रिपोर्ट : सुभाष गाताडे,
अनुवाद : संजय पराते
26/11 के आतंकी हमले में अपनी भूमिका का सामना करने के लिए तहव्वुर राणा को भारत में प्रत्यर्पित किया जाना मीडिया में बड़ी खबर है। कोई भी गंभीरता से यह उम्मीद कर सकता है कि 26/11 के हमलों के लिए मुकदमे का सामना करने वाले एकमात्र दूसरे संदिग्ध (पहला अजमल कसाब था) की गिरफ्तारी के साथ इस साजिश में अन्य महत्वपूर्ण लिंक, आतंकवादी समूहों द्वारा निभाई गई भूमिका और पूरे ऑपरेशन को पाकिस्तानी प्रतिष्ठान से प्राप्त समर्थन को बेनकाब किया जाएगा।
बेशक, यह मान लेना जल्दबाजी होगी कि इस गिरफ्तारी से 26/11 के नृशंस आतंकवादी हमलों का पटाक्षेप हो जाएगा। हम अभी भी इस संभावना से बहुत दूर हैं कि हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद और उसके साथियों पर पाकिस्तान में मुकदमा चलाया जाएगा या उन्हें भारत प्रत्यर्पित किया जाएगा।
अभी तक इस बात का कोई सुराग नहीं है कि तहव्वुर राणा के करीबी दोस्त डेविड हेडली को भारत में कभी मुकदमे का सामना करना पड़ेगा या नहीं, जिसे इस आतंकी हमले का मुख्य साजिशकर्ता माना जाता है। वास्तव में, यह अभी भी एक रहस्य है कि अमेरिका ने उसके साथ क्या सौदा किया है, जिसके कारण अमेरिका ने उससे वादा किया है कि उसे भारत को प्रत्यर्पित नहीं किया जाएगा।
इस तथ्य को देखते हुए कि इस हमले से संबंधित कई प्रासंगिक तथ्य धीरे-धीरे भुला दिए जा रहे हैं, यह याद दिलाना जरूरी है कि 26/11 का हमला खूंखार संगठन लश्कर-ए-तैयबा का काम था। पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) और पाकिस्तानी सुरक्षा प्रतिष्ठान के अधिकारियों द्वारा प्रशिक्षित दस सशस्त्र आतंकवादियों ने 26 नवंबर, 2008 को मुंबई में 12 स्थानों पर समन्वित आतंकवादी हमले किए थे। पाकिस्तानी पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने सबसे पहले औपचारिक रूप से स्वीकार किया कि एकमात्र आतंकवादी कसाब, जिसे जिंदा पकड़ा गया था, पाकिस्तान के एक गांव का था और पाकिस्तानी नागरिक समाज के कुछ वर्गों ने कसाब की पहचान करने के लिए अपने शासकों के क्रोध का जोखिम उठाया। अजमल कसाब को बाद में 2012 में पुणे की जेल में फांसी पर लटका दिया गया था।
यह बात हास्यास्पद लगती है कि इस प्रत्यर्पण को सत्तारूढ़ दल की बड़ी जीत के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।
इस घटनाक्रम से सरकार के समर्थक काफी उत्साहित हैं, जिन्हें काफी समय तक इसलिए चुप रहना पड़ा है, क्योंकि मोदी सरकार को अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप के अनुमोदन के बाद अपने कायरतापूर्ण व्यवहार के लिए विपक्ष की कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ रहा था। ‘अवैध प्रवासियों’ को भारत में वापस भेजने के अपमानजनक तरीके पर सरकार की चुप्पी या स्वीकृति से लेकर ट्रंप द्वारा शुरू किए गए नए टैरिफ युद्ध पर उसकी मौन प्रतिक्रिया और यहां तक कि टैरिफ को खुद कम करने की उसकी तत्परता — यह सब कुछ मीडिया की दुनिया में भी जांच के दायरे में आ गया था।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि पूर्ववर्ती कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान शुरू की गई कानूनी प्रक्रिया और उच्च स्तर पर की गई जांच के बिना यह प्रत्यर्पण असंभव होता। यूपीए सरकार में तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम ने प्रत्यर्पण पर टिप्पणी करते हुए जो कहा, वह विचारणीय है। यह इस बात का प्रमाण है कि “जब कूटनीति, कानून प्रवर्तन और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग ईमानदारी से और बिना किसी तरह की छाती ठोके किया जाता है, तो भारतीय राज्य क्या हासिल कर सकता है,” और यह किसी दिखावे का मामला नहीं हो सकता।
संक्षेप में कहें तो मोदी सरकार इस प्रत्यर्पण पर जिस तरह से प्रतिक्रिया कर रही है, उसमें दो बड़ी खामियां हैं।
पहली, चयनात्मक भूल है। पिछली यूपीए सरकार द्वारा इस मामले से निपटने के तरीके के बारे में, जिसने – अपराधियों और मास्टरमाइंड को पकड़ने के लिए कानूनी प्रक्रिया शुरू की थी।
तत्कालीन गृह सचिव श्री जी के पिल्लई – जिन्होंने तत्कालीन यूपीए सरकार की ओर से अमेरिका में मुंबई आतंकवादी हमले का मामला भी संभाला था – ने ‘द हिंदू’ को दिए एक साक्षात्कार में जो कुछ साझा किया, उसे शायद विस्तार से बताने की जरूरत है। उन्होंने खुलासा किया कि आतंकी योजना के बारे में जानने के बावजूद, अमेरिका ने राणा के स्कूली दोस्त और मुख्य साजिशकर्ता डेविड कोलमैन हेडली को उसकी ‘भारत विरोधी गतिविधियां’ जारी रखने दी ; और 2009 में उसकी गिरफ्तारी के बाद, अमेरिकियों ने उसे सौदेबाजी की पेशकश करके भारत में उसके प्रत्यर्पण को रोक दिया। उनके नेतृत्व में की गई जांच के अनुसार, पूरे ऑपरेशन में “तहव्वुर राणा एक छोटा-सा खिलाड़ी था।”
दूसरा, इस बड़ी जीत का श्रेय लेने और पिछली कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार पर कालिख पोतने के अपने अदूरदर्शी प्रयासों के चलते भाजपा सरकार न तो मामले की गहरी बारीकियों के बारे में बताने के लिए तैयार है और न ही दोषियों को सजा दिलाने में अमेरिकी सरकार की कोई दिलचस्पी न होने और उन्हें बरी करने के ‘बुरे इरादे’ से काम करने के तरीके के बारे में बात करने के लिए तैयार है। आज यह विश्वास करना काफी मुश्किल होगा कि आतंकवाद से लड़ने और ऐसे हमलों के पीड़ितों को मदद करने की अपनी घोषणाओं के बावजूद अमेरिकी प्रतिष्ठान ने भारतीय एजेंसियों को हेडली तक पहुंचने देने से इंकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई, इस दिखावटी दलील के साथ कि लश्कर-ए-तैयबा का यह षडयंत्रकारी (जैसा कि अमेरिका ने खुद दावा किया है) “…भारतीय जांचकर्ताओं द्वारा पूछताछ का सामना नहीं करना चाहता है..।”
पीटीआई द्वारा जारी और रेडिफ.कॉम द्वारा प्रस्तुत (15 दिसम्बर, 2009) एक रिपोर्ट में बताया गया है कि “अपनी चर्चा के दौरान, एफबीआई अधिकारियों ने भारतीय जांचकर्ताओं को बताया कि हेडली भारतीय जांचकर्ताओं द्वारा पूछताछ का सामना नहीं करना चाहता है, जिससे यह संदेह पैदा होता है कि अमेरिकी एजेंसी ही चाहती है कि भारत उससे पूछताछ न करे।”
कोई भी देश, जो बाकी दुनिया में आतंकवादी गतिविधियों और उनके कारण होने वाली निर्दोष लोगों की जान के बारे में चिंतित है, वह निश्चित रूप से अमेरिकी सरकार के रुख से हैरान होगा। अगर हेडली वास्तव में लश्कर-ए-तैयबा का सदस्य था, तो क्या यह अधिक तर्कसंगत नहीं था कि उससे पूछताछ किया जाए, ताकि 26/11 हमले की पूरी कहानी में कुछ कमियों को उजागर किया जा सके और साथ ही इससे इस संगठन के अखिल भारतीय नेटवर्क का पता लगाने में मदद मिल सकती थी ; खास तौर से इस तथ्य को देखते हुए कि हेडली ने खुद पुणे में जर्मन बेकरी का सर्वेक्षण किया था। बेशक, अमेरिका ने भारत से जांचकर्ताओं की एक टीम के सामने अपने इरादे स्पष्ट कर दिए थे, जो इस उम्मीद से वहां गए थे कि उन्हें हेडली तक आसानी से पहुंच मिल जाएगी और जब अमेरिका ने कुछ तकनीकी कठिनाइयों को उठाते हुए उनके अनुरोध को स्वीकार करने से साफ इंकार कर दिया, तो उन्होंने खुद को बेवकूफी में पड़े पाया।
आखिरकार अमेरिकी सरकार, जिसने दुनिया के किसी भी हिस्से से आतंकवाद के संदिग्धों को असाधारण तरीके से प्रत्यर्पित करने की प्रथा को ‘सिद्धहस्त’ कर लिया है और जिसने ग्वांतानामो और बगराम की तर्ज पर दुनिया भर में गुप्त जेलों का निर्माण किया है, जिसमें बंदियों को हर तरह के मानवाधिकार से वंचित किया जाता है, वह भारत में हाल के समय में हुए सबसे बड़े आतंकवादी हमले के एक प्रमुख खिलाड़ी तक भारतीय जांचकर्ताओं को पहुंच प्रदान करने में ‘तकनीकी कठिनाइयों’ के कारण विवशता महसूस क्यों कर रही है? अमेरिकी सरकार की कार्रवाई में या हेडली को सौंपने में काल्पनिक ‘तकनीकी कठिनाइयां’ होने की बात करने में कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
अमेरिका के इतिहास पर सरसरी निगाह डालने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि वह खुद भी कई बार इसी तरह के कपटपूर्ण व्यवहार में लिप्त रहा है। सार्वभौमिक भाईचारे/बहनापे के सिद्धांतों की प्रशंसा करते हुए इसने हर मामले में जो निर्णय लिए हैं, उसमें मुख्य चीज यही रहा है कि अमेरिका के हितों को बेहतर ढंग से कौन-सा कारक पूरा करता है। इसने इजरायली गुप्त सेवा मोसाद के गुप्त अभियानों को बेशर्मी से समर्थन दिया है, जहां इसने खुद को सूचना एकत्र करने वाले के बजाय अंतर्राष्ट्रीय हत्यारे के रूप में पेश किया है। क्यूबा-अमेरिकी आतंकवादी पोसाडा कैरिल्स का बहुचर्चित मामला, जिसने एक नागरिक विमान को उड़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और जिसमें 73 लोग मारे गए थे, इसका एक उदाहरण है।
शायद दुनिया के बहुत कम लोगों ने अमेरिका में क्यूबा से आए पोसाडा कैरिल्स के बारे में सुना होगा। वास्तव में वह लगभग 40 वर्षों तक सीआईए के वेतन पर था, और उन सभी ‘गंदे कामों’ में लगा हुआ था, जो अमेरिकी खुफिया एजेंसी उससे करवाना चाहती थी। 1960 में वह सीआईए ऑपरेशंस 40 में शामिल हो गया था, जो शार्पशूटरों से बना था, जिसका काम क्यूबा की सरकार के नेताओं की हत्या करना था। 70 के दशक की शुरुआत में उसे सीआईए द्वारा पर्याप्त मात्रा में बम बनाने की सामग्री के साथ वेनेजुएला के कराकास भेजा गया था। 1975 में उसने एक अलग संगठन (वास्तव में एक सीआईए खोल) खोला और एक नागरिक क्यूबाई विमान के शौचालय में बम रखकर नागरिक विमान पर बमबारी की योजना बनाई, जो 6 अक्टूबर 1976 बारबाडोस से हवाना के लिए रवाना होने के बाद हवा में ही फट गया, जिससे उसमें सवार सभी 73 नागरिक मारे गए। सीआईए, एफबीआई और विदेश विभाग की रिपोर्टों के हाल ही में सार्वजनिक किए गए अंशों से पोसाडा की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका की पुष्टि होती है। इसके बाद भी उसने अपनी आतंकवादी गतिविधियां जारी रखीं और अंततः वर्ष 2000 में पनामा सिटी में अपनी कार में 37 पाउंड सी-4 विस्फोटक के साथ पकड़ा गया। उसका इरादा एक स्थानीय विश्वविद्यालय में दिए जाने वाले भाषण में कास्त्रो और सैकड़ों छात्रों को मारने का था।
पोसाडा के खूनी करियर पर सरसरी निगाह डालने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि अमेरिकी प्रतिष्ठान के शीर्ष अधिकारियों ने उसे बचाने के लिए हर संभव प्रयास किया था। यह जानना दिलचस्प है कि इस तथ्य के बावजूद कि उसे दोषी ठहराया गया था और उसने अपना अपराध कबूल कर लिया था, अमेरिकी सरकार ने उसे बचाया था।
डेविड हेडली की बात करें, तो अब यह स्पष्ट करने की जरूरत है कि अमेरिकी सरकार ने हेडली को भारतीय जांच एजेंसियों को न सौंपकर ‘अजीब व्यवहार’ क्यों किया।
सबसे पहले हम हेडली नामक व्यक्ति पर नज़र डालते हैं। हमें बताया गया है कि उसके पिता एक पाकिस्तानी मुस्लिम थे और माँ एक अमेरिकी थीं और उसका असली नाम दाउद गिलानी था। बाद में वह अमेरिका चला गया, जहाँ उसे 1998 में ड्रग से संबंधित आरोपों में पकड़ा गया, दोषी ठहराया गया और जेल भेज दिया गया। उसे 9/11 के बाद रिहा कर दिया गया और ड्रग प्रवर्तन प्रशासन के लिए एक अंडरकवर एजेंट के रूप में काम करने के लिए भेज दिया गया। उसे उसके असली नाम दाउद गिलानी के बजाय डेविड हेडली (उसकी अमेरिकी माँ का पहला नाम हेडली है) के अमेरिकी नाम से एक नया पासपोर्ट दिया गया। उसने दुनिया भर में उड़ान भरी। अपनी मर्जी से वह इस तरह से अमेरिका में आता और जाता रहा कि अमेरिकी हवाई अड्डों पर लोगों की नज़र एक दोषी ड्रग अपराधी पर न पड़े।
दरअसल जब हेडली को पहली बार गिरफ्तार किया गया था, तब अमेरिकियों ने घोषणा की थी कि उन्होंने डेनमार्क के एक कार्टूनिस्ट की हत्या की साजिश को नाकाम कर दिया है। जब और अधिक जानकारी सामने आई, तो पता चला कि संदिग्ध आतंकवादी पाकिस्तानी मूल का एक अमेरिकी नागरिक था, उसके लश्कर से कुछ संबंध थे और वह भारत आया था और संभवतः 26/11 के लिए गठित एक दल का हिस्सा था। इस ‘दोहरी पहचान’ ने निश्चित रूप से उन्हें भारत की खुफिया जांच के दायरे में आने से बचा लिया।
वास्तव में, भारत में मुख्यधारा के मीडिया चैनलों ने तब यह मुद्दा उठाया था, जब अक्टूबर 2009 में हेडली के अमेरिका में पकड़े जाने की खबर आई थी। सीएनएन-आईबीएन के सुमन के. चक्रवर्ती ने अपनी टिप्पणी (क्या डेविड हेडली एक डबल एजेंट था? : 15 दिसंबर, 2009 को प्रकाशित) में स्पष्ट रूप से यह प्रश्न उठाया था :
नई दिल्ली : डेविड कोलमैन हेडली आखिर कौन है? क्या वह सिर्फ लश्कर-ए-तैयबा का एक ऑपरेटिव है? नए सबूतों से पता चलता है कि वह एक डबल एजेंट हो सकता है — जो अमेरिका के ड्रग एन्फोर्समेंट एडमिनिस्ट्रेशन की संदिग्ध खुफिया इकाई के लिए काम करने के बाद बदमाश बन गया है। 9/11 के बाद अमेरिका को कड़ी सुरक्षा व्यवस्था में रखा गया था, लेकिन हेडली — जिसे मूल रूप से दाऊद गिलानी के नाम से जाना जाता था और जो पाकिस्तानी मूल का एक अपराधी था — स्पष्ट रूप से आसानी से अमेरिका और पाकिस्तान के बीच आता-जाता था। इस संबंध ने अब कई असहज सवाल खड़े कर दिए हैं।
‘द हिंदू’ (16 दिसंबर, 2009) में इस मुद्दे पर लिखते हुए विनय कुमार ने भी कुछ ऐसा ही सवाल उठाया था : ‘डेविड हेडली, एक डबल एजेंट?’
नई दिल्ली : पाकिस्तानी मूल का अमेरिकी नागरिक डेविड कोलमैन हेडली, जो 26/11 के मुंबई आतंकी हमलों में अपनी कथित भूमिका के लिए वैश्विक आतंकवाद की जांच के केंद्र में है, संभवतः एक “डबल एजेंट” रहा होगा जो अमेरिकी एजेंसियों के साथ-साथ लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) जैसे पाकिस्तानी आतंकी संगठनों के लिए भी काम कर रहा था।
मंगलवार को केंद्रीय गृह मंत्रालय के शीर्ष अधिकारियों ने बताया कि हेडली 26/11 के चार महीने बाद मार्च 2009 में भारत आया था, लेकिन एफबीआई समेत अमेरिकी एजेंसियों ने अपने भारतीय समकक्षों को इस बारे में सचेत या सूचित नहीं किया, क्योंकि इससे उसे यहां गिरफ्तार किया जा सकता था। जांच में यह भी पता चला कि हेडली पिछले साल मार्च में अपनी पत्नी के साथ भारत आया था।
अधिकारियों ने कहा कि राष्ट्रव्यापी जांच के आधार पर इस बात का “पक्का संदेह” है कि सीआईए को 26/11 से एक साल पहले हेडली के लश्कर-ए-तैयबा से संबंधों के बारे में पता था, लेकिन उसने भारतीय एजेंसियों को इसकी जानकारी नहीं दी, क्योंकि इससे हेडली की गतिविधियों का पर्दाफाश हो सकता था। मुंबई हमलों में कथित भूमिका के लिए उसे 3 अक्टूबर को एफबीआई ने शिकागो में गिरफ्तार किया था।
उच्च पदस्थ सरकारी सूत्रों ने कहा कि अगर अमेरिकी अदालत में उसे कम सज़ा दी जाती है, तो इससे भारत का यह संदेह और मजबूत होगा कि वह “डबल एजेंट” है। ऐसी सज़ा उसके और अमेरिकी एजेंसियों के बीच अदालत के सामने “प्ली बारगेन” की प्रक्रिया के ज़रिए भी दी जा सकती है।
डेविड हेडली मामले पर शायद सबसे विस्फोटक लेख हिंदुस्तान टाइम्स में 20 दिसंबर 2009 में छपा था। वीर सांघवी ने अपने विचारोत्तेजक लेख ‘क्या अमेरिका ने 26/11 हमलों पर चुप्पी साधी?’ में महत्वपूर्ण बिंदु उठाए हैं कि …अमेरिका 26/11 के इस संदिग्ध आरोपी का इतना सम्मान क्यों करता है?
एकमात्र स्पष्टीकरण जो सही बैठता है, वह यह है : वह शुरू से ही एक अमेरिकी एजेंट था। अमेरिका ने उसे तभी गिरफ्तार किया, जब लगा कि भारतीय जांचकर्ता उसके पीछे पड़े हैं। उसे जेल की सजा सुनाई जाएगी, कुछ समय के लिए वह अमेरिकी जेल प्रणाली में गायब हो जाएगा और फिर से पकड़ा जाएगा – जैसा कि पिछली बार हुआ था।
तहव्वुर राणा का सफल प्रत्यर्पण निश्चित रूप से इन सभी सवालों के जवाब मांगने की हमारी मांग को और अधिक जरूरी बनाता है। क्या मोदी सरकार इन सभी सवालों का जवाब इसी तरह की तत्परता से देने का साहस जुटा पाएगी।
राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विपरीत परिस्थितियों का सामना करने पर चुप रहने के अपने ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए, सत्तारूढ़ दल की ओर से इस तरह का स्पष्ट दृष्टिकोण असंभव लगता है। वास्तव में यह प्रत्यर्पण छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने, युवाओं को सम्मानजनक नौकरियां देने, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने या पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में भड़की जातीय आग को बुझाने में अपनी पूरी तरह से असमर्थता से ध्यान हटाने के लिए एक सुविधाजनक चाल बन गया है।
कांग्रेस के एक युवा नेता ने सही कहा कि यह प्रत्यर्पण “कोई कूटनीतिक सफलता नहीं है, बल्कि जनता का ध्यान भटकाने के लिए भाजपा की एक चाल है।
(‘द हिंदू से साभार। लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।
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