आज इसरो पीएसएसवी (PSLV) रॉकेट के जरिए आंध्रप्रदेश के श्रीहरिकोटा अंतरिक्षकेंद्र से कलामसैट और माइक्रोसैट की लॉन्चिंग रात 11 बजकर 46 मिनट पर करेगा. यह इस रॉकेट की 46वीं उड़ान होगी. इसके जरिए दुनिया के सबसे छोटे सैटेलाइट में से एक 'कलामसैट' को अंतरिक्ष में छोड़ा जाएगा. इसकी खास बात यह है कि इसे इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे स्टूडेंट्स ने डेवलप किया है. इन स्टूडेंट्स ने 10 सेमी के घन के आकार का एक सैटेलाइट बनाया है, जिसका नाम इन्होंने मशहूर वैज्ञानिक और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम के नाम पर कलामसैट रखा है. यह पीएसएलवी की चौथी स्टेज में पहुंचने पर लॉन्च किया जाएगा और इसके जरिए कम्युनिकेशन के माध्यमों और एनर्जी की उपलब्धता की जांच की जाएगी.पीएसएलवी एक ऐसा रॉकेट है जो ठोस और तरल ईंधनों दोनों के जरिए अलग-अलग स्टेज में चलता है. जैसे ही यह रॉकेट अपनी डेस्टिनेशन पर पहुंचेगा इसके सोलर पैनल और ली-आयन बैटरी सैटेलाइट को एनर्जी देने लगेगी. इसमें स्थित PS4 का मुख्य काम पेलोड को इनके अलग-अलग ऑर्बिट में बिल्कुल सही तरीके से स्थापित कर देना होगा.19 साल के रिफत शरूक, जो कि कलामसैट को बनाने वाली 15 स्टूडेंट्स की टीम का हिस्सा हैं, बताते हैं कि इस सैटेलाइट का भार 1.2 किग्रा होगा. इसमें एक कम्युनिकेशन डिवाइस होगी, एक कम्प्यूटर होगा, सोलर पैनल होगा. साथ ही इसमें इलेक्ट्रॉनिक्स का एक सेट होगा जो कि पहले के सैटेलाइट के इलेक्ट्रॉनिक्स से नया होगा.शरूक और उनकी टीम पहले भी एक सबसे छोटा सैटेलाइट बना चुके हैं. इस सैटेलाइट का नाम भी 'कलामसैट' था. जो मात्र 64 ग्राम का था. यह सैटेलाइट एक स्मार्टफोन से भी हल्का था. इसे नासा का साउंडिंग रॉकेट 2017 में अंतरिक्ष में लेकर गया था.शरूक ने ही बताया, 'इस बार हमने इसके मॉड्यूल और इलेक्ट्रॉनिक्स को खुद ही बनाया है. यह चेन्नई और बंगलुरू में तैयार हुआ है. हम मिशन पर जाने वाले अपने सिस्टम और इलेक्ट्रॉनिक्स का टेस्ट करते रहेंगे. यह स्टूडेंट्स को भविष्य में सस्ते सैटेलाइट बनाने में मदद करेगा.'विजयलक्ष्मी नारायणन, एक दूसरी टीम की सदस्य और एक इंजीनियरिंग ग्रेजुएट कहती हैं कि उन्होंने अंतरिक्ष की गुरुत्वाकर्षणीय तरंगों के बीच अपनी स्थिति को बनाए रखने के लिए सैटेलाइट में एयरोस्पेस ग्रेड एल्युमिनियम का इस्तेमाल किया है. हमने इसका ढांचा 3D मॉडल सॉफ्टवेयर के जरिए तैयार किया है. और कई बार इसे सॉफ्टवेयर के जरिए चेक भी किया है.मेलस्वामी अन्नादुरई, जो कि इसरो के एक रिटायर्ड साइंटिस्ट हैं और चंद्रयान-1 प्रोजेक्ट के डायरेक्टर हैं, स्टूडेंट्स की सैटेलाइट के लिए कहते हैं हालांकि यह अंतरिक्ष के वातावरण में केवल कुछ महीनों तक ही टिकेगा लेकिन हमें आगे चलकर इसके जीवन को इसी तरह से और बढ़ाना होगा. पहले स्टूडेंट्स के बनाए सैटेलाइट को एक गुब्बारे के जरिए छोड़ा करते थे. ज्यादातर ये सैटेलाइट कभी किसी कक्षा तक नहीं पहुंचते थे. अब, वे एक-दो कक्षाओं तक पहुंच सकते हैं, इससे आगे के प्रयोगों में मदद मिलेगी.अपने एक पहले दिए गए बयान में इसरो के चेयरमैन के सिवान ने कहा था कि यह आखिरी चरण पर छोड़ा जाने वाला सैटेलाइट अगले 6 महीनों तक जिंदा रहेगा और वे मुफ्त में प्रयोगों के लिए इसका प्रयोग कर सकेंगे. पहले बहुत से स्टूडेंट्स सैटेलाइट को धरती के सबऑर्बिटल में भेजा जाता था. यह स्टूडेंट्स का बनाया पहला सैटेलाइट होगा, जिसे ढंग से पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किया जाएगा.इसी प्रोग्राम से जुड़ी स्पेस किड्स इंडिया की फाउंडर सीईओ श्रीमती केसन ने बताया कि इस नैनो-सैटेलाइट को बनाने में कुल 12 लाख रुपये का खर्च आया है. उनकी संस्था स्पेस किड्स इंडिया; आर्ट, साइंस और कल्चर को भारत में स्टूडेंट्स तक ले जाने के लिए काम कर रही है.
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