रिपोर्ट : राजेंद्र शर्मा
फासीवादियों की एक जानी-मानी रणनीति है। जो खुद करना चाहते हो, करने जा रहे हो, विरोधी पर वही करने का आरोप लगा दो। भाजपा के बदजुबान पर मोदी जी निजाम के मुंहलगे सांसद, निशिकांत दुबे सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, संजीव खन्ना पर ”देश में हो रहे सभी गृह युद्घों” की जिम्मेदारी डालने के जरिए, ठीक यही दांव आजमा रहे थे। कहने की जरूरत नहीं है कि दुबे का उक्त बयान, वक्फ़ कानून की वैधता के लिए चुनौतियों की सुनवाई के क्रम में संजीव खन्ना के नेतृत्व वाले सुप्रीम कोर्ट के तीन सदस्यीय खंडपीठ द्वारा अपनाए गए आरंभिक रुख केे संदर्भ में आया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में क्या कहा है और क्या किया है, इसकी चर्चा हम जरा आगे चलकर करेंगे। यहां सिर्फ इतना कि अगर भाजपा के अघोषित प्रवक्ता के रूप में दुबे को, इस संदर्भ में गृहयुद्घों की याद आ गयी है, तो यह संयोग ही नहीं है। इसमेें वक्फ़ कानून को लाने के पीछे संघ-भाजपा निजाम के असली मकसद का इशारा है। और यह मकसद है, मुसलमानों की स्थिति को और कमजोर करना, उन्हें और दबाना, जिसके संबंध में वे भी बखूबी जानते हैं कि यह देश को गृहयुद्घ की ओर धकेलना है। लेकिन, किसी कमजोर, अल्पसंख्यक को दबाने वाला गृहयुद्घ ही उनका वाक्य है, न कि गृहयुद्घ से बचाव।
याद रहे कि दुबे ने एकवचन में गृहयुद्घ की नहीं, बहुवचन में ”गृहयुद्घों” की बात कही है। उसका इशारा सुप्रीम कोर्ट के हाल के कुछ और महत्वपूर्ण फैसलों की ओर भी है। इशारा खासतौर पर राज्यपालों की भूमिका और विशेष रूप से राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों के संदर्भ में राज्यपालों की भूमिका को लेकर, तमिलनाडु बनाम राज्यपाल के मामले में सुप्रीम कोर्ट के हाल के ही फैसले की ओर है। उस निर्णय से जुड़ा गृहयुद्घ का इशारा, आम तौर पर राज्यों की स्वायत्तता के खिलाफ और खासतौर पर दक्षिण भारतीय राज्यों की भाषायी-सांस्कृतिक-सामाजिक स्वायत्तता के खिलाफ, संघ-भाजपा की एकात्मकतावादी मुहिम में निहित गृहयुद्घ की संभावनाओं की ओर है।
इस प्रसंग में इसकी याद दिलाना अप्रासांगिक नहीं होगा कि तमिलनाडु की ”हिंदी थोपे जाने” की चिंताओं का आधे-अधूरे तरीके से सरकार की ओर से खंडन किए जाने के बीच ही, महाराष्ट्र की भाजपा-नीत गठजोड़ सरकार ने तमिलनाडु की आशंकाओं को ही सच साबित करते हुए, इसका ऐलान कर दिया कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के तहत, त्रिभाषा फार्मूले की तीसरी भाषा के रूप में महाराष्ट्र में ”हिंदी” अनिवार्य की जा रही है। हैरानी की बात नहीं है कि इस निर्णय का व्यापक रूप से विरोध भी हो रहा है। बहरहाल, इसके समानांतर मुंंबई के कुछ हिस्सों से एक बार फिर गुजरातियों और मराठियों के बीच तनाव बढ़ने की खबरें आने लगी हैं।
यह भी याद रहे कि तमिलनाडु बनाम राज्यपाल प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ हमले की शुरूआत, निशिकांत दुबे से दो-तीन दिन पहले,भारत के उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ कर चुके थे। धनखड़ जो सर्वोच्च न्यायालय के तथाकथित ”अतिक्रमणों” से संसद की और वास्तव में कार्यपालिका की हिफाजत करने के नाम पर पहले भी कई बार तलवार भांज चुके हैं, इस बार सर्वोच्च न्यायालय से इस बात से खफा थे कि उसने राज्यपालों द्वारा और यहां तक कि राष्ट्रपति द्वारा भी, राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित किए गए विधेयकों पर मंजूरी या नामंजूरी का निर्णय करने के लिए, तीन महीने की अधिकतम सीमा तय कर दी है। उनके अनुसार यह राष्ट्रपति की और उसकी नियुक्तियों के रूप में राज्यपालों की भी ‘सर्वोच्चता’ का अतिक्रमण है! अदालत राष्ट्रपति को कुछ भी निर्देश कैसे दे सकती है, भले ही यह इसी का निर्देश क्यों न हो कि राज्य विधायिका द्वारा पारित विधेयकों पर बैठेे ही नहीं रहें, तीन महीने के अंदर उन पर अपना कोई न कोई फैसला दे दें! सर्वोच्च न्यायालय को ”पूर्ण न्याय” करने में समर्थ बनाने वाली संविधान की धारा-142 को तो उपराष्ट्रपति धनखड़ ने ”जनतांत्रिक ताकतों के खिलाफ नाभिकीय मिसाइल, जो न्यायपालिका को 24 घंटा 7 दिन उपलब्ध है” ही करार दे दिया। यह इसके बावजूद था कि बाबरी मस्जिद बनाम रामजन्म भूमि विवाद में, मंदिर के पक्ष में अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कथित रूप से ”पूर्ण न्याय” करने के लिए ठीक इसी धारा का सहारा लिया था।
फिर भी यह अकारण ही नहीं है कि धनखड़ से भिन्न, निशिकांत दुबे तथा दिनेश शर्मा जैसे भाजपायी सांसदों ने, आम तौर पर सर्वोच्च न्यायालय पर और खासतौर पर मुख्य न्यायाधीश पर निशाना साधते हुए, वक्फ बोर्ड के मुद्दे को ही सबसे आगे रखा है। इसका सीधा संबंध, वक्फ कानून में संशोधनों के हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक मंतव्यों से है। बेशक, संघ-भाजपा की ओर से इसका काफी स्वांग भी किया जाता रहा है और जाहिर है कि इसमें संसद में बहस के दौरान तथा उसके बाद के भी उनके जुबानी दावे भी शामिल हैं, कि ये संशोधन वास्तव में मुसलमानों को लाभ पहुंचाने की चिंता से किए जा रहे हैं, कि इन संशोधनों से विशेष रूप से मुस्लिम महिलाओं व पसमांदा मुसलमानों को और मुसलमानों के बोहरा आदि कमजोर पंथों को फायदा मिलने वाला है, कि इसका हिंदुओं के तुष्टिकरण से कोई संबंध नहीं है, आदि। इसके बावजूद, इस पूरे प्रोजेक्ट के पीछे की असली नीयत तब खुलकर सामने आ गयी, जब रातों-रात संघ-भाजपा के युवा संगठनों ने विभिन्न राज्यों को ऐसे पोस्टरों से पाट दिया, जो वक्फ संशोधन विधेयकों का विरोध करने वाली राजनीतिक पार्टियों को, हिंदू-विरोधी घोषित करते थे। यह इसका खुला ऐलान था कि यह कानून, सबसे बढ़कर हिंदू सांप्रदायिकता के आग्रहों से ही संचालित है।
एक प्रकार से देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट ने इस वक्फ अधिनियम के खिलाफ चुनौतियों की सुनवाई पर अपनी शुरूआती प्रतिक्रिया में बिना कहे इस सच्चाई को स्वीकार भी किया है। इसीलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिनियम के कम से कम तीन पहलुओं पर फौरी तौर पर रोक लगाने की जो मंशा जतायी थी, उसके बाद मोदी सरकार ने अपनी ओर से ही संबंधित पहलुओं का परिचालन अगले अदालती आदेश तक रोके रखने का आश्वासन दे दिया। अदालत ने इस आश्वासन को आधिकारिक रूप से दर्ज कर लिया और इस तरह वक्फ़ अधिनियम के अमल को ही अदालत द्वारा रोके जाने की शर्मिंदगी से तो सरकार बच गयी, लेकिन इन कदमों को अपनी ओर से ही रोके रखने का वादा करने के बाद ही।
इस तरह जिन दो सबसे समस्यापूर्ण पहलुओं का अमल रोक दिया गया, उनमें एक तो वक्फ़ बोर्ड तथा वक्फ़ काउंसिल का राज्यों के स्तर तक पुनर्गठन ही है। इस सिलसिले में विवाद तथा अदालती चुनौती के केंद्र में अधिनियम का यह प्रावधान है कि अब तक के कायदे के विपरीत, उक्त निकायों में गैर-मुसलमानों को भी रखा जा सकता है। शिकायत यह है कि नये प्रावधानों के तहत बोर्ड और काउंसिल में गैर-मुस्लिमों का बहुमत तक हो सकता है। इस संदर्भ में इस कानून का विरोध करने वालों का तर्क यह है कि यह तो अपनी धार्मिक संस्थाओं का स्वत: रूप से संचालन करने की, देश के संविधान में सभी समुदायों को दी गयी स्वतंत्रता का ही उल्लंघन है। इसके अलावा इस प्रबल तर्क का भी सरकार के पास कोई जवाब नहीं था कि क्या वह अन्य धर्मो पर व संप्रदायों की संस्थाओं में भी इसी प्रकार, अन्य धर्मावलंबियों को जगह देने जा रही है?
फिलहाल स्थगित कर दिया गया दूसरा ऐसा ही समस्यापूर्ण पहलू ”वक्फ़ बाई यूज” यानी वक्फ़ के रूप में उपयोग होते आने से किसी संपत्ति की वक्फ़ के रूप में मान्यता का है। नया कानून वक्फ़ बाई यूज को अमान्य करता है और इस प्रकार सैकड़ों साल पुरानी अनेक मस्जिदों, कब्रिस्तानों, खानकाहों आदि पर संपत्ति विवादों का रास्ता खोलता है। मुद्दा यह है कि वर्तमान संपत्ति रजिस्ट्रेशन कानूनों के अमल में आने से पहले से वक्फ़ के रूप में चली आ रही संपत्तियों के मामले में, रजिस्ट्रेशन आदि के कागजात कहां से आएंगे और किस के पास मिलेंगे? इस तरह नये कानून के बनते ही, अनेक पुरानीc संपत्तियों पर विवाद खड़े हो जाने का रास्ता रोक दिया गया है।
बेशक, नये कानून को चुनौती दिए जाने के प्रमुख मुद्दे और भी हैं, जिन पर फिलहाल पाबंदी लगाना जरूरी नहीं समझा गया है। इनमें बुनियादी धार्मिक स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाला यह प्रावधान भी शामिल है कि वक्फ़ करने के लिए, संबंधित शख़्श का पांच साल से धर्मपालक मुसलमान रहा होना जरूरी है। इसी प्रकार, एक और महत्वपूर्ण मुद्दा नये कानून में जिलाधीश को वक्फ़ संपत्तियों के दर्जे के संबंध में निर्णय के तमाम अधिकार सौंपे जाने से लेकर, किसी संपत्ति को लेकर विवाद खड़ा किए जाने की सूरत में, जिलाधीश द्वारा अंतिम निर्णय किए जाने तक, उसका वक्फ़ संपत्ति का दर्जा ही स्थगित हो जाने तक जाता है। बहरहाल, फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने अपने हस्तक्षेप से नये कानून के सबसे आपत्तिजनक तथा समस्यापूर्ण प्रावधानों का अमल स्थगित करा दिया है और अदालत ने एक हद तक अपने सोच की दिशा का भी इशारा कर दिया है। यही सुप्रीम कोर्ट पर संघ-भाजपा के इस बौखलाहट भरे हमले का मुख्य कारण है।
बेशक, भाजपा के अध्यक्ष पद पर अब चंद दिन के मेहमान, जेपी नड्डा ने निशिकांत दुबे, दिनेश शर्मा आदि भाजपा सांसदों द्वारा मुख्य न्यायाधीश पर लगाए गए आरोपों से भाजपा को अलगाने की कोशिश में, न सिर्फ उनके बयानों को उनके निजी बयान बताया है, बल्कि एक कदम आगे जाकर कहा है कि उन्हें आइंदा ऐसा न करने के निर्देश भी दिए गए हैं। लेकिन, संंघ-भाजपा की एक साथ कई-कई मुंह से अलग-अलग बातें कहने की कार्यनीति से परिचित लोग, भाजपा के इस खंडन को गंभीरता से लेने के लिए तैयार नहीं हैं। और संघ-भाजपा की ट्रोल सेना ने वक्फ़ प्रसंग को ही लेकर जिस तरह, सुप्रीम कोर्ट को कथित मुस्लिम-पक्षधरता के लिए गरियाना जारी रखा है और उसे ”सुप्रीम कोर्ट” से लेकर ” शरिया अदालत” तक कहना जारी रखा है, उससे भाजपा के इन रस्मी खंडनों के प्रति लोगों के अविश्वास को ही बल मिलता है।
सच्चाई यह है कि अब जबकि संजीव खन्ना की अगुआई में सुप्रीम कोर्ट ने सत्तारूढ़ संघ-भाजपा के मंसूबों से कुछ स्वायत्तता का प्रदर्शन करना शुरू किया है और जल्द ही देश को एक नया मुख्य न्यायाधीश मिलने जा रहा है, जिसका रिकार्ड भी कार्यपालिका की मर्जी के आगे बहुत ज्यादा झुकने का नहीं रहा है, अपने फासीवादी मिजाज के अनुरूप वर्तमान सत्ताधारियों के इशारे पर, सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ हमला बोल दिया गया है। यह संवैधानिक संस्थाओं को धौंस में लेने की जानी-पहचानी फासीवादी कार्यनीति की ही आजमाइश है। यह दूसरी बात है कि ऐसी कार्यनीति की जरूरत अपने आप में, सत्ताधारियों के लिए गहराते संकट का ही संकेत करती है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।
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