रिपोर्ट : बृंदा करात
अनुवाद : संजय पराते
पचास साल पहले, स्वतंत्र भारत को तानाशाही का पहला अनुभव हुआ था। इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा, मौलिक अधिकारों के निलंबन, सभी प्रकार की असहमतियों का निर्मम दमन और एक लाख से अधिक लोगों की गिरफ़्तारी जैसे कार्यों ने हमारे संविधान और न्यायपालिका सहित सभी संस्थानों की कमज़ोरी को और शक्तियों के संकेन्द्रण के ख़तरनाक परिणामों को उजागर कर दिया था। “राष्ट्रीय हित” के नाम पर लोकतंत्र पर चौतरफा हमला किया गया था, ताकि राष्ट्र को “आंतरिक और बाहरी खतरों” से बचाया जा सके। नकली राष्ट्रवाद की दुहाई देना सभी तानाशाहों के लिए एक सुविधाजनक हथियार होता है।
आपातकाल मजदूर वर्ग पर भी एक संगठित हमला था और इसने उन नियमनों और अधिकारों को खत्म कर दिया, जिन्हें पूंजीवाद के लिए बेड़ियाँ माना जाता था। 1970 के दशक की शुरुआत में भारत के पूंजीपति मजदूर वर्ग के संघर्षों और जुझारूपन से हिल गए थे। 1974 में रेलवे कर्मचारियों की ऐतिहासिक हड़ताल के बाद एकजुटता की श्रृंखलाबद्ध कार्रवाइयाँ हुईं। आपातकाल ने यूनियन बनाने, विरोध करने, हड़ताल करने के मूल अधिकार को खत्म करके मजदूर वर्ग को निहत्था कर दिया। ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ को दिए गए एक साक्षात्कार में, जे आर डी टाटा ने इसे स्पष्ट रूप से कहा : “आप कल्पना नहीं कर सकते कि हम यहाँ क्या-क्या झेल चुके हैं — हड़तालें, बहिष्कार, प्रदर्शन। क्यों? ऐसे दिन भी आए, जब मैं अपने कार्यालय से बाहर सड़कों पर नहीं निकल पाया। संसदीय प्रणाली हमारी जरूरतों के अनुकूल नहीं है।” बिल्कुल सही — तानाशाही शासक वर्गों के अनुकूल होती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आपातकाल को भारत के उद्योगपतियों का व्यापक समर्थन प्राप्त था।
जिस दिन आपातकाल की घोषणा की गई, मैं कोलकाता में थी और ट्रेड यूनियनों में पूर्णकालिक काम करने के लिए दिल्ली जाने की तैयारी कर रही थी। कोलकाता में हमारे पार्टी कार्यालयों पर छापे मारे गए थे और सैकड़ों साथियों को गिरफ्तार किया गया था। मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने, 1971 के चुनावी जनादेश को पलटकर, जो सीपीआई (एम) के पक्ष में था, पहले ही बंगाल में कम्युनिस्टों के खिलाफ आतंक का राज शुरू कर दिया था। यह कोई संयोग नहीं था कि आपातकाल की घोषणा करने में वे श्रीमती गांधी के मुख्य सलाहकार थे। कोलकाता को एक वास्तविक पुलिस छावनी में बदल दिया गया था।
कुछ सप्ताह बाद मैं दिल्ली पहुंची और बिरला मिल के कपड़ा मजदूरों से मेरी पहली मुलाकात हुई। शाम की शिफ्ट के बाद हमें एक छोटे से दफ्तर में मिलना था। दरवाजा कसकर बंद था। ध्यान आकर्षित न हो, इसलिए एक ही लैंप जल रहा था। उस छोटे से कमरे में एक दर्जन से अधिक मजदूर ठसाठस भरे हुए थे। मुझे यूनियन के नेता ने बताया कि कोलकाता में मेरे घर पर छापा पड़ा है और मुझे अपना नाम बदलने की सलाह दी गई है। मुझे आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि पार्टी के कई नेता जो भूमिगत थे, अपनी बैठकों के लिए मेरे किराए के कमरों का इस्तेमाल करते थे। मेरे छद्म-नाम के लिए कई सुझाव आए, लेकिन तब कताई विभाग के एक मजदूर चंद्रभान, जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कभी पहलवान हुआ करते थे, ने दृढ़ता से कहा, “हम आपको रीता कहेंगे, यह नाम बरिंदा उच्चारण करने से बहुत आसान है!” मेरे द्वारा सुधार की कोशिश के बावजूद, वे कभी भी मेरा नाम बृंदा नहीं बोल पाए। इसलिए, आपातकाल के वर्षों में और उसके बाद कुछ और वर्षों तक, मैं कॉमरेड रीता के नाम से जानी जाती रही।
मजदूरों ने आपातकाल को शोषण का युग माना, क्योंकि उनके काम का बोझ बहुत बढ़ गया था। सालाना बोनस भी कम कर दिया गया था। मैं उस यूनियन में काम करती थी, जिसके सदस्य दिल्ली की सभी पांच बड़ी कपड़ा मिलों में थे। चूंकि हर मिल के बाहर पुलिस तैनात थी, इसलिए हम केवल मजदूरों के घरों में ही गुप्त रूप से मिल सकते थे। इन्हीं बैठकों में दिल्ली में पहली हड़ताल की योजना बनाई गई थी। मिल प्रबंधन चार करघे की व्यवस्था लागू कर रहा था और बिना किसी मुआवजे के बहुत सारे मजदूरों की छंटनी का खतरा था। हमने इसकी योजना बहुत सावधानी से बनाई। हमने पर्चे लिखे और रात भर काम करके उन्हें “साइक्लोस्टाइलिंग” मशीन से प्रिंट किया। हमने ये पर्चे बस स्टॉप या ऐसी जगहों पर रखे, जहां हमें पता था कि यहां से मजदूर गुजरेंगे। हमारे सदस्य ये पर्चे चोरी-छिपे मिल में ले जाते और मशीनों पर छोड़ देते। हमें सूचना मिली कि मजदूर उन्हें काम के दौरान पहने जाने वाले सूती बनियान की जेबों में गुप्त रूप से रख लेते थे। मैं अक्सर मजदूरों के घरों में रात बिताती थी और देर रात तक उनकी कहानियां सुनते हुए उनके परिवारों के बारे में जानकारियां हासिल करती थी और महिलाओं को संगठित करने के महत्व के बारे में सीखती थी। हड़ताल की तैयारियाँ ज़ोरों पर थीं। प्रबंधन ने 18 अप्रैल, 1976 की रात की शिफ्ट में काम का बोझ बढ़ा कर नई व्यवस्था लागू की — और मज़दूर हड़ताल पर चले गए। हरीश चंद पंत पहले मज़दूर थे, जिन्होंने “हड़ताल-हड़ताल” का नारा लगाया। इसका काफ़ी बड़ा असर हुआ — ये वे गुमनाम नायक थे, जिन्होंने आपातकाल के मज़दूर विरोधी चेहरे को चुनौती दी थी।
इसी दौर में तथाकथित सौंदर्यीकरण अभियान की शुरुआत हुई थी। झुग्गी-झोपड़ियाँ तोड़ दी गईं, जिससे मिलों और कारखानों के आसपास रहने वाले हज़ारों ग़रीब परिवार विस्थापित हो गए। मैं पहले दिन वहीं थीं, जब मज़दूरों को नंदनगरी में जाने के लिए मजबूर किया गया, जो उनके कार्यस्थल से कम-से-कम 25 किलोमीटर दूर एक पुनर्वास कॉलोनी थी। गर्मियों में, यह रेगिस्तान जैसा था, न पानी, न सफ़ाई, बस हज़ारों ग़रीब धूल में लिपटे हुए थे। लोगों को स्थानांतरित करने के और भी तरीक़े थे, लेकिन सत्ता के अहंकार ने इसे अमानवीय बना दिया।
फिर नसबंदी अभियान चलाए गए। महिलाएँ मुझे अपने छोटे से घर में खींच लेतीं और डरते हुए बतातीं कि सरकारी व्यक्ति आया था और उसने उनके पतियों को नसबंदी शिविर में जाने का समय दिया है। इनमें से कई जगहों पर आतंक का माहौल था और मैंने श्रीमती गांधी और उनके बेटे संजय के खिलाफ़ सबसे कठोर शब्दों का इस्तेमाल होते सुना, जिन्हें उन ज़बरदस्ती के भयानक अभियानों के निर्माता के रूप में देखा जाता है।
हम दिल्ली की झुग्गियों और कारखानों में सरकार के खिलाफ बढ़ते गुस्से को महसूस कर सकते थे। और इस तरह, मैंने एक और सबक सीखा, जो एकजुट और दृढ़ निश्चयी लोगों की ताकत के बारे में था।
आपातकाल लगभग दो साल तक चला। भारत इससे उबर गया। लेकिन आज ऐसा लगता है कि उस समय यह चाहे कितना भी भयानक क्यों न रहा हो, आज जो हो रहा है — हमारे संवैधानिक ढांचे को कमजोर करने और उसे निष्प्रभावी बनाने के लिए निरंतर कदम उठाना, शक्तियों का केंद्रीकरण करना, भारत के संसाधनों को शीर्ष व्यापारिक घरानों को सौंपना, भारी असमानताएँ, अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाना आदि — उसका एक ड्रेस रिहर्सल मात्र था। आईए, आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ को भारत के लोकतंत्र और संविधान को बचाने के लिए हमारी प्रतिज्ञा को नवीकृत करने का अवसर बनाएं।
(साभार : इंडियन एक्सप्रेस। लेखिका सीपीआई(एम) पोलिट ब्यूरो की पूर्व सदस्य हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।
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