रिपोर्ट : संजय पराते
जब बिना किसी सुविचारित नीति के चुनाव को नजर में रखकर युद्धोन्माद फैलाया जाता है और फिर जनता को संतुष्ट करने और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को मजबूत करने के लिए युद्ध की ‘रचना’ की जाती है, तो उसका वही हश्र होता है, जो कल हमें दिखा। पहलगाम में आतंकी हमले के बाद पूरे देश में युद्ध और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का जो वातावरण बनाया गया, उसमें पाकिस्तान पर ‘सीमित हमला’ करना जरूरी था, वरना भाजपा के घरेलू चुनाव के मोर्चे पर मात खाने की उम्मीद बन रही थी। गोदी मीडिया द्वारा इस सीमित हमले को इस तरह दिखाया गया कि अब दुनिया के नक्शे से पाकिस्तान का नाम ही मिटने वाला है और पाक हुक्मरान दया की भीख मांग रहे हैं। मीडिया ने कराची और पेशावर तक चढ़ाई कर दी थी कि अमेरिका ने युद्ध विराम का फैसला सुना दिया और भारत ने उसे एक अच्छे बच्चे की तरह मान लिया। लेकिन फिर खबर आई कि पाकिस्तान ने अमेरिका-प्रायोजित इस युद्ध विराम का भी उल्लंघन कर दिया है। सेना की सर्वोच्च अधिकारी राष्ट्रपति मौन है, प्रधानमंत्री आम जनता से नजरें चुरा रहे हैं। उधर पाकिस्तानी हुक्मरान संसद से मुखातिब है और वहां भारत की हार का जश्न मनाया जा रहा है। कश्मीर का जो मामला वर्ष 1971 के बाद से आज तक द्विपक्षीय बना हुआ था, अब उसके अंतर्राष्ट्रीय बनने की संभावना बलवती हो गई है। भारत-पाक के किसी युद्ध में या झड़प में भारत की ऐसी हास्यास्पद स्थिति कभी नहीं हुई, जैसी आज हो रही है। आम जनता यह सवाल पूछ रही है कि आखिर इस युद्ध से भारत को क्या हासिल हुआ?
असली सवाल यही है कि इस सीमित युद्ध से और जब पाकिस्तान पर भारत हर दृष्टि से हावी था, युद्धविराम करके भारत को हासिल क्या हुआ? भारत को हासिल क्या हुआ, यह सवाल पहली बार नहीं पूछा जा रहा है? उस समय भी पूछा गया था, जब नोटबंदी की गई थी। तब बताया गया था कि इससे आतंकवाद की कमर टूट जाएगी। पता चल रहा है कि नोटबंदी के बाद आतंकवाद और मजबूत हो गया है कि हमारी ही कमर तोड़ रहा है। जब कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करके उसे टुकड़ों में बांटा गया, तब भी यही कहा गया कि इससे आतंकवाद खत्म हो जाएगा, लेकिन आतंकी हमले रुके नहीं। इस आतंकी हमले ने पहलगाम में कश्मीरियों पर भी हमला किया, उनकी भी शहादतें लीं। पाक-प्रायोजित आतंकियों ने पर्यटकों का धर्म पूछकर उन्हें मारा, ताकि आतंकवाद के धर्म को दिखाया जा सकें, लेकिन कश्मीर की हिंदू-मुस्लिम जनता ने एकजुटता के साथ यह दिखा दिया कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। आतंक केवल आतंक होता है, बस!
इसलिए आम जनता यह सवाल पूछ रही है कि आखिर इस युद्ध से भारत को क्या हासिल हुआ? यह सवाल जायज भी है, क्योंकि बिहार की धरती से हमारे प्रधानमंत्री ने कसम खाई थी कि “आतंकियों को मिट्टी में मिला देंगे।” इस सीमित युद्ध के दौरान बताया जा रहा था कि आतंकियों के ठिकानों को नेस्तनाबूद किया जा रहा है, ताकि कोई इस देश में घुसकर आतंकी हरकत करने की हिम्मत न कर पाए। पाकिस्तान में 40 से ज्यादा शिविर हैं, जहां आतंकवादियों को प्रशिक्षित किया जाता है, उन्हें पाला-पोसा जाता है। खबरों के अनुसार, 8-10 शिविर नष्ट हुए हैं। बाकी को क्यों छोड़ दिया गया, किसके कहने पर छोड़ा गया, यह सब जानने का अधिकार जनता का नहीं है? बचे हुए आतंकी शिविर क्या अमेरिका में आतंक फैलाने का काम करते हैं, जिससे निपटने की जिम्मेदारी अमेरिका पर छोड़ दी गई है? मोदी सरकार ने जिस सीमित लक्ष्य के साथ यह युद्ध छेड़ा था, उसे भी प्राप्त करने में असफल रही है। यह हमारी युद्ध नीति की भी असफलता है और कूटनीति की भी।
और यह असफलता क्यों हैं? इसलिए कि घरेलू मोर्चे पर मोदी सरकार आजादी के बाद की सबसे ज्यादा असफल सरकार साबित हुई है, जिसने घरेलू समस्याओं को हल करने के बजाए, आम जनता का ध्यान इससे हटाने के लिए हर मौके पर विभाजनकारी नीतियां अपनाई और लगातार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिए चुनाव जीतने और सत्ता में बने रहने को अपना एकमात्र लक्ष्य बना लिया है। देश विरोधी ताकतें भी इसका फायदा उठाने में लगी है, जो पहलगाम में आतंकी हमले से सही साबित होता है। ये ताकतें चाहती थी कि सांप्रदायिक आधार पर पहले से ही विभाजित भारतीय समाज और ज्यादा ध्रुवीकृत हो। उन्हें इसमें कामयाबी भी मिली, जब प्रधानमंत्री कश्मीर जाने के बजाए, दो-दो सर्वदलीय बैठक में जाकर विचार-विमर्श करने के बजाए, बिहार जाकर इसे चुनावी मुद्दा बनाते हैं और संघी गिरोह पूरे देश भर में मुस्लिमों पर हमला करके हिंदुओं की शहादत का बदला लेता है।
युद्ध की परिस्थितियों में सरकार और सत्ताधारी पार्टी की जिम्मेदारी पूरे देश को एकजुट करने की होती है, इसके बजाय वह देश को और विभाजित करने का काम कर रही थी। इस सबके बावजूद, पूरा विपक्ष और पूरा देश सरकार के साथ एकजुट था कि वह इस आतंकी हमले का प्रतिकार करने के लिए किसी भी प्रकार का कदम उठाने को स्वतंत्र है। मोदी सरकार ने कूटनीति के जरिए पाकिस्तान की घेराबंदी करने के बजाए, युद्धनीति को प्राथमिकता दी।
पहलगाम में आतंकवादी हमले की अभी तक मोदी सरकार ने साफ साफ जिम्मेदारी नहीं ली है। बैसरन घाटी में सुरक्षा बलों की अनुपस्थिति के बारे में सर्वदलीय बैठक में उसने जो सफाई दी है, वह गले उतरने लायक नहीं है और उसकी इस सफाई पर प्रश्नचिन्ह भी लग चुके हैं। आम जन मानस में यह सवाल भी तैर रहा है कि हर चुनाव के पहले ही आतंकी हमले क्यों होते हैं और इसकी आड़ में एक धार्मिक समुदाय को निशाने पर लेकर युद्धोन्मादी वातावरण क्यों बनाया जाता है? जिस तरह पहले की आतंकी घटनाओं की कोई विश्वसनीय जांच रिपोर्ट सामने नहीं आई हैं, पहलगाम की घटना के भी कोई तथ्य सामने नहीं आने वाले हैं। अब अगला सवाल यह है कि इस सीमित युद्ध का जो हश्र हुआ, क्या उसकी ही कोई जिम्मेदारी मोदी सरकार लेने के लिए तैयार है? इस युद्ध विराम से पहले हमारी सेना को भी विश्वास में लिया गया है, ऐसा भी नहीं लगता। यह हमारी सेना के शौर्य और सैनिकों की शहादत का अपमान नहीं, तो और क्या है!
आज तक हम इस नीति का पालन कर रहे थे कि भारत और पाकिस्तान के बीच का कोई भी विवादित मुद्दा हमारा आपसी मामला है और दोनों देश आपसी संवाद के जरिए कश्मीर सहित सभी मुद्दों को सुलझा सकते हैं। शिमला समझौते की भावना भी यही है। पाकिस्तान ने बार-बार इस समझदारी का उल्लंघन किया है, लेकिन उसे कभी सफलता नहीं मिली और हमारी सरकार की सफल कूटनीति ने विश्व जनमत को हमारे पक्ष में बनाए रखा।
लेकिन वर्ष 1971 के बाद यह पहली बार हो रहा है कि भारत-पाक विवाद का हल अमेरिका की मध्यस्थता में खोजा जा रहा है। यह आश्चर्य की बात है कि युद्ध विराम की घोषणा भारत या पाकिस्तान नहीं, अमेरिका करता है। पाकिस्तान इसकी मीडिया में पुष्टि करता है और भारत दबी जुबान “ऐसा नहीं” कहने पर मजबूर है, लेकिन अमेरिका की मध्यस्थता का खंडन करने की हिम्मत नहीं करता। अमेरिका ही यह घोषणा भी करता है कि “दोनों पक्ष बड़े मुद्दों पर किसी तटस्थ स्थल पर वार्ता के लिए सहमत हो गए हैं।” अब यह बड़ा मुद्दा कश्मीर के सिवा और क्या हो सकता है? यह स्पष्ट नहीं है कि “किसी तटस्थ स्थल” पर अमेरिका की मौजूदगी होगी या नहीं? लेकिन संचार-प्रौद्योगिकी के इस युग में अमेरिका की भौतिक उपस्थिति कोई मायने नहीं रखती। युद्ध विराम में मध्यस्थता और बड़े मुद्दों पर वार्ता की अमेरिका की घोषणा से ही जाहिर है कि अब भविष्य में कश्मीर मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण होने जा रहा है, जो पाकिस्तान के मन-माफिक है। इसलिए युद्ध विराम की अमेरिकी घोषणा को पाकिस्तान अपनी जीत और भारत की हार बता रहा है, तो इसमें गलत क्या है?
अमेरिका चाहता तो पाक प्रायोजित आतंकवाद पर लगाम लगा सकता था। लेकिन अमेरिका ही है, जो पूरी दुनिया में आतंकवाद का निर्यात करता है और आतंकवादियों को पनाह भी देता है। पाकिस्तान के राजनेताओं ने भी, जो जब-तब सत्ता में भी रहे हैं, यह माना है कि उनकी जमीन पर आतंकवाद अमेरिका के इशारे पर और उसके हितों के लिए पाला-पोसा गया है। इसलिए भारत में आतंकवाद केवल पाक-प्रायोजित ही नहीं है, अमेरिका-समर्थित आतंकवाद भी है। इसलिए पाकिस्तान के खिलाफ लड़ना जितना जरूरी है, उससे ज्यादा जरूरी आतंकवाद के सरगना अमेरिका के खिलाफ लड़ना है। लेकिन मोदी सरकार के पास बाबर और औरंगजेब के औलादों के खिलाफ लड़ने की ताकत तो है, अमेरिका के खिलाफ चूं तक करने की हिम्मत नहीं है। जब अमेरिका हमारे प्रवासी देशवासियों को जंजीर से जकड़कर हमारी ही धरती पर पटक रहा था, तो इस अपमान के खिलाफ मोदी सरकार की न केवल घिग्घी बंधी हुई थी, बल्कि संसद के अंदर उसने अमेरिका के इस कुकृत्य को सही भी ठहराया था, जबकि पूरी दुनिया अमेरिका की इस दादागिरी के खिलाफ लड़ रही थी। इसलिए इस सीजफायर के लिए मध्यस्थता कर रहे अमेरिका की किन शर्तों को भारत ने माना है, इसका भी खुलासा उसे आम जनता के सामने करना चाहिए।
दो देशों के बीच का युद्ध वास्तव में उन देशों की सत्ताधारी पार्टियों और शासक वर्ग के बीच का युद्ध होता है, जिसमें जनता को सुनियोजित रूप से खींचा जाता है। आजादी के बाद से ही भारतीयों के मन में पाकिस्तानी जनता के खिलाफ और पाकिस्तानियों के मन में भारतीय जनता के खिलाफ नफरत पैदा करने का काम होता रहा है। भारत-पाक के इस सीमित युद्ध के जरिए दोनों देशों के सत्ताधारियों के हित साधे गए हैं। पाकिस्तान में सैन्य शासकों ने वैधता प्राप्त करने की कोशिश की है, तो भारत में मोदी सरकार ने बिहार चुनाव को साधने की। वास्तव में तो सेना को, उसकी इच्छा-अनिच्छा के परे, युद्ध की भट्टी में ही झोंकने का काम किया गया है। वह एक लोकतांत्रिक सरकार के अधीन अपना सैन्य कर्तव्य ही पूरा कर रही थी। अमेरिका की मध्यस्थता में हुए इस युद्ध विराम ने वास्तव में भारतमाता के माथे के सिंदूर को थोड़ा-सा और पोंछने का ही काम किया है।
व्हाट्सएप पर शेयर करें
No Comments






