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Tuesday, June 24, 2025 10:26:19 AM

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भारत में गरीबी कम होने का दावा एक क्रूर मज़ाक है

भारत में गरीबी कम होने का दावा एक क्रूर मज़ाक है

रिपोर्ट : विमल कुमार

अनुवाद : संजय पराते

विश्व बैंक ने भारत के 2022-23 के घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण पर आधारित एक नई रिपोर्ट जारी की है, जिसमें उसने घोषणा की है कि भारत ने लगभग अत्यधिक गरीबी को समाप्त कर दिया है और अब केवल 2.3 प्रतिशत आबादी ही अत्यधिक गरीबी रेखा से नीचे रह रही है। यह रिपोर्ट दावा करती है कि 2011-12 और 2022-23 के बीच, 17.1 करोड़ लोगों को 2.15 डॉलर प्रतिदिन की अत्यधिक गरीबी रेखा से ऊपर उठाया गया है। यह दावा एक सफ़ेद झूठ है और भारत में लाखों लोगों के जीवन-यथार्थ से इसका कोई लेना-देना नहीं है।

पिछले 11 सालों में मोदी सरकार ने भारत में लोगों की आजीविका को एक के बाद एक कई बड़े झटके दिए हैं। इनमें 2016 में नोटबंदी, 2017 में जीएसटी लागू करना, 2020 में पूरी तरह से अनियोजित और कठोर लॉकडाउन लागू करना, 2020 में प्रस्तावित तीन कृषि कानून और 2019 और 2020 में नए श्रम संहिता आदि शामिल हैं। मनरेगा जैसी कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च स्थिर हो गया है। निजीकरण और ठेकाकरण में तेजी से न केवल सरकारी नौकरियों में कमी आई है, बल्कि जो नौकरियां बची हैं, उनमें भी रिक्तियां कई गुना बढ़ गई हैं। कृषि और छोटे व्यवसायों के लिए बैंक ऋण की उपलब्धता कम हो गई है, जबकि बड़े व्यवसायों को भरपूर लाभ हुआ है।

आकंड़ों का फर्जीवाड़ा

जब भारतीय लोग अभूतपूर्व आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, तब सरकार ने आँकड़ों का फर्जीवाड़ा करने और सुर्खियों को बटोरने के लिए अतिरिक्त मेहनत की है। 2019 में, एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए, सरकार ने घरेलू उपभोग सर्वेक्षण के आंकड़ें जारी करने से इंकार कर दिया था, क्योंकि ये आंकड़ें गरीबी में तेज वृद्धि को दिखा रहे थे। इसके बाद इसने चुनिंदा संकेतकों का उपयोग करके एक बहुआयामी गरीबी सूचकांक तैयार किया, ताकि यह दावा किया जा सके कि गरीबी में तेज गिरावट आई है। इसके साथ ही, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय को उपभोग सर्वेक्षण की अपनी कार्यप्रणाली को इस तरह से संशोधित करने के लिए कहा गया कि इससे उपभोग के उच्चतम अनुमान प्राप्त हों और इसका उपयोग गरीबी में गिरावट का दावा करने के लिए किया जा सके। इसके बाद उपभोग सर्वेक्षण करने की सुस्थापित कार्यप्रणाली को त्याग दिया गया और एक नई कार्यप्रणाली का उपयोग किया गया, जिसमें उपभोग की विभिन्न वस्तुओं पर आंकड़ें एकत्र करने के लिए प्रत्येक नमूना घर का तीन बार सर्वेक्षण किया गया। इसके परिणामस्वरूप प्रत्येक घर से अधिक संख्या में वस्तुओं की खपत की रिपोर्ट दर्ज की गई, जिससे उपभोग व्यय का समग्र अनुमान बढ़ गया।

विश्व बैंक की रिपोर्ट इस तथ्य को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ करती है कि 2011-12 और 2022-23 के इन दो सर्वेक्षणों में बहुत अलग-अलग पद्धतियों का इस्तेमाल किया गया था और उनके अनुमान तुलनीय नहीं हैं। लेकिन अब इन दोनों सर्वेक्षणों के अनुमानों की तुलना करके गरीबी में कमी का दावा किया जा रहा है। इसमें सिर्फ़ इतना उल्लेख किया गया है कि “आंकड़ों की सीमाओं के कारण असमानता को कम करके आंका जा सकता है।” रिपोर्ट में इस तथ्य का कोई उल्लेख नहीं किया गया है कि कार्यप्रणाली में बदलाव ऐसे थे कि वे उपभोग व्यय के उच्च स्तर और इस प्रकार गरीबी को कम दिखाने के लिए बाध्य थे।

पीएलएफएस में भी फर्जीवाड़ा

संशोधित उपभोग सर्वेक्षण के साथ-साथ, आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के नाम से रोजगार-बेरोजगारी सर्वेक्षण का एक नया संस्करण भी तैयार किया गया है, जिसमें आर्थिक संकट के कारण पशुपालन जैसी सीमांत गतिविधियों में भाग लेने वाली ग्रामीण महिलाओं को भी रोजगार प्राप्त माना जाता है। यदि किसी अधिक लाभकारी रोजगार अवसर के अभाव में कोई महिला घर में बकरी या गाय पालती है और उसका पालन-पोषण करती है, तो पीएलएफएस उस महिला को रोजगार प्राप्त मानता है। घरेलू उद्यमों में अवैतनिक महिला श्रमिकों को भी रोजगार प्राप्त माना जाता है। ग्रामीण महिलाओं के बीच इस तरह का ‘स्व-रोजगार’ ही विश्व बैंक के इस आकलन के पीछे है कि “विशेष रूप से महिलाओं के बीच, रोजगार-दर बढ़ रही हैं।” दूसरी ओर, रोजगार के सबसे अनिश्चित रूप — पैदल चलने वाले निर्माण श्रमिक, गर्मी की तपिश या कड़ाके की ठंड में घंटों साइकिल चलाने वाले खाद्य-वितरण श्रमिक और ऊबर ड्राइवर, जो बिना सोए कई दिनों तक कार चलाते हैं — शहरी श्रमिकों के विशाल बहुमत के लिए उपलब्ध एकमात्र रोजगार है।

भारत की सांख्यिकी प्रणाली, जो कभी देश का गौरव हुआ करती थी, मोदी सरकार द्वारा नष्ट कर दी गई है। देश में सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को प्रभावी ढंग से और सटीक रूप से पकड़ने के लिए वैध सांख्यिकीय तरीकों का उपयोग करने के बजाय, यह सरकार के प्रचार को आगे बढ़ाने और देश में गहराते आर्थिक संकट के प्रति सरकार की उदासीनता को छिपाने के लिए फर्जी आंकड़े तैयार करने तक सीमित हो गई है। एक बहुत ही अलग वास्तविकता का सामना करने वाले लोगों का इस सांख्यिकीय झूठ से कभी संबंध स्थापित नहीं होगा। हमें तथ्यों और इस सांख्यिकीय कल्पना के बीच के अंतर को उजागर करना चाहिए और इस जनविरोधी सरकार के खिलाफ अपने अनुभवों के आधार पर लोगों को एकजुट करना चाहिए।

अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।

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