रिपोर्ट : राजेंद्र शर्मा
आरएसएस के सर-संघचालक यानी सुप्रीमो के राजधानी दिल्ली में मस्जिद/मदरसे का पिछले ही दिनों दौरा करने और आल इंडिया इमाम आर्गनाइजेशन के प्रमुख से तथा मदरसे में पढऩे वाले बच्चों से भी ‘‘संवाद’’ करने से खबरों में सुर्खियां तो बननी ही थीं। आखिरकार यह पहली ही बार है, जब आरएसएस के किसी सर-संघचालक ने मस्जिद/मदरसे में जाने की जरूरत समझी है। आरएसएस की स्थापना के बाद, करीब सत्तानवे साल तक ही नहीं, आजादी के बाद पूरे पचहत्तर साल हो जाने तक, किसी संघ-प्रमुख को ऐसा प्रत्यक्ष ‘‘संवाद’’ कायम करने की जरूरत महसूस नहीं हुई थी। जैसे आरएसएस को मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय की ओर इस तरह ‘‘दोस्ती का हाथ’’ बढ़ाने के लिए कथित अमृतकाल के शुरू होने का ही इंतजार था!
लेकिन, भागवत के इस दौरे तथा इस दौरे के क्रम में तथा उसके गिर्द मुस्लिम बुद्घिजीवियों के साथ उनके ‘‘संवाद’’ को क्या सचमुच, मोदी के राज में एक प्रकार से चौतरफ़ा घेराव में डाल दिए गए मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय की ओर आरएसएस के ‘‘दोस्ती का हाथ’’ बढ़ाने के इशारे के तौर पर लिया जा सकता है? और वास्तव में, जैसाकि वरिष्ठ पत्रकार मोहम्मद असीम ने ध्यान दिलाया है, क्या इसे वाकई ‘‘संवाद’’ कहा भी जा सकता है! मुख्यधारा के मीडिया में इस पूरे प्रकरण को उछाल कर जिस तरह की छवि बनाने की कोशिश की गयी है उसके विपरीत, इस सवाल का जवाब एक दो-टूक “नहीं” ही हो सकता है।
लेकिन, इस जवाब के अपने कारणों का खुलासा करने से पहले, एक छोटा सा रीएलिटी चैक उपयोगी रहेगा। आरएसएस सुप्रीमो का यह पहला मस्जिद/मदरसा दौरा ठीक उस समय हुआ है, जब भाजपा की सरकारों की बुलडोजर कार्रवाइयों के बाद या साथ-साथ, अब मुसलमानों द्वारा संचालित मदरसे भी उनकी मुस्लिमविरोधी ‘वीरता’ के खास निशाने पर हैं। इस बार यह खेल, तमाम मदरसों के सर्वे के नाम पर हो रहा है। पहले उत्तर प्रदेश, फिर असम और अब उत्तराखंड में, मदरसों के सर्वे का दौर-दौरा जारी है। बेशक, इसके लिए मदरसों में पढऩे वाले बच्चों के हितों की दुहाई दी जा रही है। लेकिन असली मकसद क्या है, यह असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिश्व सरमा ने, जो संघ परिवार का नया-नया दीक्षित होने के कारण कुछ ज्यादा ही मुंहफट हैं, यह कहकर उजागर कर दिया है कि इन मदरसों में क्या गतिविधियां चल रही हैं, यह जानना बहुत जरूरी है! संक्षेप में यह कि भागवत जिस संगठन के सुप्रीमो हैं, उसी के राजनीतिक बाजू – भाजपा – द्वारा नियंत्रित शासन द्वारा इन मदरसों की जांच को, मुस्लिम समुदाय को कमतर होने का एहसास कराने के, एक और तथा नये औजार के रूप में आजमाया जा रहा है।
बहरहाल, भागवत की ताजा पहल या पैंतरे पर लौटें। संघ प्रमुख के इस पहले मस्जिद/मदरसा दौरे के लिए हवा बनाने के लिए, इसकी पूर्व-संध्या में अचानक पांच जाने-माने मुस्लिम बुद्घिजीवियों के साथ, उनकी मुलाकात की खबर मीडिया में प्रकट हो गयी। हालांकि, इन मुस्लिम बुद्घिजीवियों के साथ भागवत की उक्त बातचीत, करीब महीने भर पहले, अगस्त के महीने में किसी समय हुई थी, पर उस समय न संबंधित बुद्घिजीवियों द्वारा मीडिया में इस मुलाकात की खबर देने की जरूरत समझी गयी थी और न आरएसएस की ओर से इसकी खबर दी गयी थी। लेकिन, मस्जिद/मदरसा दौरे से ऐन पहले, यह खबर अचानक धमाके के साथ प्रकट हो गयी, जिससे संघ प्रमुख के इस कदम को, मुसलमानों से संवाद की एक व्यवस्थित कोशिश तथा एक रुझान की तरह पेश करने में आसानी हो। इसकी जरूरत इसलिए और भी ज्यादा थी कि संघ प्रमुख के मस्जिद/मदरसा दौरे की शुरूआत, इमामों के आल इंडिया संगठन के अध्यक्ष डा0 उमर अहमद इलियासी के साथ, मध्य दिल्ली में कस्तूरबा गांधी मार्ग पर स्थित मस्जिद में मुलाकात से होनी थी। इसी मुलाकात के दौरान इलियासी ने भागवत को ‘‘राष्ट्रपिता’’ का खिताब दिया था, हालांकि आरएसएस की ओर से दिए गए विवरण के अनुसार, भागवत ने इस प्रस्ताव को यह कहते हुए विनम्रता से अस्वीकार कर दिया था कि “राष्ट्रपिता” तो एक ही काफी हैं, हम राष्ट्रपुत्र हैं!
भागवत के इस बहुप्रचारित दौरे की पृष्ठभूमि बनने से पहले तक अप्रचारित ही बनी रही उक्त बातचीत में मुस्लिम बुद्घिजी,वियों का शामिल होना, शायद संघ समर्थकों व अनुयाइयों के लिए, इमामों के संगठन के प्रमुख के साथ मुलाकात को निगलना कहीं आसान बनाता था। आखिर, इससे यह छवि बनती है कि संघ प्रमुख, मुसलमानों के राय बनाने वाले, धार्मिक-गैरधार्मिक, सभी नेताओं से संवाद करना चाहते हैं। लेकिन, यह मानने के लिए किसी को भी जरूरत से ज्यादा भोला होना पड़ेगा कि संघ प्रमुख के मुसलमानों के साथ ऐसे प्रत्यक्ष संवाद की जरूरत महसूस करने का, मौजूदा हालात और खासतौर पर राजनीतिक-सामाजिक हालात के तकाजों से कोई संबंध ही नहीं है और यह आरएसएस की अपनी ही स्वतंत्र विकास प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसके दावों के साथ कुछ बुद्घिजीवियों ने तो इसमें आरएसएस के सांप्रदायिक सद्भाव केे लिए ज्यादा से ज्यादा चिंतित होने भी लक्षण खोजने शुरू कर दिए हैं। वर्ना न सिर्फ एक पैकेज के हिस्से के तौर पर पेश करने के लिए, मुस्लिम बुद्घिजीवियों के साथ उक्त मुलाकात को महीने भर तक गोपनीय बनाए रखने का कोई कारण नहीं बनता था, बल्कि उन पांच बुद्घिजीवियों में शामिल, पत्रकार शाहिद सिद्दीकी द्वारा मीडिया में दी गयी जानकारी के अनुसार, उक्त बातचीत के लिए भागवत से समय मिलते-मिलते, करीब महीने भर का समय भी नहीं लगा होता।
सिद्घीकी द्वारा मीडिया में दिए गए ब्यौरे के अनुसार तो, नूपुर शर्मा प्रकरण की पृष्ठïभूमि में इन मुस्लिम बुद्घिजीवियों ने भागवत से बातचीत करनी चाही थी, ताकि समाज में अकारण बढ़ायी जा रही कटुता पर चिंता साझा कर सकें। लेकिन, समय मिलने में ही इतना वक्त लग गया कि उनकी भागवत से मुलाकात होने तक नुपुर शर्मा प्रकरण ठंडा पड़ चुका था और उन्होंने अंतत: मौजूदा सांप्रदायिक रिश्तों पर सामान्य बातचीत ही की। यह भी अलग से रेखांकित करने की जरूरत शायद नहीं होनी चाहिए कि बुद्घिजीवियों से बातचीत से लेकर, इमाम संगठन के प्रमुख से मस्जिद में मुलाकात तथा मदरसे के दौरे तक, हर चीज के लिए पहल मुस्लिम पक्ष की ओर से ही गयी थी। कथित ‘‘संवाद’’ की उदारता के सारे दिखावे के बावजूद, संघ प्रमुख ने तो बस ‘कृपापूर्वक’ पहले मुस्लिम बुद्घिजीवियों के बातचीत के अनुरोध को और आगे चलकर, इमाम संगठन के प्रमुख के मस्जिद में आकर मुलाकात करने के न्यौते को, स्वीकार भर किया था! पर ‘‘कृपा’’ की ऐसी मुद्रा के साथ क्या वास्तविक संवाद संभव है?
सच तो यह है कि यह पूरी की पूरी कोशिश, एक स्पष्ट नाबराबरी के रिश्ते पर आधारित है और इसलिए, समुदायों के बीच नाबराबरी को ही पुख्ता कर सकती है। मीडिया में आए सारे ब्यौरे, हर स्तर पर ऐसी नाबराबरी की ही कहानी कहते हैं। मुस्लिम बुद्घिजीवियों के साथ बातचीत में भागवत ने उनसे मांग की कि मुसलमानों को आपसी सद्भावना बनाने के लिए गोहत्या, हिंदुओं को काफिर कहने, जेहाद आदि के संबंध में, हिंदुओं की शिकायतों या गलतफहमियों को दूर करना चाहिए। और इन बुद्घिजीवियों ने इन शिकायतों या गलतफहमियों को दूर करने के लिए, गंभीरता से प्रयास भी किए थे। दूसरी ओर, इन्हीं विवरणों के अनुसार, इन मुस्लिम बुद्घिजीवियों ने जब बात-बात पर मुसलमानों की देशभक्ति पर सवाल किए जाने, आबादी आदि के मसलों पर उन्हें झूठे दोषी ठहराए जाने आदि की शिकायतें उठायीं, तो संघ प्रमुख से उन्हें इसके सिवा कोई खास आश्वासन नहीं मिल सका कि संवाद बना रहना चाहिए। बाद में संघ प्रमुख ने मुस्लिम मदरसे के बच्चों को इसका उपदेश देने के अलावा कि प्रार्थना पद्घतियां अलग सही, हम सब एक हैं, उनसे यह अपेक्षा भी जतायी कि कुरान पढ़ते हैं, तो साथ में गीता भी पढऩी चाहिए! जाहिर है कि संघ प्रमुख को इसका ख्याल भी नहीं आया कि क्या मुसलमान भी हिंदू धार्मिक शिक्षा संस्थाओं से और यहां तक कि संघ द्वारा संचालित ‘गैर-धार्मिक’ सरस्वती विद्या मंदिरों से भी, कुरान भी पढ़ाने की ऐसी ही अपेक्षा नहीं कर सकते हैं?
दरअस्ल संप्रदायों के बीच यही असमानता तो संघ परिवार के सांप्रदायिक राष्ट्रवाद का असली आधार है। भारत में, जहां इस्लाम का एक हजार वर्ष से ज्यादा पुराना इतिहास है और खासी बड़ी मुस्लिम आबादी है, आरएसएस और उसके बाजुओं की राष्ट्रवाद की संकल्पना, सिद्घांत के स्तर पर मुसलमानों को भारतीय राष्ट्र से बाहर रखे जाने पर और व्यावहारिक स्तर पर राष्ट्र पर उनका दावा कमतर माने जाने पर ही टिकी रही है।
आरएसएस के बीज सिद्घांतकार माने वाले गोलवलकर ने, संघ की गीता माने जाने वाले अपने घोषणापत्र, ‘‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’’ में स्पष्ट किया है कि उनकी कल्पना के हिंदू राष्ट्र में, मुसलमानों को अपनी अलग पहचानों को छोडक़र हिंदुओं के साथ मिल जाना होगा या अधिकारहीन होकर, दूसरे दर्जे का नागरिक बनकर, हर प्रकार से हिंदुओं से कमतर दर्जा स्वीकार करते हुए, रहना होगा। आरएसएस सुप्रीमो का बहुप्रचारित ‘‘संवाद’’ वास्तव में, इसी प्रकार का नाबराबरी का दर्जा, मुसलमानों के राय बनाने वाले हिस्सों के बीच और उनसे भी बढक़र खुद को पढ़ा-लिखा तथा इसलिए विवेकशील मानने वाले हिंदुओं के बढ़ते हिस्से के बीच, सामान्य और स्वीकार्य बनाने का ही प्रयास करता है। इसीलिए, इसे संवाद कहना ही, संवाद के अर्थ को ही विकृत करना है।
बेशक, मोदी राज की दूसरी पारी में जिस तरह लंबे डग भर कर राज्य व शासन को बहुसंख्यकवादी बनाया गया है और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तीखा तथा उग्र बनाकर, खासतौर पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को हर प्रकार से असुरक्षित बनाया गया है, उसे देखते हुए मुस्लिम बुद्घिजीवियों से लेकर, मुस्लिम धार्मिक नेताओं, इमामों आदि तक, सब का इस गिरावट को थामने के लिए, जैसे भी संभव हो तथा जैसे भी समझ में आए, हाथ-पैर मारना स्वाभाविक है। ऐसे में डूबते को तिनके का सहारा के अंदाज में, इस सांप्रदायिक गिरावट के मुख्य स्रोत, आरएसएस के प्रमुख से संवाद के जरिए ही कोई रास्ता निकालने की अगर कोई उम्मीद लगाए, तो न सिर्फ उसे दोष नहीं दिया जा सकता है, बल्कि मौजूदा निराशाजनक हालात में, कुछ लोगों को यही इकलौता रास्ता लगना ही स्वाभाविक है। याद रहे कि 1992-93 के मुंबई के भयावह खून-खराबे को रुकवाने के लिए, खुद महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने मुंबई के जाने-माने धर्मनिरपेक्ष बुद्घिजीवियों को शिव सेना सुप्रीमो, बाल ठाकरे से मिलकर अपील करने का सुझाव दिया था और उन्होंने ऐसा किया भी था। लेकिन, जैसाकि हमने पीछे कहा, यह देश में तेजी से बढ़ रही सांप्रदायिक खाई तथा ज्यादा से ज्यादा हमलावर होते सांप्रदायिक द्वेष के समाधान का नहीं, हिंदू-श्रेष्ठता के दावे को और सामान्य बनाने के जरिए मजबूत करने का और इसलिए, सांप्रदायिक विद्वेष व अशांति की ढलान पर देश को और आगे धकेलने का ही रास्ता है।
मुस्लिम बुद्घिजीवियों के साथ अपनी बातचीत में, संघ सुप्रीमो ने जिस तरह दोनों समुदायों में ‘‘गर्म दिमाग लोगों’’ के होने की बात कही, उसमें दोनों ओर के ‘‘गर्म दिमाग लोगों’’ के प्रति जैसा बराबरी का सलूक दिखाया गया है, वह भी उस सांप्रदायिक नाबराबरी का ही हिस्सा है, जिसकी हम पीछे चर्चा कर आए हैं। यह झूठी बराबरी, वास्तव में भागवत के कुनबे की मौजूदा सत्ता से संरक्षित ‘‘गर्म दिमागों’’ के लिए छूट को सामान्य बनाने का और उनके लिए हर तरह की जिम्मेदारी से हाथ झाडऩे का ही काम करती है। वास्तव में संघ प्रमुख के संवाद के स्वांग का ठीक यही मकसद है। सांप्रदायिक ढलान पर भारत को तेजी से धकेलने के लिए, मौजूदा मोदी निजाम को स्वाभाविक रूप से दुनिया भर में बढ़ती आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है। इसके साथ ही, इस जनविरोधी सांप्रदायिक निजाम की रीति-नीतियों से बढ़ते चौतरफा संकट के हालात में, उसकी साख गिरती जा रही है और उसका विरोध बढ़ता तथा एकजुट होता जा रहा है।
ऐसे में संघ की सत्ता तक पहुंच का बने रहने और हिंदू राष्ट्र की ओर बढऩे, दोनों पर खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में ही भागवत को मुसलमानों के साथ संवाद करना याद आ रहा है, ताकि अपने बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक समर्थन को छोड़े बिना, मोदी राज के विरोधियों की कतारों में तथा खासतौर पर मुसलमानों के बीच, कुछ भ्रम भी फैलाया जा सके और अंतत: हिंदू राष्ट्र की ओर आगे बढ़ते रहने के लिए, हिंदुओं की श्रेष्ठता और मुसलमानों की हेयता के दावों को, नया नॉर्मल भी बनाया जा सके। तभी तो एक तरफ मुसलमानों से छद्म संवाद है और दूसरी ओर ‘‘अब काशी, मथुरा की बारी है’’ का नारा भी!
लेखक प्रतिष्ठित पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक है।
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