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Monday, June 30, 2025 1:17:44 PM

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अथ संघ सरेंडर गाथा : आँखों देखा इमरजेंसी अध्याय

अथ संघ सरेंडर गाथा : आँखों देखा इमरजेंसी अध्याय

रिपोर्ट : बादल सरोज

संघ के संग सरेंडर की संलग्नता सनातन है, इतनी सतत और सुदीर्घ है कि हिंदी के व्याकरण में एक अक्षर से शुरू होने वाले शब्दों के अलंकारों में एक नया अलंकार सृजित कर सकती है। यह सरेंडर दक्षता 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक के कुख्यात आपातकाल में पूरे परवान पर थी। तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस की इंदिरा गांधी को लिखी कातर-स्तुति से भरी बिना शर्त समर्पण की चिट्ठियों के बारे में “विरोध का पाखंड : 1975 की इमरजेंसी के साथ खड़ा था संघ और जनसंघ” में विस्तार से लिखा जा चुका है।

सत्ता के चरणों में पूरी कातरता के साथ इनका शीर्ष इस हद तक लम्बायमान था कि लिखा-पढ़ी में चारण और भाट बना हुआ था ‘याचना’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहा था। जब बुर्ज पर विराजमान खलीफा की हिलायमानता इस हद तक कम्पायमान थी, तो नीचे की भुरभुरी ईंटों की चलायमानता कैसी रही होगी, इसे समझा जा सकता है। मीसा में पूरे आपातकाल ग्वालियर जेल में रहने के चलते  इन पंक्तियों ने लेखक ने इस कुनबे की हताशा, निराशा, कायरता की सरेंडर गाथा के इमरजेंसी अध्याय को अपनी आँखों से देखा है। इन्हें बैरक नंबर 10 बटा 4 सेन्ट्रल जेल ग्वालियर के नाम से संस्मरणों  के रूप में दर्ज भी किया है। इनमें से दो-तीन वाकयों का  संपादित रूप यहाँ प्रस्तुत हैं।

माफीनामों से ओवरफ्लो हुआ पोस्ट-कनस्तर

जेल से डाक भेजने के लिए परम्परागत लाल डिब्बा नहीं था — उसकी जगह एक कनस्तर — टिन की एक पतली चादर का 2 बाय 3 अनुपात का डब्बा इस्तेमाल होता था। यह कैंपस के लिए नियुक्त हेयर ड्रेसर की अठपहलू कटिंग “शॉप” की खिड़की पर रखा रहता था। रोज सुबह खाली होने जाता था — तुरतई लौट आता था। कनस्तर की नजदीकतम अंगरेजी “कन्टेनर” है, जो उस छवि के बिम्ब को अभिव्यक्त करने के लिए नाकाफी है, जो कनस्तर सुनते ही दिमाग में उभरता है। बहरहाल अचानक एक दिन देखा कि कनस्तर एक की जगह दो कर दिए गए हैं। पूछा-ताछी की तो पता चला कि चिट्ठियाँ इतनी ज्यादा तादाद में लिखी जाने लगी थी कि बेचारा एक कनस्तर ओवरफ्लो होने लगा था।

जेल नियमों के हिसाब से हर मीसा बंदी को एक सप्ताह में दो पोस्टकार्ड मिला करते थे, उस हिसाब से भी डिब्बे के ओवरफ्लो होने की कोई गुंजाइश नहीं थी। डाक मुंशी से पूछा, तो उन्होंने मजे लेते हुए बताया। बोले — “रोज इंदिरा गांधी और संजय गांधी के लिए लम्बी-लम्बी चिट्ठियां भेज रहे हैं तुमाए जे नेता। दिन में दो-दो बार भेज रहे हैं माफीनामा।”

हमारी बैरक नम्बर 10/4 फर्स्ट फ्लोर की बैरक थी। ठीक हमारी खिड़की के सामने से नीचे दिखाई देते थे कनस्तर-पोस्टबॉक्स!!  देख-रेख शुरू की — पाया कि रात 11 बजे फलाने जी चले आ रहे है, तो साढ़े ग्यारह बजे ढिकाने जी। लाइन लगाकर इत्ते माफी नामे अर्पित हो रहे हैं कि लाज से झुके जा रहे हैं कनस्तर जी।

कुल मिलाकर ये कि हम सीपीएम वालों, जिनमे 5 किशोर से युवा होते भी शामिल थे (कामरेड शैलेन्द्र शैली पूरे 18 वर्ष के भी नहीं हुए थे, बाकी 4 भी 19 से 21 वर्ष के बीच के थे), उन्हें तथा कुछ समाजवादियों और एक दो सर्वोदयियों को छोड़ कर पूरी जेल में ऐसा एक भी नहीं बचा था, जिसने इस शरणागत होने के राजदार और माफीनामों के मेघदूत कनस्तर की गटर में बारम्बार डुबकी न लगाई हो। पूरी जनसंघ-आरएसएस बरास्ते कनस्तर इंदिरा गांधी और संजय गांधी की शरणागत हुयी पड़ी थी।

हम युवाओं को चुहल का नया मसला मिल गया था। एक दिन बातों-बातों में हवा फैला दी कि इंदिरा गांधी या संजय  गांधी को चिट्ठी भेजने से क्या होगा? न उन तक पहुंचेगी, न वे पढ़ेंगे। भेजना है, तो डॉ धर्मवीर (तबके जिला कांग्रेस के नेता और उन दिनों की गुंडा-वाहिनी सेठी ब्रिगेड के संरक्षक, जो बाद में भाजपा के विधायक भी हुये) परिहार (युवा कांग्रेसी, जिनकी हैसियत उस जमाने में ग्वालियर के संजय गांधी जैसी थी) या विजय चोपड़ा (लोकल जगदीश टायटलर) को भेजो। उनकी सिफारिश ही चलेगी। घबराए हुए संघी कुनबे में यह गप्प ऐसी हिट हुयी कि पता लगा कि उनके नाम से भी पत्र जाना शुरू हो गए!!

चिट्ठी-सरेंडर सावरकर साहब के जमाने से चल रहा है। उन्होंने मलिका-ए-बर्तानिया के हुजूर में 5 लिखी थीं और उनमें किये गए स्वतन्त्रता संग्राम में फिर कभी हिस्सा न लेने के वचन को निबाहा। 1948 के प्रतिबंध में भी संघ ने चिट्ठी-सरेंडर आजमाया। इमरजेंसी कैसे छूट जाती। आगे भी जरूरत पड़ी, तो अमल में लाया जाएगा।

वो यादगार खौफनाक रात, रुदन की चीत्कार आंसुओं की बरसात

कुछ भ्रष्टाचार, कुछ जेल प्रशासन की निरंकुशता के चलते लंबित समस्यायें ढेर सारी हो गयी थीं। कुछ तनाव नए आये एक खुर्राट जेलर के अंग्रेजों के जमाने की जेलरी दिखाने की वजह से पसर गया था। यह जेलर अपने आपको संजय गांधी से भी अधिक इंदिरा गांधी का समर्थक समझता था। हालात इतने बिगड़ चुके थे कि जेल अधिकारियों के साथ हर सप्ताह होने वाली मीटिंग बंद थी, जेल ऑफिस यहाँ तक कि अन्दर के अस्पताल जाने पर भी अघोषित रोक-सी लगा दी गयी थी।

इन हालात में सुबह शाम की नारेबाजी या सामूहिक भूख हड़ताल भी काम नहीं आ रही थी। कुछ बड़ा करना जरूरी था। रास्ता ढूँढ़ने का जिम्मा आन्दोलनसिद्ध सीपीएम वालों के साथ कुछ लोहियावादी समाजवादियों पर आया और तय हुआ कि हुकुमचंद कछवाय साब को मनाया जाए और उन्हें अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बिठाया जाये। कछवाय जी ग्वालियर जेल में बंद दो सांसदों में से एक थे, वे तब उज्जैन से जनसंघ के लोकसभा सदस्य थे। थे तो शेजवलकर भी ग्वालियर से सांसद, मगर उन्हें शीशे में उतारना असंभव था। कछवाय जी की दो खासियतें थी : एक तो वे शुरू में कभी उज्जैन के एक कपड़ा कारखाने के मजदूर रहे थे – मजदूर नेता भी रहे थे। लिहाजा उनके तेवरों में मजदूरवर्गी झंकार थी। दूसरे यह कि वे द्विज नहीं थे, दलित थे। इसलिए उनके अपने राजनीतिक कबीले में उनका कोई ज्यादा महत्व नहीं था।

धीरे-धीरे हम लोगो ने कछवाय जी के साथ बैठना और उन्हें समस्याओं, जेल प्रशासन की हेंकड़ी और उनकी सांसदी की हैसियत का अहसास दिलाना शुरू किया। उनकी भूख हड़ताल किस तरह से अंतर्राष्ट्रीय असर डालेगी (डाला भी, बीबीसी ने उसे आठों दिन कवर किया) यह बताना शुरू किया। लुब्बोलुबाब यह कि दो दिन की काउंसिलिंग काम आई और सांसद हुकुमचन्द जी कछवाय आमरण अनशन पर बैठ गये। कछवाय जी के इस एलान से खुद उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता सदमे में थे — जेल प्रशासन हतप्रभ था। पांचवे दिन कछवाय जी की स्थिति बिगड़ी, तो उनको जेल अस्पताल ले जाने को लेकर भी झंझट हुआ। ‘बड़े नेताओं’ की सहमति से जेल अस्पताल ले जाने के लिए रजामंदी तो दे दी गयी, मगर इस शर्त के साथ कि हमारे दो वालंटियर्स भी साथ जाएंगे। उन वालंटियर्स से कहा गया कि जैसे ही जेल प्रशासन या सरकार कोई हरकत करे, वे नारे लगाकर बाकी सब को सूचित करें।

आठवे दिन देर रात करीब 11 बजे अचानक अस्पताल से नारों की आवाज आयी। हम चार-पांच कामरेड्स अपनी बैरक में चाय पीते हुए शायद शतरंज या ब्रिज खेल रहे थे। जैसे ही नारों की आवाज सुनी, वैसे ही बकाया जेल हम युवाओं के नारों से गूंजने लगी। जुगलबंदी-सी शुरू हो गयी। हमारी बैरक ऊपर की बैरक थी, इसलिए आवाजें भी पूरी जेल में गूंजी। उसके बाद जो हुआ, वह सचमुच में दिल दहलाने वाला था। हमारी बैरक सहित बाकी बैरकों के मीसाबंदी कीक (घबराहट और भय में निकलने वाली चीख) मारकर उठे और उनमे से ज्यादातर बदहवासी में एक-दूसरे से लिपट कर रोने भी लगे।

हम बच्चों के लिए यह सचमुच बहुत ही खौफनाक नजारा था। हम लोग तुरंत उनके बीच फैल गए और जोर-जोर से चिल्लाकर समझाने लगे कि कुछ नहीं हुआ है — कछवाय जी को जेल अस्पताल से शहर के अस्पताल ले जाया जा रहा है। एक घंटा लग गया — हालात को मामूल पर लाने में !! यह अनुभव बहुत दारूण था। दो दिन बाद जाकर हालात इतनी सामान्य हुयी कि ऐसा होने की वजह पूछी जा सके — मालूम पड़ा कि यह, कुछ ही दिन पहले, 3 नवम्बर 1975 को ढाका की जेल में बांग्लादेश के उपराष्ट्रपति और अन्य अवामी लीग के नेताओं को मिलिट्री द्वारा भून दिए जाने और बाक़ी राजनीतिक बंदियों को संगीनों से भोंक-भोंक कर मार दिए जाने की खबर का असर था। हम लोगों के नारे सुनकर सोये हुए ज्यादातर संघी मीसाबंदियों को यही लगा कि इंदिरा गांधी भारत की जेलों में ढाका दोहरा रही है।

इस रात को पता चला कि डर तो सबको लगता है, असल वह वैचारिक तैयारी होती है, जो यह शऊर और सलीका देती है कि उसे कैसे अभिव्यक्त किया जाए, उससे कैसे उबरा जाए – डर को किस तरह आक्रोश में रूपांतरित किया जाए।

तीनों डिब्बे घी में और सिर … शर्मिंदगी में!!

ज्यादातर मीसाबंदी, करीब दो-तिहाई, बी क्लास के कैदी थे। जो नहीं थे, उन्हें बाकी में एडजस्ट कर लिया करते थे। बी क्लास का मतलब हर छह महीने में दो जोड़ी , खादी भण्डार के नए कुरते पाजामे। सर्दी में पूरी बांह के स्वेटर, हर दो-तीन माह में एक तौलिया आदि-इत्यादि की प्राप्ति। नहाने के लिए सप्ताह में एक लाइफबॉय और कपड़े धोने के लिए सनलाइट के साबुन की बट्टी। लगाने के लिए हर रोज 20 ग्राम सरसों का तेल। खाने की खुराक समुचित से अधिक पर्याप्त थी। इस प्रसंग में जो खुराक का हिस्सा जरूरी है, वह रोज प्रति व्यक्ति 35 ग्राम शुद्ध देसी घी का है। अलग-अलग मैस के हिसाब से इकट्ठा लाया जाता था।

बाहर से आने वाले सामान की — कम-से-कम — तीन जगह चेकिंग होती थी। मगर अंदर से बाहर जाने वाले सामान, जो अमूमन खाली डब्बे, झोले-वोले होते थे, की जांच सामान्यतः नहीं होती थी। मगर मर्फी के नियमों में से एक नियम के मुताबिक़, जिसके होने की रत्ती भर भी संभावना है, मानकर चलना चाहिए कि वह होगा ही। सो, हो गया मरफी के नियम का जादू और उस दिन बाहर से आने वाली  मुलाक़ात के साथ आने वाले सामान की जांच के साथ  बाहर जाने वाले सामान – डब्बों, थैलों की भी जांच हो गयी!! इस जांच में तीन डब्बे उस देसी घी से भरे निकले, जो दरअसल खाने के लिए दिया जाता था। दो बड़े-बड़े थैले लाइफबॉय साबुन की बट्टियों से भरे थे। अपने परिजनों के हाथ घर भेज रहे।

जिन नेताजी के पास से यह जब्ती-बरामदगी हुयी थी, वे उस समय जनसंघ के बड़े और सम्मानित नेता थे। लोकप्रिय भी थे। वह दिन उनके लिए पुण्यत्व हासिल करने का दिन था। वे संघ-जनसंघ की मुख्य मैस के कर्ता-धर्ता थे, सो चम्मच-चम्मच करके जो घी जुटाया भी होगा, वह अपने बंधू-बांधवों की कटोरी में से ही बचाया होगा। अपना क्या!! हम लोगों की एकमात्र और तीव्र जिज्ञासा लाइफबॉय साबुन को लेकर थी। लोगों को सप्ताह भर के लिए एक साबुन कम पड़ जाता था — आखिर ऐसे कौन थे, जिनके साबुन बच जाते थे — फिर भैया जी उन्हें जोड़-जोड़ कर छुपाते कहाँ रहे होंगे? जो हो, यह उनकी उस दिन की यह क्रिया रिहा होने तक उनकी संज्ञा बनी रही। अस्पताल जाएँ, तो स्टाफ बोले ; गेट पर जाएँ, तो गार्ड बताये : घी चोर।

ये सज्जन शहर के रईसों में से एक थे। शहर के सबसे महंगे बाजार में उनकी दूकान थी, जो खूब चलती थी। कई संस्थान और भी थे। उनका यह कृत्य उनकी आर्थिक आवश्यकता की नहीं, लोभ, लालच, जैसे भी हो, वैसे — भले अपनों की ही रोटी या उसकी चुपड़न चुरा कर — खुद हड़प लेने की गलीज इच्छा की रिसन का प्रतीक था। इसका सीधा ताल्लुक उस सोच से था, जो आपके दिमाग में भरा हुआ है — उस दिशा से जिस पर आप चल रहे हैं, उस लक्ष्य से, जिसे आप हासिल करना चाहते हैं। यह संयोग नहीं है कि इसी वंश की विषबेल जब से केंद्र और जिन-जिन राज्यों में सत्तासीन हुयी है — चोरी, भड़ियाई और भ्रष्टाचार के नए और अब तक अकल्पित मौलिक उदाहरण सामने आये हैं। तो ये हैं असली संस्कार — जिसके जरिये घी चोर, साबुन चोर बनायेंगे नया राष्ट्र!

भय के मारे छाप तिलक सब छोड़ी

सीपीएम और समाजवादी धारा के मीसाबंदी जेल परिसर में मई दिवस पर जलूस निकालते थे, अक्टूबर क्रांति का जश्न मनाते थे, भगत सिंह के दिन से लेकर लक्ष्मीबाई के दिन तक हर दसेक दिन में, कभी इस तो कभी उस बहाने सभाएं करते थे। मगर संघी कुनबे में इंदिरा गांधी से भय और डर इतना जबर था कि तीन सौ से अधिक की तादाद में होने के बाद भी इमरजेंसी की जेल की पूरी अवधि में न कभी शाखा लगाई, न विजयादशमी का चल-अचल समारोह किया, न किसी गुरु को याद किया।

सरकारी प्रश्रय में उत्पात करना, नफरती मुहिम चलाकर लोगों को उन्मादी बनाना और उनके जरिये फसाद कराना अलग बात है — दमन के मुश्किल दौर में अडिग खड़े रहना दूसरी ही बात है और यह खूबी तभी आती है, जब विचारधारा सच्ची हो और उसके साथ हुई परवरिश अच्छी हो। जब यह दोनों ही गैरहाजिर हो, तो नाखून कटाकर शहीद बनने के स्वांग के सिवा कोई चारा नहीं बचता। इमरजेंसी की आधी सदी पर संघी कुनबे का पाखंड इसी की – एक और – मिसाल है।

(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।

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