म की यह राजनीति देश की अखंडता के लिये भी घातक है। ऐसे में लोकसभा में संविधान की बहस के दौरान प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी द्वारा यह कहना उचित ही है कि ‘असली मुद्दा संविधान बनाम मनुस्मृति का है।’

 

संविधान के मुद्दे को केंद्रीयता प्रदान कर विपक्षी दलों ने सत्ताधारी दल के हिंदुत्व के मुद्दे को प्रश्नांकित करने के साथ देश की राजनीतिक धारा को सही दिशा में मोड़ने की भी पहलकदमी की है। इस दौर में संविधान और आंबेडकर जिस तरह एक दूसरे के पर्याय हो गये हैं, उसमें सत्ता प्रतिष्ठान के लिए यह सुविधाजनक है कि बात संविधान से विमुख होकर बाबा साहेब आंबेडकर के सम्मान तक सीमित हो जाए। संविधान पर संसद में दो दिनों की बहस के दौरान सत्तापक्ष ने यही किया। आंबेडकर बनाम नेहरू की बहस का यही मंतव्य था। लेकिन राज्यसभा में बहस का जवाब देते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने जिस तरह खिल्ली भरे अंदाज़ में ‘आंबेडकर बनाम भगवान’ का द्वैत खड़ा किया, वह आत्मघाती सिद्ध हुआ। इसकी परिणति संसद के द्वार पर पक्ष-विपक्ष के बीच जिस टकराव से हुई, वह भारत के संसदीय इतिहास का एक शर्मनाक अध्याय है। यह सब आंबेडकर और संविधान के नाम पर हुआ, यह वर्ष इसलिये भी याद रखा जायेगा।

 

यहां यह स्वीकार करना होगा कि जहां आंबेडकर को ‘प्रात: स्मरणीय’ की कोटि में पांक्तेय कर संघ व भाजपा ‘समरसता’ के आवरण में हिंदू धर्म के वर्णाश्रमी-जातिगत विभाजन के यथार्थ को झुठलाना और अपने सवर्ण आधार को बचाये रखना चाहती है ; वहीं राहुल गांधी और प्रतिपक्षी गठबंधन जातिगत जनगणना और बाबा साहेब के अपमान के मुद्दे को मज़बूती प्रदान कर बहुजन समाज को अपने साथ जोड़ने का लिये प्रयत्नशील हैं।

 

लेकिन इसे चुनावी रणनीति तक सीमित रखना जनता के साथ एक छलावा ही होगा। जरूरत है कि संविधान और बाबा साहेब पर केंद्रित इस बहस को परिवर्तनकामी दिशा देने के लिये विपक्ष स्पष्ट वैकल्पिक नीति की घोषणा करे। संविधान के मुद्दे को प्रतीकात्मकता के पार ले जाकर उन संवैधानिक मुद्दों की निशानदेही की आवश्यकता है, जो कल्याणकारी राज्य के लक्ष्यों की पूर्ति में सहायक हैं।

 

दिनों दिन बढ़ती आर्थिक असमानता, शिक्षा, चिकित्सा व रोजगार सरीखे मुद्दों से राज्य का विमुख होना, किस तरह संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों का उल्लंघन है, इसे संविधान के प्रावधानों द्वारा सिद्ध व प्रचारित करने की आवश्यकता है। ‘जय संविधान’ और ‘जय भीम’ के नारों को डिकोड करने की जरूरत है।

 

वर्ष 2024 में संविधान चर्चा ने यह अवसर उपलब्ध कराया है कि संविधान निर्माताओं ने स्वाधीनता आंदोलन के जिन मूल्यों को आधुनिक भारत की संकल्पना के साथ जोड़ा था, उनको संजोते हुए भारत की बहुलवादी और धर्मनिरपेक्ष संरचना को बचाया जाए। वर्ष के जाते-जाते यह सुखद सूचना है कि आनंद तेलतुंबडे द्वारा लिखित ‘आइक्नोक्लास्ट — ए रेफ्लेक्टिव बायोग्राफी ऑफ़ डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर’ शीर्षक से बाबा साहेब आंबेडकर की चिंतनपरक विस्तृत जीवनी प्रकाशित होकर हमारे बीच उपलब्ध है। इससे बाबा साहेब के इर्द-गिर्द रचे गये मिथक और वितंडे को निर्मूल करने में निश्चित ही मदद मिलेगी। इसे भी इस वर्ष की उपलब्धि के रूप में दर्ज़ किया जाना चाहिए।

 

‘द वायर हिंदी’ से साभार। वीरेंद्र यादव वरिष्ठ हिंदी आलोचक हैं।

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