सिद्धार्थनगर। अपनी हम अपनी दिनचर्या को कालचक्र के अनुरूप नियमित करें तो अधिकांश रोगों से अपने आप को बचा सकते हैं और उत्तम स्वास्थ्य एवं दीर्घायुष्य की भी प्राप्ति होती है।
सक्रिय अंग के कार्यों को समय के अनुरूल बाटा गया है।
प्रातः 3 से 5 बजे (फेफड़े)- ब्राह्ममुहूर्त में उठने वाले व्यक्ति बुद्धिमान व उत्साही होते हैं। इस समय थोड़ा-सा गुनगुना पानी पीकर खुली हवा में घूमना चाहिए। दीर्घ-श्वसन भी करना चाहिए।
प्रातः 5 से 7 (बड़ी आँत)- जो इस समय सोये रहते हैं, मल त्याग नहीं करते, उन्हें कब्ज व कई अन्य रोग होते हैं। अतः प्रातः जागरण से लेकर सुबह 7 बजे के बीच मल त्याग कर लें।
सुबह 7 से 9 (आमाशय या जठर)- इस समय (भोजन के 2 घंटे पूर्व) दूध अथवा फलों का रस या कोई पेय पदार्थ ले सकते हैं।
सुबह 9 से 11 (अग्नाशय व प्लीहा)- यह समय भोजन के लिए उपयुक्त है।
दोपहर 11 से 1 (हृदय)- करुणा, दया, प्रेम आदि हृदय की संवेदनाओं को विकसित एवं पोषित करने के लिए दोपहर 12 बजे के आसपास संध्या करें। भोजन वर्जित है।
दोपहर 1 से 3 (छोटी आँत)- भोजन के करीब 2 घंटे बाद प्यास अनुरूप पानी पीना चाहिए। इस समय भोजन करने अथवा सोने से पोषक आहार-रस के शोषण में अवरोध उत्पन्न होता है व शरीर रोगी तथा दुर्बल हो जाता है।
दोपहर 3 से 5 (मूत्राशय)- 2-4 घंटे पहले पिये पानी से इस समय मूत्र-त्याग की प्रवृत्ति होगी।
शाम 5 से 7 (गुर्दे)- इस काल में हलका भोजन कर लेना चाहिए। सूर्यास्त के 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक (संध्याकाल में) भोजन न करें। शाम को भोजन के तीन घंटे बाद दूध पी सकते हैं।
रात्रि 7 से 9 (मस्तिष्क)- प्रातः काल के अलावा इस काल में पढ़ा हुआ पाठ जल्दी याद रह जाता है।
रात्रि 9 से 11 (रीढ़ की हड्डी में स्थित मेरूरज्जु)- इस समय की नींद सर्वाधिक विश्रांति प्रदान करती है और जागरण शरीर व बुद्धि को थका देता है।
11 से 1 (पित्ताशय)- इस समय का जागरण पित्त को प्रकुपित कर अनिद्रा, सिरदर्द आदि पित्त विकार तथा नेत्र रोगों को उत्पन्न करता है। इस समय जागते रहोगे तो बुढ़ापा जल्दी आयेगा।
1 से 3 (यकृत)- इस समय शरीर को गहरी नींद की जरूरत होती है। इसकी पूर्ति न होने पर पाचनतंत्र बिगड़ता है।
ऋषियों व आयुर्वेदाचार्यों ने बिना भूख लगे भोजन करना वर्जित बताया है। अतः प्रातः एवं शाम के भोजन की मात्रा ऐसी रखें, जिससे ऊपर बताये समय में खुलकर भूख लगे।
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