सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) मामले की पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई नहीं करेगा. सुप्रीम कोर्ट ने एनजेएसी पर दाखिल याचिका को खारिज कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के निर्णय को खारिज कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि इससे न्यायिक स्वतंत्रता बाधित होगी.संवैधानिक पीठ ने 2015 में 99वें संविधान संशोधन एक्ट की ओर से लाए गए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) एक्ट को खारिज कर दिया था. अगर यह कानून लागू होता तो जजों की नियुक्ति के लिए सामाजिक संगठनों और नेताओं का हस्तक्षेप अनिवार्य होता.चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुवाई में पांच जजों की खंडपीठ ने कहा कि याचिका को देरी के आधार पर खारिज किया गया है. याचिका में कुछ खास नहीं है. कोर्ट ने निर्णय सुनाते हुए कहा, ‘पुनर्विचार याचिका दायर करने में 470 दिनों की देरी हुई है. इसपर कोई संतोषजनक जवाब भी नहीं दिया गया है. पुनर्विचार याचिका केवल देरी के आधार पर भी खारिज की जा सकती है.पांच जजों की खंडपीठ में जस्टिस मदन बी लोकुर, जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस अशोक भूषण शामिल थे. उन्होंने कहा, ‘हमनें बहुत ही ध्यान से दस्तावेजों की समीक्षा की है, लेकिन उसमें कुछ खास नहीं मिला है.’एनजेएसी अधिनियम 2014 अगर लागू होता तो जजों की नियुक्ति में सरकार की भूमिका अहम हो जाती. लेकिन इसे ज्यूडिशियरी की आजादी में सरकार के हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता है.सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान बैंच ने 16 अक्टूबर, 2015 को इसे ‘असंवैधानिक’ करार देकर खारिज कर दिया था. यह एक्ट जजों की नियुक्ति करने वाले 22 साल पुराने कॉलेजियम सिस्टम को हटाकर लागू होता. संवैधानिक पीठ के पांच में से चार जजों ने एनजेएसी अधिनियम और संविधान के (99 वां संशोधन) अधिनियम 2014 को असंवैधानिक करार दिया था. जबकि जस्टिस जे चेलमेश्वर ने संवैधानिक संशोधन कानून की वैधता को बरकरार रखा था.1-जजों की नियुक्ति, तबादले करने वाला फोरम.2-फोरम में CJI और SC के 4 वरिष्ठ जज शामिल.3-CJI की पसंद पर राष्ट्रपति सिर्फ मुहर लगाते हैं.कॉलेजियम सिस्टम में सबसे अहम बात ये है कि जजों की नियुक्ति न्यायपालिका से जुड़े लोग ही करते हैं. सिर्फ भारत में ही ऐसी व्यवस्था है जिसमें न्यायपालिका खुद जजों की नियुक्ति करती है.कॉलेजियम सिस्टम का विरोध करने वाले इसके खिलाफ पुख्ता तर्क देते हैं-
1-मौजूदा सिस्टम में पारदर्शिता की कमी.2-फैसलों का आधार पता नहीं चलता.3-कई काबिल जजों को प्रमोशन नहीं.4-नियुक्ति से पहले बैकग्राउंड की पड़ताल नहीं होती.इसके पक्ष में तर्क देने वालों का कहना है कि कॉलेजियम सिस्टम में न्यायपालिका के पास ज्यादा अधिकार होते हैं. न्यायपालिका की स्वतंत्रता बरकरार रहती है. नियुक्ति में राजनीतिक दखल नहीं होता है. जज करते हैं बेहतर उम्मीदवारों का चयन.
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