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Thursday, May 15, 2025 12:03:59 AM

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ऑपरेशन सिंदूर : एक पूर्व-सुनिश्चित नाकामी का रोजनामचा

ऑपरेशन सिंदूर : एक पूर्व-सुनिश्चित नाकामी का रोजनामचा

रिपोर्ट : राजेंद्र शर्मा

 

जैसा कि आसानी से अनुमान लगाया जा सकता था, ऑपरेशन सिंदूर के अचानक पटाक्षेप के बाद, उसे ‘कामयाब’ साबित करने की विभिन्न स्तरों पर कोशिशें शुरू हो गयी हैं। बेशक, खुद प्रधानमंत्री ही नहीं, उनके बाद दूसरे-तीसरे नंबर के दावेदार राजनीतिक नेताओं ने भी, पहले चरण में चुप रह कर, इसके जबर्दस्त प्रयास में सैन्य प्रतिष्ठान को ही सबसे आगे धकेला है। डीजीएमओ और तीनों सेनाओं के शीर्ष प्रतिनिधियों की एक साझा पत्रकार वार्ता में जहां एक ओर, यह स्थापित करने की कोशिश की जा रही थी कि 10 तारीख की शाम से हुई जंगबंदी, पाकिस्तानी डीजीएमओ की फोन करने की पहल के बाद, दोनों पक्षों में बनी सहमति से हुई थी, न कि अमेरिका की मध्यस्थता से हुई थी। वहीं दूसरी ओर यह दिखाने की भी कोशिश की जा रही थी कि इस तीन दिन की लड़ाई में, पाकिस्तानी आतंकवादी ठिकानों को ही नहीं, पाक सेना को भी बहुत भारी नुकसान उठाना पड़ा है, जबकि भारत को उसकी तुलना में बहुत ही कम नुकसान उठाना पड़ा हैै। यानी 7 से 10 मई तक का यह ऑपरेशन, भारत की नजर से कामयाब रहा है।

 

इसी के समानांतर, सत्ताधारी संघ-भाजपा के आईटी सेल और उससे निर्देशित ट्रोल सेना ने कम से कम तीन धारणाएं बनाने के लिए अपनी ताकत झोंक दी है। पहली यह कि जो जंगबंदी हुई है, वह वास्तव में जंगबंदी से कमतर कोई चीज है। ऑपरेशन सिंदूर भी खत्म नहीं हुआ है, बल्कि वह तो बराबर जारी है। दूसरे, इस संक्षिप्त कार्रवाई में मोदी सरकार ने बता दिया है कि अब हरेक आतंकवादी कार्रवाई का जवाब इसी तरह पाकिस्तान के अंदर प्रहार से दिया जाएगा। तीसरे, पाकिस्तान को भारत की प्रहार शक्ति का अंदाजा हो गया है और अब वह भारत के खिलाफ कोई शरारत करने से पहले दस बार सोचेगा।

 

आने वाले दिनों में बार-बार दोहराने के जरिए, ‘जीत’ के इन दावों को और कई गुना फुलाने की ही कोशिश नहीं की जा रही हो, तो ही हैरानी की बात होगी। विडंबनापूर्ण तरीके से यहां उनके लिए गोदी मीडिया का वह कु्ख्यात रूप से अतिरंजित प्रचार भी, किसी न किसी तरह से प्रयोग में आ रहा हो सकता है, जिसकी इस तरह प्रचार उपयोगिता को ही पहचान कर, सत्ताधारी ताकतों ने आधिकारिक स्तर पर उनके ऊल-जुलूल दावों से दूरी बनाने के बावजूद, उन्हें रोकना तो दूर, टोकने तक की कोई जरूरत नहीं समझी थी। दूसरी ओर, लड़ाई के संदर्भ में फेक न्यूज और भारत-विरोधी खबरों पर अंकुश लगाने के नाम पर, मोदी सरकार के प्रति आलोचात्मक रुख रखने वाले कई यूट्यूब चैनलों सहित सोशल मीडिया प्लेटफार्म, एक्स पर एक साथ पूरे आठ हजार खातों को रोकने के लिए, जबर्दस्त सरकारी प्रहार किया गया था। इसी सिलसिले में लोकप्रिय डिजिटल समाचार प्लेटफार्म, द वायर तक पर सरकार की गाज गिरी थी। ऐसी ही गाज़ चर्चित पत्रकार, पुण्यप्रसून वाजपेयी के यूट्यूब चैनल पर भी गिरी थी।

 

बहरहाल, ये सारी प्रचार कोशिशें अपनी जगह, सत्ताधारियों के लिए अपनी समर्थक कतारों से भी इस अचानक खत्म हुई लड़ाई को अपनी और सबसे बढ़कर नरेंद्र मोदी की जीत मनवाना, आसान नहीं हो रहा है। इसके सबूत के तौर पर हम, 10 तारीख की शाम संवाददाता सम्मेलन में युद्घ विराम की घोषणा करने मात्र के लिए, विदेश सचिव मिस्री को ही नहीं, उनके पूरे परिवार को ही, जिस तरह की भीषण ट्रोलिंग का सामना करना पड़ रहा है, उसे रखना चाहते हैं। कहने की जरूरत जरूरत नहीं है कि इस संक्षिप्त लड़ाई के दौरान खासतौर पर देश का चेहरा बने रहे विदेश सचिव के परिवार की इस तरह की भीषण ट्रोलिंग शर्मनाक है। लेकिन, सिर्फ उक्त निर्णय की घोषणा करने के लिए मिस्री की इस तरह की ट्रोलिंग से साफ हो जाता है कि ‘जीत’ का नैरेटिव, खुद सत्ताधारी संघ-भाजपा की कतारों के गले से नीचे नहीं उतर रहा है और वे अपना फ्रस्टेशन निकालने के लिए किसी अपेक्षाकृत कमजोर शिकार की तलाश में हैं। कमजोर शिकार की तलाश में इसलिए कि वास्तव में जंगबंदी का फैसला लेने वालों, नंबर वन, नंबर टू आदि के निर्णय पर सीधे सवाल उठाने की, उनमें हिम्मत नहीं है।

 

इस संघी ट्रोल सेना के मिस्री पर इस तरह झपट पड़ने के खिलाफ सत्तापक्ष से इन पंक्तियों के लिखे जाने तक किसी ने चूं तक नहीं की थी। इसकी वजह समझना मुश्किल भी नहीं है। इस तरह की सेना को, शिकारी कुत्तों की तरह लहकाया तो जा सकता है, लेकिन अंकुश में नहीं रखा जा सकता। यही इस परिघटना का चरित्र है। इस सिलसिले में आईएएस एसोसिएशन के अलावा शासन की ओर से किसी के हस्तक्षेप न करने से बरबस, कई साल पहले की घटना याद आ जाती है। तब नरेंद्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान, तब तक भाजपा के शीर्ष नेताओं में मानी जाने वाली, तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को, उनके मंत्रालय से जुड़े किसी छोटे से काम के लिए, जो इस ट्रोल पलटन को नागवार गुजरा था, भीषण तरीके से ट्रोल किया गया था। बुजुर्ग नेता के पति तक को इसमें नहीं बक्शा गया था। इसके बावजूद, उस समय भी संघ-भाजपा का कोई नेता, सुषमा स्वराज की हिमायत में सामने नहीं आया था। बहरहाल, इतने पीछे क्यों जाएं। मिस्री से चंद रोज पहले ही, पहलगाम में ही आतंकवादियों के हाथों मारे गए नौसेना अधिकारी की विधवा, हिमांशी नरवाल को इसी संघी ट्रोल सेना ने सिर्फ इतना कहने के लिए बुरी तरह से ट्रोल किया था कि हमें न्याय चाहिए, लेकिन हम नहीं चाहते हैं कि कश्मीरियों के, मुसलमानों के पीछे पड़ जाया जाए। और यह भी संयोग ही नहीं है कि हिमांशी नरवाल और मिस्री की पुत्री, दोनों को ही उनके जेएनयू कनेक्शन के हवाले से इस ट्रोलिंग का निशाना बनाया गया है।

 

बेशक, जिस तरह से यह युद्घविराम हुआ है, इस संघी ट्रोल सेना में ही नहीं, आम लोगों में भी उस पर काफी असंतोष है। इस असंतोष की एक वजह तो यह युद्घ विराम, अमेरिका के हस्तक्षेप से होना ही है। सभी जानते हैं कि शिमला समझौते के बाद से भारत इस रुख पर दृढ़ रहा है कि भारत-पाकिस्तान के बीच जो भी विवाद हैं, जिसमें कश्मीर विवाद भी शामिल है, द्विपक्षीय मामला ही हैं और इसमें किसी तीसरे पक्ष का दखल मंजूर नहीं है। इसने, कश्मीर के मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने की पाकिस्तान की कोशिशों से भारत को निजात दिलायी है। लेकिन, अमरीकी राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति तथा विदेश सचिव के सार्वजनिक बयानों के बाद, इसमें किसी संदेह की गुंजाइश नहीं रह गयी है कि अमेरिका की मध्यस्थता में ही यह युद्घ विराम हुआ है और यह भारत के बहु-प्रचारित रुख के लिए एक बड़ा धक्का है।

 

लेकिन, आम नाराजगी सिर्फ अमेरिका के दखल के लिए गुंजाइश बनाए जाने पर ही नहीं है। नाराजगी खुद इस युद्घ विराम को लेकर भी है। सैन्य मामलों के विशेषज्ञों से लेकर, आम लोग यह समझ पाने में असमर्थ हैं कि आखिरकार, इस ऑपरेशन सिंदूर का हासिल क्या है? सैन्य मामलों के जानकार, जीत और कामयाबी के दावों को ज्यादा महत्व देने के लिए तैयार नहीं हैं। और इनमें जंगबंदी पर भावनात्मक प्रतिक्रिया करने वालों और अनाप-शनाप मांगें करने वालों से अलग, ऐसे वस्तुगत नजरिया अपनाने वाले भी शामिल हैं, जो यह जानते भी हैं और मानते भी हैं कि ऐसी लड़ाइयों का अंत, युद्घ विराम में ही होता है और युद्घ जितना कम चले और युद्घविराम जितना जल्दी हो, सभी के लिए उतना ही बेहतर होता है।

 

इस जंगबंदी से उठने वाला असली मुद्दा यह है कि अगर इस तरह के परिणामों पर ही जंगबंदी होनी थी, तो क्या जंग शुरू किए जाने की रणनीति ही गलत नहीं थी? बेशक, पहलगाम की नृशंसता को बिना दंड के नहीं छोड़ा जा सकता था। लेकिन, इसके लिए जो रणनीति आपरेशन सिंदूर के नाम से मोदी सरकार ने अपनायी, वह इकलौती रणनीति तो नहीं थी। इससे भिन्न, क्या 26/11 के बाद भारत द्वारा अपनायी गयी रणनीति ही कहीं बेहतर नहीं थी, जिसमें मुंबई पर हमला करने वाले सभी आतंकवादियों को न सिर्फ मार गिराया गया था और जिंदा पकड़े गए इकलौते आतंकवादी अजमल कसाब को बाकायदा कानूनी प्रक्रिया का पालन कर फांसी दी गयी थी, आतंकवादियों के पाकिस्तान में बैठे हेंडलरों तथा कुल मिलाकर पाकिस्तान की संलिप्तता को भी, व्यापक रूप से बेनकाब करना संभव हुआ था। इसके मुकाबले, मोदी सरकार ने सैन्य ऑपरेशन का जो नाटकीय तरीका अपनाया, उसका हासिल कहीं कम है और कीमत कहीं ज्यादा है। इसके बावजूद, मोदी सरकार ने वही रास्ता अपनाया, जबकि उन्हें बखूबी पता था कि इसका परिणाम ऐसे शस्त्र विराम में होना है।

 

मोदी सरकार ने आपरेशन सिंदूर का ही रास्ता क्यों अपनाया, इसका कारण समझना कोई बहुत मुश्किल भी नहीं है। इन कारणों की शुरूआत, पहलगाम की घटना के लिए जिम्मेदार, भारी सुरक्षा चूक पर पर्दा डालने की जरूरत से होती है। इस सुरक्षा चूक को यह सच और भी खटकने वाला बना देता है कि पिछले छ: साल से ज्यादा से जम्मू-कश्मीर में वास्तविक सत्ता केंद्र सरकार के हाथों में है और इसके लिए वहां तमाम जनतांत्रिक प्रक्रियाओं की इस सरकार ने बाकायदा हत्या की है। इस पर्दापोशी के लिए ही ऑपरेशन सिंदूर का ईवेंट आयोजित किया जाता है, जैसी कि नरेंद्र मोदी की जानी-पहचानी शैली है। और युद्घ के इस ईवेंट का आयोजन यह जानते हुए भी किया जाता है कि भारत और पाकिस्तान के बीच ताकत का असंतुलन ऐसा नहीं है, जहां भारत निर्णायक सैन्य जीत हासिल कर सकता हो। उल्टे दोनों देशों के पास नाभिकीय हथियारों की मौजूदगी ने तो, परंपरागत बलों की ताकत के इस असंतुलन को बहुत हद तक पाट ही दिया है। ऐसे में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का वही हश्र होना था, जो कि हुआ है। अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिहाज से उसकी नाकामी पूर्व-निश्चित थी। यह दूसरी बात है कि अमेरिका की मध्यस्थता में हुए युद्घविराम के बाद, अब भारत और पाकिस्तान, दोनों ही अपनी ‘जीत’ के दावे करते रह सकते हैं।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।

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