इस भीड़-भाड़ भरी जिंदगी की राहों में, हर-एक व्यक्ति दिन-रात जी-तोड़ मेहनत में लगा रहता हैं, क्यों? क्योंकि देखा जाए तो हम सबको घुमा-फिरा के बस एक ही चीज चाहिए, वो है ‘खुशी’, लेकिन सच पूछो तो लाख कोशिशों के बावजूद हम पूरी तरह से खुशी को पाने में सफल हो ही नहीं पाते। कभी इस चकाचौंध भरी दुनिया से फुर्सत मिले तो किसी छोटे बच्चे के साथ कुछ पल जी कर देखें, यकीनन आप उस कुछ पल में ही अपना बचपन उस बच्चे में पाओगे। वो खुशी जिसके लिए दिन रात लगे रहते हो, उस बच्चे की मुस्कुराहट में मिल जायेगी।
दुर्भाग्यवश कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं, जिन्हें हम खुल कर बचपन जीने नहीं देते। उस नन्हीं सी जान पर समय से पहले ही बस्ते का बोझ डाल देते हैं, तो कुछ बच्चे के नसीब में तो बस्ते भी नहीं आते। खेलने की उम्र में ही उन्हें खिलौनों की जगह कूड़े-कचरों के ढेर से कचरा चुन कर कमाने को मजबूर किया जाता है, तो कुछ को भीख मांगने जैसी गन्दी बीमारियों से ग्रसित होना पड़ता है। यदि हम अपनी कमाई का कुछ हिस्सा ऐसे जरूरतमंद बच्चों पर खर्च कर दें, तो शायद हम किसी का बचपन बिगड़ने से बचा सकते हैं। वो मुस्कराहट जो दिल से निकलती है उसे हम जीवित रखने में सफल हो सकते हैं। किसी के बचपन को बचा कर ही हम अपने बीते बचपन को दोहरा सकते हैं और खुशियों को अपनी परछाईं बना सकते हैं।
उत्पल आनंद की एक कविता जो बचपन को परिभाषित करती है –
मुझे हक है खुल कर जीने का, क्योंकि मैं बचपन हूँ
मुझे हक है दिल से रोने-हंसने का, क्योंकि मैं बचपन हूँ
मुझे हक है तुझे सताने-मुस्कुराने का, क्योंकि मैं बचपन हूँ
मुझे हक है अपने धुन गुनगुनाने का, क्योंकि मैं बचपन हूँ
मैं अबोध, निर्दोष, निश्छल हूँ, क्योंकि मैं बचपन हूँ
मैं तुझमे हूँ, उस में हूँ, मैं सब में हूँ, क्योंकि मैं बचपन हूँ
मैं खुश हूँ, मैं पाक हूँ, मैं पवित्र हूँ…
क्योंकि मैं बचपन हूँ,
क्योंकि मैं बचपन हूँ!
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