रिपोर्ट : राजेंद्र शर्मा)
विदेश सेवा के अधिकारियों के मुकाबले, इन सांसदों/ राजनीतिक नेताओं का वजन विदेशी मोर्चे पर भी इसीलिए अधिक माना जा रहा है कि वे अपनी राजनीतिक पार्टियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो भारतीय जनता की राय का प्रतिनिधित्व करती हैं। लेेकिन, सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी की आंतरिक दिक्कतों का फायदा उठाने की कोशिश में, मोदी सरकार ने इन मिशनों के भेजे जाने के पूरे विचार में ही पलीता लगा दिया है।
मैं यह देखकर प्रसन्न हूं कि कई दक्षिणपंथी टिप्पणीकार कर्नल सोफिया कुरैशी की सराहना कर रहे हैं, लेकिन शायद उन्हें उतनी ही शिद्दत से यह मांग भी करनी चाहिए कि भीड़ हिंसा के शिकार, बिना कानूनी प्रक्रिया के मकानों पर बुलडोजर चलवाए जाने और भाजपा की नफरत की राजनीति के शिकार अन्य लोगों को भी, समान रूप से एक भारतीय नागरिक के रूप में न्याय और सुरक्षा दी जाए।’
‘दो महिला अफसरों का प्रैस कान्फ्रेंस करना दीखने में एक महत्वपूर्ण दृश्य हो सकता है, लेकिन जब तक यह नजारा जमीनी स्तर पर ठोस बदलाव में तब्दील न हो, तब तक यह केवल एक ‘दृश्य राजनीति’ (ऑप्टिक्स) ही रहेगा — एक छलावा।’
अशोका विश्वविद्यालय के इतिहास तथा राजनीति विभाग के प्रोफेसर तथा राजनीति विभाग के विभागाध्यक्ष, प्रो. अली खान महमूदाबाद की ऑपरेशन सिंदूर से संबंधित अपेक्षाकृत लंबी फेसबुक पोस्ट की शायद यही पंक्तियां हैं, जिनके लिए न सिर्फ उनको हड़बड़ी में हरियाणा पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया है, उन्हें अन्य अनेक धाराओं के अलावा राजद्रोह के दो-दो आरोपों में गिरफ्तार किया गया है। हजारों की संख्या में अकादमिकों और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने प्रोफेसर अली खान की गिरफ्तारी को सरासर अनुचित तथा मनमानी बताते हुए, इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन बताने के साथ ही, जिस तरह कुछ विस्तार से उनकी टिप्पणी में कुछ भी, किसी भी नजर से आपत्तिजनक होने मात्र का खंडन किया है, उससे पूरी तरह से सहमत होने के चलते, हम यहां उसे दोहराना आवश्यक नहीं समझते हैं। हम यहां सिर्फ इतना ध्यान दिलाना चाहेंगे कि प्रो. अली इस टिप्पणी में जिस छलावे या पाखंड से बचे जाने का ताकाजा कर रहे थे, उनकी गिरफ्तारी आतंकवाद के विरुद्घ राष्ट्र को एकजुट करने के इस चुनौतीपूर्ण समय में भी सत्ताधारी संघ-भाजपा के उसी पाखंड का सहारा लेने का, एक और सबूत पेश कर रही थी।
प्रो. अली की गिरफ्तारी इस पाखंड को इसलिए और किसी उदाहरण से ज्यादा मुखरता से उजागर करती है कि ठीक इसी समय पर, मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री, कुंवर विजय शाह के मामले में, उसी संघ-भाजपा की सरकार, इससे ठीक उल्टा ही आचरण प्रदर्शित कर रही थी। प्रो. अली के विपरीत, भाजपायी मंत्री के खिलाफ, किसी भी नजर से क्यों न देखा जाए, ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सचेत रूप से भारतीय कार्रवाई का चेहरा बनायी गयी, कर्नल सोफिया कुरैशी के घनघोर अपमान का मामला बनता है। और शुद्घ सांप्रदायिक आधार पर यानी उनके मुसलमान होने के लिए ही, उनका ऐसा अपमान करने का मामला बनता है। इसके बावजूद, जैसा कि सभी जानते हैं, भाजपायी मंत्री के खिलाफ, न तो भाजपा की मध्य प्रदेश सरकार ने कोई कार्रवाई करने की जरूरत समझी है और न ही संघ-भाजपा परिवार ने।
यहां तक कि इस मामले पर चारों ओर शोर मचने के बाद, मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की जबलपुर बैंच ने स्वत: संज्ञान लेकर, मंत्री के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के बहुत ही सख्त आदेश भी जारी कर दिए। इसके बाद मजबूरी में आखिरी घंटे पर पुलिस ने एफआईआर दर्ज तो की लेकिन, इतनी लचर एफआईआर कि हाई कोर्ट की बैंच को अगले दिन फिर से सरकार को सिर्फ फटकार ही नहीं लगानी पड़ी, यह आदेश भी जारी करना पड़ा कि आगे अदालत इस मामले की निगरानी करेगी। इसके बाद भी, भाजपायी राज्य सरकार ने साफ कर दिया है कि वह दोषी मंत्री की गिरफ्तारी नहीं करने जा रही है। और मध्य प्रदेश सरकार द्वारा विजय शाह की गिरफ्तारी की किसी भी संभावना से इंकार ठीक उस समय किया जा रहा था, जब उसी संघ-भाजपा की हरियाणा सरकार, प्रो. अली खान की दिल्ली से गिरफ्तारी की तैयारी कर रही थी।
बेशक, पहलगाम में आतंकवादियों ने धर्म पूछकर हत्याएं की थीं। और जैसा कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सरकार की ओर से एक पत्रकार वार्ता में, विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने रेखांकित भी किया था, इसके पीछे आतंकवादियों का मकसद देश में सांप्रदायिक विभाजन पैदा करना था। उनका यह कहना भी बहुत हद तक सही था कि देश ने, आतंकवादियों के इन मंसूबों को विफल कर दिया था। पर बहुत हद तक ही। बेशक, आतंकवादियों की इस दरिंदगी के खिलाफ आम तौर पर पूरा देश एकजुट था। जम्मू-कश्मीर ने और देश के अल्पसंख्यकों ने खासतौर पर, इस दरिंदगी के लिए अपने नाम के इस्तेमाल को बलपूर्वक ठुकराया था। देश व जनता की इस व्यापक एकता की अभिव्यक्ति, सर्वदलीय बैठक के जरिए आतंकवाद और उसके प्रश्रयदाताओं के खिलाफ, पूरी तरह से एकजुट संदेश में भी हुई थी।
लेकिन, इसके समानांतर एक क्षीण किंतु सत्तातंत्र का संरक्षण प्राप्त होने से उग्र धारा, विभाजन पैदा करने की भी थी। यह धारा, आतंकवादियों की करतूतों के बहाने से खासतौर पर कश्मीरी मुसलमानों को और आम तौर पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को हमलों का निशाना बनाए जाने की थी। जाहिर है कि भौतिक हमलों से कई गुना बड़ा था, वैचारिक-भावनात्मक हमलों का यह दायरा, और ये हमले सत्ता परिवार के आईटी सेल द्वारा संचालित ताने-बाने के जरिए किए जा रहे थे। बहरहाल, शासन की ओर से किसी रोक-टोक के अभाव में भौतिक हमलों का सिलसिला भी, आपरेशन सिंदूर के शुरू होने तक जारी ही था। एसोसिएशन ऑफ प्रोटैक्शन ऑफ सिविल राइट्स (एपीसीआर) द्वारा 22 अप्रैल से 8 मई के बीच, देश के 20 राज्यों में 180 से ज्यादा सांप्रदायिक घटनाओं का जो विवरण एकत्रित किया गया है, उसके अनुसार इनमें 106 घटनाएं पहलगाम के आतंकवादी हमले से संबंधित थीं और इनकी चपेट में कम से कम 316 लोग आए थे। इनमें 39 हमले की, 19 तोड़-फोड़ की और 42 मुसलमानों को तंग किए जाने की घटनाएं थीं। यह दिखाता है कि जब देश को एकता की सबसे ज्यादा जरूरत थी, उस घड़ी में भी सत्ताधारी संघ-भाजपा तथा उनके शासन द्वारा संरक्षित हिंदुत्ववादी ताकतें, जनता की एकता की ही जड़ों को खोखला करने में लगी हुई थीं और शासन की एकता की गुहारों को पाखंड में तब्दील करने में लगी हुई थीं।
आतंकवाद के विरुद्घ देश और देशवासियों की सहज-स्वाभाविक एकता के लिए, अपने विभाजनकारी व्यवहार से चुनौती खड़ी करने का मोदी सरकार का खेल ‘आपरेशन सिंदूर’ के नाम से पाकिस्तान के साथ चार दिन की सैन्य मुठभेड़ के बाद भी थमा नहीं है। बेशक, इस पूरे प्रकरण में भारत के विदेश नीति तंत्र का प्रदर्शन सत्यानाशी रहा है। इसका सबसे प्रत्यक्ष सबूत तब मिल गया, जबकि इन झड़पों के बीच, पाकिस्तान के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने, जिसमें अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी जगत का ही बोलबाला है, एक अरब डालर से ज्यादा के ऋण के लिए मंजूरी दे दी। आईएमएफ के कुल 25 से ज्यादा सदस्यों के बोर्ड में, भारत के सिवा एक भी देश नहीं था, जो इस ऋण की मंजूरी के खिलाफ होता। यहां तक कि अंतत: भारत ने भी इस आधार पर इस फैसले का विरोध करने की जगह, निर्णय से खुद को अलग रखने का ही रास्ता अपनाया, कि उसके मत का जितना वजन था, उसके आधार पर विरोध करने का विकल्प ही नहीं था। यहां भारत ही एक प्रकार से पूरी तरह से अलग-थलग नजर आया।
यह इसके ऊपर से था कि सैन्य टकराव के दौरान भी भारत, इसी तरह अलग-थलग नजर आया था। यह मोदी राज की ग्यारह साल की विदेश नीति का ही कुल हासिल है कि भारत ने चुनौती के इस समय में, खुद को दुनिया में अलग-थलग पाया है। यह विदेश नीति, स्वतंत्रता के बाद से भारत को जिन-जिन चीजों के लिए जाना गया था, उसकी कमजोर की पक्षधरता से लेकर जनतांत्रिकता, धर्मनिरपेक्षता तक की पहचान के पलटे जाने की ही विदेश नीति रही है, बहरहाल उस पर फिर कभी।
विदेशी मोर्चे की इन सच्चाइयों के सामने, सर्वदलीय बैठकों में प्रधानमंत्री की वाचाल अनुपस्थिति के बाद भी और संसद का विशेष सत्र बुलाने से भी इंकार कर के, मोदी सरकार के देश में राजनीतिक राय की एकता को यथासंभव मुश्किल बनाने के बाद भी, सरकार ने जब आतंकवाद के मुद्दे पर भारत का पक्ष रखने के लिए और इस मुद्दे पर पाकिस्तान को बेनकाब करने के लिए, करीब तीन दर्जन राजधानियों में, सात बहुपक्षीय राजनीतिक-कूटनीतिक मिशन भेजने का फैसला लिया, विपक्ष ने बिना किसी खास अगर-मगर के इसका समर्थन किया। लेकिन, मोदी राज के विभाजन प्रेमी मिजाज ने, इसे भी क्षुद्र राजनीतिक तिकड़म का मैदान बना लिया। पहले राजनीतिक पार्टियों से इस मिशन में शामिल करने के लिए प्रतिनिधियों से नाम मांगे गए। लेकिन, सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी, कांग्रेस ने जब मांगे गए चार नाम दिए, मोदी सरकार ने इन चार नामों में से एक को छोड़कर, सभी नामों को नामंजूर कर दिया और अपनी मर्जी के कांग्रेस नेताओं के नाम प्रतिनिधिमंडलों में जोड़ दिए।
इस तरह, इन प्रतिनिधिमंडलों के देश छोड़ने से पहले ही, सरकार ने खुद ही इसके दावों पर प्रश्न खड़े करा दिए कि इन मिशनों के जरिए, आतंकवाद और पाकिस्तान के मुद्दे पर पूरा भारत, एक स्वर से बोल रहा होगा। विपक्षी पार्टियों द्वारा भले ही इसे बहुत बड़ा मुद्दा न बनाया जा रहा हो, लेकिन इतना तय है कि अब सरकार द्वारा ही चुने गए प्रतिनिधि, अपनी पार्टियों से ज्यादा सरकार का ही प्रतिनिधित्व कर रहे होंगे औैर उसी हद तक देश की राजनीतिक राय की एकता का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ होंगे। शासक पार्टी की ओर से इस सिलसिले में और सबसे बढ़कर शशि थरूर के शामिल किए जाने के लिए, ‘योग्यता’ या ‘उपयुक्तता’ का जो तर्क उछाला गया है और भी बेढब है। इन प्रतिनिधिमंडलों में सबसे प्रमुखता से राजनीतिक नेताओं को जो शामिल किया जा रहा है, कम से कम विदेश सेवा के अधिकारियों के मुकाबले बेहतर भाषायी कौशल के लिए तो नहीं ही शामिल किया जा रहा है।
विदेश सेवा के अधिकारियों के मुकाबले, इन सांसदों/ राजनीतिक नेताओं का वजन विदेशी मोर्चे पर भी इसीलिए अधिक माना जा रहा है कि वे अपनी राजनीतिक पार्टियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो भारतीय जनता की राय का प्रतिनिधित्व करती हैं। लेेकिन, सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी की आंतरिक दिक्कतों का फायदा उठाने की कोशिश में, मोदी सरकार ने इन मिशनों के भेजे जाने के पूरे विचार में ही पलीता लगा दिया है। सवा चतुराई यह है कि विपक्ष अगर ज्यादा विरोध करे तो क्षुद्र राजनीति के लिए राष्ट्रीय सर्वानुमति को तोड़ता नजर आए और अगर राष्ट्रीय सर्वानुमति का ख्याल कर चुप रह जाए, तो शासन को उसके फटे में टांग अड़ाने का मौका मिल जाए। इसलिए, बहुदलीय मिशनों का यह प्रयोग भी, जो कि मोदी राज के लिए बेशक नया है, लेकिन देश के लिए जाना-पहचाना है, प्रो. महमूदाबाद के शब्दों का प्रयोग करें तो, ‘केवल एक ‘दृश्य राजनीति’ (ऑप्टिक्स) ही रहेगा — एक छलावा’।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।
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