जाति गणना पर संंघ-भाजपा की पल्टी
रिपोर्ट : राजेन्द्र शर्मा
आखिरकार, नरेंद्र मोदी की सरकार ने जाति जनगणना कराने का एलान कर दिया है। केंद्रीय मंत्रिमंडल के ताजातरीन फैसले के अनुसार, आने वाली आम जनगणना के साथ जाति गणना भी करायी जाएगी। लेकिन, यह आम जनगणना कब करायी जाएगी, यह अभी स्पष्ट नहीं है। जनगणना सामान्य रूप से 2020-21 में होनी थी, लेकिन कोविड के नाम पर एक बार उसके टाले जाने का सिलसिला शुरू हुआ, तो अब तक उसका टाला जाना बदस्तूर जारी ही है और 2025 तक तो उसने थमने का नाम नहीं लिया है।
बहरहाल, केंद्र सरकार के जाति जनगणना संबंधी निर्णय की घोषणा के कुछ ही बाद में, दक्षिण भारत से एक केंद्रीय राज्य मंत्री द्वारा मीडिया को दी गयी जानकारी के अनुसार, 2026 में जनगणना करायी जा सकती है।
याद रहे संसदीय व विधानसभाई सीटों के परिसीमन पर लगी 25 साल की रोक की मियाद भी 2026 में ही खत्म हो रही है और इस प्रकार, पहले जनगणना होगी और उसके बाद परिसीमन का काम आगे बढ़ाया जाएगा, जैसाकि परिसीमन पर रोक से संबंधित कानून का प्रावधान भी है। सभी जानते हैं कि दक्षिण भारत के राज्यों के लोकसभा में प्रतिनिधित्व के आनुपातिक रूप से घटने की आशंकाओं के मद्देनजर, लोकसभाई सीटों का परिसीमन पहले ही गंभीर रूप से विवादित हो चुका है, लेकिन हम यहां इस विवाद के विस्तार में नहीं जाएंगे। पर यहां हम यह जरूर ध्यान दिलाना चाहेेंगे कि महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटों के आरक्षण के कानून का पालन, आने वाले परिसीमन के साथ जुड़ा हुआ है, जो जनगणना के बाद होना है। यानी अगली जनगणना के साथ परिसीमन तथा महिला आरक्षण जुड़े होने के कारण, इस जनगणना का पहले ही विशेष महत्व था। बहरहाल, आजादी के बाद पहली जातिगत गणना के नाते, इस जनगणना का महत्व और भी ज्यादा हो जाएगा।
हैरानी की बात नहीं है कि अचानक नरेंद्र मोदी सरकार के जातिगत गणना कराने के फैसले से अनेक सवाल उठ खड़े हुए हैं। बेशक, कैबिनेट के उक्त निर्णय की घोषणा करते हुए, अश्विनी वैष्णव ने इस फैसले का भी आम तौर पर विपक्ष तथा खासतौर पर मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस पर हमले के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की कोशिश की। इस मुद्दे पर सत्ताधारी संघ-भाजपा के हमले का मुख्य स्वर तय करते हुए, वैष्णव ने दावा किया कि कांग्रेस शुरू से जाति गणना के खिलाफ रही है, कि जवाहरलाल नेहरू आरक्षण के खिलाफ थे, आदि, आदि। मकसद यह छवि बनाने का था कि संघ-भाजपा तो हमेशा से जाति गणना के पक्ष में थे। लेकिन, इस तरह की झूठी छवि निर्मित करने की कोशिशें तथा इसके लिए किए जाने वाले झूठे-सच्चे दावे अपनी जगह, यह सचाई किसी से छुपी हुई नहीं है कि पिछले आम चुनाव के समय तक, संघ-भाजपा की ओर से जाति गणना का बाकायदा विरोध किया जा रहा था।
यह संयोग ही नहीं है कि इस दौरान एक बार फिर से वाइरल हो गयी, चुनाव के दौर के ही एक मीडिया साक्षात्कार की क्लिप में प्रधानमंत्री मोदी, जाति गणना की खासतौर पर कांग्रेस की मांग को ”नक्सलवादी सोच” का हिस्सा बताकर खारिज करते नजर आते हैं। 2024 के चुनाव प्रचार के दौरान ही पहले मुख्यमंत्री, आदित्यनाथ द्वारा दिया गया ”बंटेंगे तो कटेंगे” का नारा और खुद प्रधानमंत्री द्वारा उसमें मामूली ”सुधार” कर, इस नारे को ”एक हैं तो सेफ हैं” में तब्दील किया जाना, जाति गणना की मांग को न सिर्फ ”विभाजनकारी” करार देकर खारिज करता था, बल्कि उसे विशेष रूप से हिंदुओं को बांटने का षडयंत्र बताकर, इस पूरे प्रश्न का सांप्रदायीकरण करने की भी कोशिश करता था।
स्वाभाविक रूप से यह सवाल पूछा जा रहा है कि जाति गणना के मुद्दे पर संघ-भाजपा की इस पल्टी या हृदय परिवर्तन की वजह क्या है? इस प्रश्न का एक तात्कालिक जवाब तो, इस फैसले की टाइमिंग को लेकर ही दिया जा रहा है। बहुतों को लगता है कि यह संयोग ही नहीं है कि यह फैसला, आम तौर पर पहलगाम के आतंकवादी हमले की पृष्ठभूमि में और खासतौर पर तब आया है, जब आतंकवादियों को ”मिट्टी में मिला देने” के बड़े बोलों के बावजूद, मोदी सरकार पाकिस्तान के खिलाफ कुछ कूटनीतिक आक्रामकता दिखाने वाले कदमों को छोड़कर, कोई ठोस कार्रवाई नहीं कर पायी थी। दूसरी ओर, एक हफ्ते से ज्यादा हो जाने के बावजूद, पहलगाम की विभीषिका रचने वालों की निशानदेही करने तथा उन्हें सजा देने के मामले में भी उसे कोई कामयाबी नहीं मिली थी।
उल्टे हताशा में कश्मीर में रक्षाबलों द्वारा उठाए गए दमनकारी कदमों ने, खासतौर पर कथित संदिग्ध आतंकवादियों के घर के बमों से उड़ाए जाने तथा नौजवानों की अंधाधुंध गिरफ्तारियों ने तथा रहस्यमय मौतों ने, पहलगाम में आतंकवादियों की दरिंदगी के खिलाफ कश्मीरी जनता के स्वत:स्फूर्त विरोध को धक्का देने का ही काम किया था। न सिर्फ उमर अब्दुल्ला की चुनी हुई राज्य सरकार के आग्रह पर, जिसे केंद्र शासित क्षेत्र होने के नाते, राज्य पुलिस तक सुरक्षा के समूचे तंत्र के मामले में रत्तीभर दखल हासिल नहीं है, कथित आतंकवादियों के घर बम से उड़ाना रोकना पड़ा है बल्कि बहुत बड़े पैमाने पर न सही, फिर भी आम कश्मीरियों को घाटी में सुरक्षा बलों की ज्यादतियों के खिलाफ, सड़कों पर भी उतरना पड़ा था।
इस समूची पृष्ठभूमि में अचानक आया जाति गणना का फैसला, मुश्किल सवालों और आलोचनात्मक स्वरों से, मोदी सरकार का और सबसे बढ़कर मोदी की छवि का बचाव करने की कोशिश नजर आता है। एक पूरी तरह से भिन्न मुद्दे को उछाल देने के जरिए ध्यान बंटाने की यह कोशिश इसलिए और भी जरूरी हो गयी है कि संघ-भाजपा के सारे प्रचार के बावजूद, सारी रोकथाम के बावजूद निकल कर आ रहे तथ्यों से यह आम धारणा ज्यादा से ज्यादा पुख्ता होती जा रही है कि पहलगाम की 26 मौतों के पीछे, एक बड़ी सुरक्षा चूक थी। ताजातरीन खबरों के अनुसार, पहलगाम की घटना से पहले सुरक्षा तंत्र के पास इसकी खुफिया जानकारी पहुंच चुकी थी कि इस बार आतंकवादी, पर्यटकों को निशाना बना सकते थे। इसी खुफिया जानकारी के आधार पर, श्रीनगर के आस-पास के इलाकों में पर्यटकों के होटलों को केंद्र बनाकर, आतंकवादी तत्वों की खोज, छानबीन के लिए छापेमारी वगैरह भी की गयी थी। लेकिन, इस कार्रवाई में कुछ हासिल नहीं हुआ। और जिस रोज, करीब पंद्रह दिन की यह छापामारी खत्म की गयी, उसी रोज पहलगाम में आतंकवादियों ने हमला कर दिया। उससे पहले बैसरन घाटी से किसी भी प्रकार की सुरक्षा बलों की उपस्थिति हटायी जा चुकी थी। इस गंभीर विफलता ने, मोदी सरकार के आतंकवाद की कमर तोड़ देने, आतंकवाद के अंतिम सांसें ले रहे होने आदि के दावों की जिस तरह धज्जियां उड़ा दी हैं, किसी नाटकीय सैन्य कार्रवाई के अभाव में उसकी चोट को, कोई अन्य नाटकीय कदम ही सहनीय बना सकता था। जाति गणना की घोषणा बखूबी यह भूमिका निभा सकती है।
पहलगाम की विभीषिका की पृष्ठभूमि से जरा सा पीछे जाकर देखें तो, जाति गणना की घोषणा वक्फ संशोधन कानून की पृष्ठभूमि में दिखाई देती है। यह तो किसी से छुपा हुआ नहीं है कि वक्फ कानून के पीछे मोदी सरकार और सत्ताधारी संघ-भाजपा के किस तरह के मुस्लिम-विरोधी मंतव्य रहे हैं। वास्तव में उनके निशाने पर तमाम अल्पसंख्यक हैं और यह तब साफ हो गया, जब वक्फ कानून बनने के फौरन बाद, आरएसएस के मुखपत्र आर्गनाइजर के वैब संस्करण में एक लेख प्रकाशित किया गया कि ‘वक्फ से भी ज्यादा संपत्तियां ईसाई चर्चों के पास हैं।’ बेशक, ज्यादा शोर मचने पर इस लेख को हटा लिया गया, लेकिन संघ-भाजपा की मंशा साफ हो गयी कि उनके राज की मंशा, अल्पसंख्यकों के हाथों से उनकी संपत्तियों को छीनने की है। इसी सब की पृष्ठभूमि में नये वक्फ कानून का जनता के स्तर पर और राजनीतिक स्तर पर भी व्यापक पैमाने पर विरोध हो रहा था। इस विरोध को दबाने के लिए संघ-भाजपा ने मुद्दे के सांप्रदायीकरण के हथियार का सहारा लेने की कोशिश की, लेकिन उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिली। मुस्लिम समुदाय के विरोध प्रदर्शन भी आम तौर पर कानून के दायरे में ही बने रहे। इसी बीच, नये वक्फ कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट की आरंभिक प्रतिक्रिया ने और खासतौर पर अदालत के विशेष रूप से समस्यापूर्ण तथा मनमाने संशोधनों पर व्यवहार में रोक लगाए जाने ने, इस अन्यायपूर्ण कानून के विरोध को एक नया बल प्रदान कर दिया। संघ-भाजपा सरकार की इस विफलता की ओर से ध्यान बंटाने के लिए भी, जाति गणना का दांव चला गया है।
लेकिन, इस सबसे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है, जाति गणना के तर्क की अपनी ताकत। 2024 के आम चुनाव में, जब इंडिया गठबंधन के रूप में विपक्ष द्वारा जोर-शोर से जाति गणना की मांग उठायी जा रही थी, संघ-भाजपा ने इस मांग के खिलाफ अपनी सारी ताकत झोंककर देख लिया था। प्रधानमंत्री ने तो बाकायदा एक संघमार्का सिद्घांत भी गढ़ने की कोशिश की थी कि वह तो चार जातियां ही मानते हैं — किसान, युवा, महिला, गरीब। लेकिन, चुनाव के नतीजे आए तो चार सौ पार के सपने देख रही मोदीशाही दो सौ चालीस के आंकड़े पर ही सिकुड़ कर रह गयी। बेशक, उसके बाद से हरियाणा, महाराष्ट्र तथा दिल्ली के विधानसभाई चुनावों में अपनी जीत के सहारे संघ-भाजपा ने यह छवि बनाने की कोशिश की है कि 2024 के आम चुनाव का धक्का, एक संयोग थी बल्कि गलती थी, जिसे जनता तेजी से सुधार भी रही है, आदि। फिर भी संघ-भाजपा के रणनीतिकार बखूबी यह समझते हैं कि जाति गणना का और आम तौर पर सामाजिक न्याय का मुद्दा, उनके सत्ता के रथ को आसानी से पलट सकता है। सबसे बढ़कर इसी के डर से, जाति गणना के मुद्दे पर यह बड़ी पल्टी खायी गयी है।
लेकिन, यह एक कार्यनीतिक पल्टी है, जिसके पीछे कोई सच्चा हृदय-परिवर्तन नहीं है। इसलिए, जाति जनगणना की घोषणा कर के सुर्खियां तो बटोर ली गयी हैं, लेकिन वास्तव में इसके लागू किए जाने को लेकर अब भी कई संदेह बने हुए हैं। अव्वल तो अभी तक जनगणना की ही समय सूची तय नहीं है। हैरानी की बात नहीं है कि जनगणना के साथ जाति जनगणना होने को, जनगणना के ही 2026 से भी आगे खिसकाए जाने का बहाना बना लिया जाए। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जाति गणना, अपने आप में कोई साध्य तो है नहीं। यह तो साधन है, सामाजिक न्याय की लड़ाई को आगे बढ़ाने का। मोदी सरकार की असली परीक्षा तब होगी, जब जनगणना से निकलने वाले नतीजों के अनुरूप, आरक्षण की सीमा में बढ़ोतरी समेत, सामाजिक न्याय को आगे बढ़ाने के सकारात्मक कदम उठाए जाने का सवाल आएगा। जाति की गिनती मात्र से आगे, सामाजिक न्याय के इस रास्ते पर संघ-भाजपा के मनुस्मृतिवाद का घोड़ा अड़कर खड़ा नहीं हो जाए, तो ही अचरज की बात होगी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।
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