23 मार्च यानि, देश के लिए लड़ते हुए अपने प्राणों को हंसते-हंसते न्यौछावर करने वाले तीन वीर सपूतों का शहीद दिवस। यह दिवस न केवल देश के प्रति सम्मान और हिंदुस्तानी होने वा गौरव का अनुभव कराता है, बल्कि वीर सपूतों के बलिदान को भीगे मन से श्रृद्धांजलि देता है। उन अमर क्रांतिकारियों के बारे में आम मनुष्य की वैचारिक टिप्पणी का कोई अर्थ नहीं है। उनके उज्ज्वल चरित्रों को बस याद किया जा सकता है कि ऐसे मानव भी इस दुनिया में हुए हैं, जिनके आचरण किंवदंति हैं। भगतसिंह ने अपने अति संक्षिप्त जीवन में वैचारिक क्रांति की जो मशाल जलाई, उनके बाद अब किसी के लिए संभव न होगी। ‘आदमी को मारा जा सकता है उसके विचार को नहीं। बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज जरूरी है। ‘ बम फेंकने के बाद भगतसिंह द्वारा फेंके गए पर्चों में यह लिखा था। भगतसिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून-खराबा न हो तथा अंग्रेजों तक उनकी आवाज पहुंचे। निर्धारित योजना के अनुसार भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय असेम्बली में एक खाली स्थान पर बम फेंका था। इसके बाद उन्होंने स्वयं गिरफ्तारी देकर अपना संदेश दुनिया के सामने रखा। उनकी गिरफ्तारी के बाद उन पर एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जेपी साण्डर्स की हत्या में भी शामिल होने के कारण देशद्रोह और हत्या का मुकदमा चला। यह मुकदमा भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में लाहौर षड्यंत्र के नाम से जाना जाता है। करीब 2 साल जेल प्रवास के दौरान भी भगतसिंह क्रांतिकारी गतिविधियों से भी जुड़े रहे और लेखन व अध्ययन भी जारी रखा। फांसी पर जाने से पहले तक भी वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। भगतसिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को हुआ था और 23 मार्च 1931 को शाम 7.23 पर भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी दे दी गई। शहीद सुखदेव :सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907 को पंजाब को लायलपुर पाकिस्तान में हुआ। भगतसिंह और सुखदेव के परिवार लायलपुर में पास-पास ही रहने से इन दोनों वीरों में गहरी दोस्ती थी, साथ ही दोनों लाहौर नेशनल कॉलेज के छात्र थे। सांडर्स हत्याकांड में इन्होंने भगतसिंह तथा राजगुरु का साथ दिया था। शहीद राजगुरु :24 अगस्त, 1908 को पुणे जिले के खेड़ा में राजगुरु का जन्म हुआ। शिवाजी की छापामार शैली के प्रशंसक राजगुरु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से भी प्रभावित थे। पुलिस की बर्बर पिटाई से लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए राजगुरु ने 19 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह के साथ मिलकर लाहौर में अंग्रेज सहायक पुलिस अधीक्षक जेपी सांडर्स को गोली मार दी थी और खुद ही गिरफ्तार हो गए थे। 23 मार्च ‘भगतसिंह, सुखदेव व राजगुरू’ का बलिदानी-दिवस होता है। उन्हीं की समृति में यहां शहीदी-दिवस को समर्पित विशेष सामग्री प्रकाशित की गई है। 23 मार्च 1931 की रात भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की देश-भक्ति को अपराध की संज्ञा देकर फाँसी पर लटका दिया गया। कहा जाता है कि मृत्युदंड के लिए 24 मार्च की सुबह तय की गई थी लेकिन किसी बड़े जनाक्रोश की आशंका से डरी हुई अँग्रेज़ सरकार ने 23 मार्च की रात्रि को ही इन क्रांति-वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी। रात के अँधेरे में ही सतलुज के किनारे इनका अंतिम संस्कार भी कर दिया गया। ‘लाहौर षड़यंत्र’ के मुक़दमे में भगतसिंह को फाँसी की सज़ा दी गई थी तथा केवल 24 वर्ष की आयु में ही, 23 मार्च 1931 की रात में उन्होंने हँसते-हँसते, ‘इनक़लाब ज़िदाबाद’ के नारे लगाते हुए फाँसी के फंदे को चूम लिया। भगतसिंह युवाओं के लिए भी प्रेरणा स्रोत बन गए। वे देश के समस्त शहीदों के सिरमौर थे। अमर शहीद भगतसिंह का जन्म- 27 सितंबर, 1907 को बंगा, लायलपुर, पंजाब (अब पाकिस्तान में) हुआ था व 23 मार्च, 1931 को इन्हें दो अन्य साथियों सुखदेव व राजगुरू के साथ फांसी दे दी गई। भगतसिंह का नाम भारत के सवतंत्रता संग्राम में अविस्मरणीय है। भगतसिंह देश के लिये जीये और देश ही के लिए शहीद भी हो गए। # 24 अगस्त, 1908 को पुणे ज़िले के खेड़ा गाँव (जिसका नाम अब ‘राजगुरु नगर’ हो गया है) में पैदा हुए शहीद राजगुरु का पूरा नाम ‘शिवराम हरि राजगुरु’ था। आपके पिता का नाम ‘श्री हरि नारायण’ और माता का नाम ‘पार्वती बाई’ था। भगत सिंह और सुखदेव के साथ ही राजगुरु को भी 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई थी। राजगुरु ‘स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं उसे हासिल करके रहूंगा’ का उद्घोष करने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से अत्यधिक प्रभावित थे। # सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907, पंजाब में हुआ था। 23 मार्च, 1931 को सेंट्रल जेल, लाहौर में भगतसिंह व राजगुरू के साथ इन्हें भी फांसी दे दी गई। सुखदेव का नाम भारत के अमर क्रांतिकारियों और शहीदों में गिना जाता है। आपने अल्पायु में ही देश के लिए जान कुर्बान कर दी। सुखदेव का पूरा नाम ‘सुखदेव थापर’ था। इनका नाम भगत सिंह और राजगुरु के साथ जोड़ा जाता है और इन तीनों की तिकड़ी भारत के इतिहास में सदैव याद रखी जाएगी। तीनों देशभक्त क्रांतिकारी आपस में अच्छे मित्र थे और देश की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वत्र न्यौछावर कर देने वालों में से थे। 23 मार्च, 1931 को भारत के इन तीनों वीर नौजवानों को एक साथ फ़ाँसी दी गई और 23 मार्च को ‘शहीदी-दिवस के रुप में याद किया जाता है…!!(8 अप्रैल, सन् 1929 को असेम्बली में बम फैंकने पर लिखी यह अज्ञात रचनाकार की रचना) डरे न कुछ भी जहां की चला-चली से हम, गिरा के भागे भी न बम असेंबली से हम। उड़ाए फिरता था हमको खयाले-मुस्तकबिल (भविष्य का विचार) कि बैठ सकते न थे दिल की बेकली से हम। हम इंकलाब की कुरबानगह (बलीवेदी) पे चढ़ते हैं, कि प्यार करते हैं ऐसे महाबली से हम। जो जी में आए तेरे, शौक से सुनाए जा, कि तैश खाते नहीं हैं कटी-जली से हम। न हो तू चींबजबीं (क्रुद्ध), तिवरियों पे डाल न बल, चले-चले ओ सितमगर, तेरी गली से हम। – अज्ञात साभार – जब्तशुदा तराने
(8 अप्रैल, सन् 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा असेम्बली में बम फैंका गया था) भारत की राजधानी देहली में सेन्ट्रल असेम्बली का अधिवेशन चल रहा था, पब्लिक सेफ्टी बिल पेश हुआ, बहस हुई, वोट लिए गए। एकाएक भवन में एक धमाका हुआ और धुआँ छा गया। बड़े-बड़े अधिकारी भागते दिखाई दिए, सभा-भवन सूना हो गया। आधे घंटे बाद पुलिस सदल पहुँची और दो नवयुवक जो गैलरी में खड़े थे बम फैंकने के अपराध में गिरफ्तार कर लिए गए। भारत-माता के यह दो सपूत थे – भगतसिंह और बटुकेश्वरदत्त। गिरफ़्तारी के बाद सरकार की ओर से कहा गया कि यह दोनों नवयुवक न केवल असेम्बली बम कांड के अभियुक्त हैं बल्कि लाहौर सांडर्स हत्याकांड के भी अभियुक्त हैं। सीधे और भोले दिखाई देने वाले यह युवक खूनी और हत्यारे हैं। जनता को इनसे कोई सहानुभूति नहीं होनी चाहिए। जनता ने उत्तर में कहा- ‘बी. के. दत्त ज़िदाबाद’ ‘भगतसिंह ज़िदाबाद’ बच्चा-बच्चा गर्ज उठा -“बी. के. दत्त ज़िदाबाद!””भगतसिंह ज़िदाबाद!””इन्कलाब ज़िदाबाद!”8 अप्रैल, सन् 1929 को असेम्बली में बम फैंकने के बाद भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा बाँटे गए अँग्रेज़ी परचे का हिंदी अनुवाद) ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना’ सूचना ‘बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊँची आवाज की आवश्यकता होती है’, प्रसिद्ध फ़्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलियाँ के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं। पिछले दस सालों में ब्रिटिश सरकार ने शासन-सुधार के नाम पर इस देश का जो अपमान किया है उसकी कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं है और न ही हिंदुस्तानी पार्लियामेंट पुकारे जाने वाली इस सभा ने भारतीय राष्ट्र के सिर पर पत्थर फेंक कर उसका जो अपमान किया है, उसके उदाहरणों को याद दिलाने की आवश्यकता है। यह सब सर्वविदित और स्पष्ट है। आज फिर जब लोग ‘साइमन कमीशन’ से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आंखें फैलाए हैं और इन टुकड़ों के लोभ में आपस में झगड़ रहे हैं, विदेशी सरकार ‘सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक’ (पब्लिक सेफ्टी बिल) और ‘औद्यौगिक विवाद विधेयक’ (ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल) के रूप में अपने दमन को और भी कड़ा कर लेने का यत्न कर रही है। इसके साथ ही आने वाले अधिवेशन में ‘अख़बारों द्वारा राजद्रोह रोकने का क़ानून’ (प्रेस सैडिशन एक्ट) जनता पर कसने की भी धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करने वाले मजदूर नेताओं की अंधाधुंध गिरफ्तारियाँ यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैये पर चल रही है। राष्ट्रीय दमन और अपमान की इस उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति में उत्तरदायित्व की गंभीरता को महसूस कर ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ’ ने अपनी सेना को यह कदम उठाने की आज्ञा दी है। इस कार्य का प्रयोजन है कि क़ानून का यह अपमानजनक प्रहसन समाप्त कर दिया जाए। विदेशी शोषक नौकरशाही जो चाहे करे परंतु उसकी वैधानिकता की नकाब फाड देना आवश्यक है। जनता के प्रतिनिधियों से हमारा अनुरोध है कि वे इस पार्लियामेंट के पाखंड को छोडकर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में लौट जाएं और जनता को विदेशी दमन और शोषण के खिलाफ क्रान्ति के लिए तैयार करें। हम विदेशी सरकार को यह बतला देना चाहते हैं कि हम ‘सार्वजनिक सुरक्षा’ और ‘औद्यौगिक विवाद’ के दमनकारी क़ानूनों और लाला लाजपतराय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं। हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्ज्वल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शांति और स्वतंत्रता का अवसर मिल सके। हम इनसान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परंतु क्रान्ति द्वारा सबको समान स्वतंत्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रान्ति में कुछ न कुछ रक्तपात अनिवार्य है।
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