1. पीतल का मुकुट
उस राज में चोरों की जबरदस्त धूम थी। चोरी से अधिक सम्मानजनक पेशा उस राज में दूसरा नहीं था। हर समर्थ, चोरी करने के किसी न किसी मोर्चे पर, कहीं न कहीं वालंटियर की भूमिका में दिन-रात डटा रहता था। हर बड़ा चोर उससे भी बड़ा चोर बनने की दिशा में निरंतर अग्रसर था। राजा जिस सीमा तक चोरों की मदद कर सकता था, उतनी तो करता ही था, वह सारी सीमाएं तोड़कर भी सहायता करने के लिए आकुल -व्याकुल रहता था। आधी रात को भी उसकी सहायता की आवश्यकता हो, तो देने को तत्पर रहता था।
उसने अपनी अधिकांश नीतियां और कार्यक्रम चोरों के कल्याण को केंद्र में रखकर बनाये थे। उसने उनके लिए अनेक प्रोत्साहन योजनाएं भी चलाई थीं। उन्हें सभी तरह के कर भारों और आपराधिक कार्यों की सजा से मुक्त रखा था, ताकि इस क्षेत्र में नई से नई प्रतिभाएं सामने आकर राज्य की उन्नति में पर्याप्त योगदान दे सकें।
जो जितना बड़ा चोर था, वह उतने ही अधिक सम्मान का पात्र था। उस जमाने का बड़ा से बड़ा सम्मान तथा बड़ी- बड़ी जागीरें देकर राजा उन्हें समय-समय पर सम्मानित करता रहता था और बदले में उनकी प्रशंसा और समर्थन अर्जित करके प्रसन्न रहता था।
वह चोरों का अमृतकाल था। चोरों को चोरी करने के लिए रात के अंधेरे में सेंध लगाने की जरूरत नहीं थी। वे अब राज्य के गणमान्य नागरिक माने जाते थे। इस रूप में वे दिन के उजाले में किसी भी साधारण आदमी के घर आते। उसकी किसी भी चीज़ पर हाथ रख देते, तो वह उसकी हो जाती थी। गाय, भैंस, घोड़े, सोफ़ा, फ्रिज, सोना, कार पर उनके हाथ रखने की देरी थी। किसी की हिम्मत नहीं थी कि उन्हें इससे रोक सके। कोई आपत्ति बर्दाश्त नहीं की जाती थी।
किसी ने अगर ग़लती से चोरों की राजा से शिकायत कर दी, तो उसकी शामत आ जाती थी। राजा उसे उल्टा लटकवा देता था। उसके घर पर बुलडोजर चलवा देता था। अगर चोर को ही अंततः शिकायत करने वाले पर दया आ जाए, मरणासन्न अवस्था में उसकी कराहें सुनकर चोर का दिल पिघल जाए, तो उस अवस्था में शिकायती को अधमरा छोड़ दिया जाता था, ताकि अपने घर में अपनों के बीच देह त्यागने का सुख और संतोष वह पा सके। ऐसे ‘दयालु चोर’ की पूरे राज्य में प्रसिद्धि हो जाती थी। जगह-जगह उसके सम्मान में समारोह आयोजित होते थे, जिनमें शहर के सभी संभ्रांत नागरिक और वरिष्ठ अधिकारी उपस्थित होते थे। उसे प्रशस्ति-पत्र दिए जाते थे। फूलों के हारों से उसे नाक और आंख तक लाद दिया जाता था। उसे तरह-तरह के उपहार दिए जाते थे। उसका मन प्रसन्न कर दिया जाता था। उसका मन उस शहर में चोरी करने को मचलने लगता था।
चोरों की सामूहिक सहमति से ही प्रधानमंत्री, मंत्री, मुख्यमंत्री आदि तय होने लगे थे। राजा केवल मुहर लगाकर अंगूठा लगाता था। एस पी-कलेक्टर, जज आदि भी उनकी इच्छा का प्रतिनिधित्व करते थे। क्लर्कों और शिक्षकों की नियुक्ति में भी उनका दखल था। मुख्तसर यह कि उस राज्य में जिसका, जो भी बनता या बिगड़ता था, चोरों की सिफारिश पर बनता-बिगड़ता था।
इस बीच चोरों का काफी ‘विकास’ हो चुका था। अर्थव्यवस्था में उनका योगदान मुल्क को पांचवें से तीसरे पायदान पर ले आया था। बहुत से चोर पदोन्नत होकर डाकू बन चुके थे, जबकि कुछ ने अपना करियर ही डाकू के रूप में शुरू किया था। मगर पहले डाकू होना चूंकि अधिक सम्मान की बात नहीं मानी जाती थी, तो वे डाका डाल कर भी चोर जैसे छोटे निम्न पर रह कर मन मारे बैठे रहते थे।
राजा को बदली हुई परिस्थितियों का भान था। वह समझ चुका था कि अब अधिकांश चोर सफलता की अनेक सीढ़ियां चढ़ कर डाकू बन चुके हैं, इसलिए अब चोर नहीं, डाकू बहुमत में हैं। उनकी दिली इच्छा है कि अब उन्हें उनके बड़े हुए पद के अनुसार राज्य में सम्मान दिया जाए, उनके वर्तमान डाकू स्वरूप को मान्यता दी जाए। राजा ने उनकी भावनाओं का सम्मान किया। जो प्रेम अभी तक राजा ने अपने राज्य में चोरों के लिए सुरक्षित रखा था, उसे उसने डाकुओं को भेंट कर दिया।
चोरों का जमाना जा चुका था, डाकुओं का आ चुका था। जैसा कि राजा का सिद्धांत था, उसने पहले भी बहुमत का सम्मान किया था, अब भी कर रहा था। जो चोर एक दर्जा ऊपर उठकर डाकू नहीं बन पाए थे, उनकी इज्जत अब दो कौड़ी की रह गई थी। राजा ने उनसे अपना समर्थन वापस खींच लिया था। वे अवांछितों की कोटि में आ चुके थे। आये दिन चोरी के आरोप में चोरों की गिरफ्तारियां होने लगी थीं। चोरी अब ‘जघन्य’ अपराधों की श्रेणी में आ चुका था। इसकी सजा आजीवन कारावास से लेकर मृत्युदंड तक थी, बल्कि जो न कभी चोर थे, न डाकू, उन्हें भी इसी अपराध में आजीवन कारावास और मृत्युदंड की सजा दी जाती थी।
अब डाकू प्रतिदिन उन्नति और प्रगति और विकास करने लगे। वे डाका डालने की कला में प्रवीणता पाकर उद्योगपति और व्यवसायी के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त करने लगे। जब डाकुओं का बहुमत उद्योगपति-व्यवसायी के रूप में प्रकट होने लगा, तो राजा ने भी अपने सिद्धान्त के अनुरूप इस नये बहुमत का साथ देना उचित समझा। यहां तक कि उसने अपने सारे अधिकार इस वर्ग को सौंप दिए। बस मोहर और अंगूठा लगाने का अधिकार उसने अपने पास रखा, जिसका मामूली शुल्क वह वसूल करता था।
अब भी उसके सिर पर मुकुट था, मगर वह पीतल का था।
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*2. मुल्ला नसरुद्दीन और पाखंडी*
मुल्ला नसरुद्दीन का नाम पहले सिर्फ़ नसरुद्दीन हुआ करता था। कुछ उसे प्यार से नसरू और कुछ मियां नसरुद्दीन कहा करते थे। नसरुद्दीन को लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन बनने से बहुत पहले ही रोज-रोज नये-नये किस्से गढ़ने का बहुत शौक था, बल्कि नशा-सा था। ताजा राजनीतिक हालात को वह फौरन किस्से में बदल देता था।
पाखंडी जी उस समय भी थे और प्रधानमंत्री ही थे। भारत के थे या नहीं,यह तो पाखंडी जी को भी याद नहीं, मगर कहीं के थे जरूर, इतना उन्हें याद है।
पाखंडी जी को लगता था कि यह नसरुद्दीन मेरे खिलाफ रोज किस्से गढ़ता रहता है। तब इंटरनेट, टीवी, फेसबुक वगैरह तो कुछ था नहीं, नसरुद्दीन के किस्सों पर प्रतिबंध लगाने और ‘देश की सुरक्षा’ के साथ नसरुद्दीन की इस ‘छेड़छाड़’ को रोकने का उपाय भी नहीं किया जा सकता था। नसरुद्दीन एक जगह एक किस्सा सुनाता और वो कानों कान एक से दूसरे तक पहुंचता चला जाता और लोग आनंद लेते, हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते। दूसरे भी देखा-देखी उतने ही बढ़िया किस्से गढ़ने लगे और वे किस्से भी नसरुद्दीन के नाम से मशहूर होने लगे।
पाखंडी जी इससे बहुत परेशान हो गए। उन्होंने शीर्ष नेताओं की बैठक बुलाई।
अगले दिन पार्टी (तब भी उनकी पार्टी थी, मगर कहाँ थी, यह पाखंडी जी को भी अब याद नहीं) की रैली में पाखंडी जी ने नसरुद्दीन को चिढ़ाने और अपनी पापुलरिटी बढ़ाने के लिए ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करते हुए नसरुद्दीन के आगे मुल्ला शब्द भी जोड़ दिया। यह वाली ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ उनकी बुरी तरह फेल हो गई। पाखंडी जी के नसरुद्दीन को मुल्ला नसरुद्दीन बनाने से उसकी लोकप्रियता दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ गई। पाखंडी जी के दिए ‘मुल्ला’ शब्द को तोहफा मानते हुए खुद उसने अपने नाम के आगे ‘मुल्ला’ शब्द लगाना शुरू कर दिया और वह मुल्ला नसरुद्दीन हो गया, बल्कि इससे उसकी इज्जत में इतना इजाफा हो गया कि लोग उसका आदर करने लगे। उसे उसे की बजाय उन्हें कहने लगे। मुल्ला नसरुद्दीन कहने लगे।
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक और समझदारी दिखाई, बदले की कार्रवाई नहीं की। उसने पाखंडी जी के आगे पंडित शब्द नहीं जोड़ा।
तब से पाखंडी टाइप तो आते-जाते रहते हैं, मगर मुल्ला नसरुद्दीन कहीं नहीं जाते। जहाँ -जहाँ पाखंडी जी प्रधानमंत्री या उस जैसे कुछ बनते हैं, वहाँ-वहाँ मुल्ला नसरुद्दीन बिना वीसा लिए आकाश मार्ग से पहुंच जाते हैं।
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*3. राम नाम सत्य!*
जहां तक पद के प्रति अपने दायित्व को ईमानदारी से निभाने का प्रश्न था, एक बार भ्रष्टाचार के मामले में वह फंसते-फंसते किसी तरह बच गए थे। उन्हें माता वैष्णो देवी के दरबार में अरदास करने जाना पड़ा था। लगता है, मां ने उन्हें बचा लिया था। उस भ्रष्टाचार का साया उनके सिर से हमेशा के लिए हट गया था।
इसके बाद उन्होंने नई रणनीति पर काम करना शुरू किया। वह सिर का काम पैरों से लेने लगे। चमत्कार कि इससे आगे फिर से फंसने का खतरा पचास प्रतिशत तक कम हो गया। इसके बावजूद उनके मन का डर नहीं गया। उन्होंने नाक का काम कान से और कान का काम नाक से लेना शुरू कर दिया। इतने पर भी पूरी आश्वस्ति नहीं हुई, तो मुंह का काम आंखों से और आंखों का काम मुंह से लेना आरंभ कर दिया। इस तरह हर अंग-प्रत्यंग की भूमिका पलटते चले गए और बचते चले गए। डर तो फिर भी डर था, न गया, तो वह सिर के बल चलने लगे, जो कि सरकारी तौर पर उनके पैर थे। इससे भी आश्वस्ति नहीं हुई, तो वह पेट के बल रेंग कर मां भगवती की शरण में गए और बच गए।
एक दिन उन्हें मरना था, सो मर भी गए। मरने में उन्होंने कोताही नहीं की। अच्छा यह हुआ कि वह सारी कीर्ति-अपकीर्ति अपने साथ पोटली में बांध कर ले गए। यहां किसी के भरोसे छोड़ जाना उन्हें उचित प्रतीत नहीं हुआ।
उनके मरने पर शांति पाठ होना था, वह हुआ और काफी शानदार ढंग से हुआ। तेरहवीं भी बढ़िया ढंग से निबटाई गई। उनकी शान में विशाल भगवती जागरण की तर्ज पर विशाल शोक सभा हुई, जिसमें सभी विचारों और विचारधाराओं के लोग सम्मिलित हुए। इसके बाद वह संपूर्ण रूप से मर गए। उनकी प्रतिमा लगाने का निश्चय शोक सभा में लिया गया था, मगर वह निश्चय,अनिश्चय को प्राप्त होते-होते अपनी मौत मर गया। सो, यह भी अच्छा हुआ।
फिर उनके ड्राइंग रूम में उनका फोटो लगा,जो कि लगना ही था और लगना ही चाहिए था। समय के साथ उसका शीशा तड़क गया और ड्राइंग रूम से हटने तक तड़का हुआ ही रहा।
इस प्रकार वह मर गए, तो उनका भय और भ्रष्टाचार भी उनके संग मर गया। राम नाम सत्य हो गया।
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