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Saturday, January 25, 2025 10:52:59 AM

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संविधान की 75वीं वर्षगांठ और अंबेडकर की चेतावनी

संविधान की 75वीं वर्षगांठ और अंबेडकर की चेतावनी

रिपोर्ट : एस एन साहू

 

26 नवंबर को भारत के संविधान को अपनाने और लागू करने की 75वीं वर्षगांठ मनाते समय, बीआर अंबेडकर द्वारा व्यक्त की गई चिंताओं को ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है, ताकि संविधान को भारतीय समाज के लिए अधिक प्रासंगिक बनाया जा सके, जो लगातार सामाजिक और आर्थिक असमानताओं से ग्रस्त है। संविधान सभा की विधायी मंशा के अनुरूप, वह एक धर्मनिरपेक्ष भारत के शक्तिशाली समर्थक थे, जिसका मुख्य उद्देश्य हिंदू राज को रोकना था, जिसके बारे में उन्होंने कहा था कि यह देश के लिए एक आपदा होगी।

 

*मुसलमानों के खिलाफ युद्ध की अंबेडकर की चेतावनी*

 

यह अत्यंत निंदनीय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता, जो जनता के जनादेश के आधार पर सत्ता पर काबिज हैं और देश पर शासन कर रहे हैं, धर्म के नाम पर नफरत फैला रहे हैं तथा अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों के खिलाफ नफरत और कटुता फैला रहे हैं।

 

अगर अंबेडकर जीवित होते, तो वे मुसलमानों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार को देखकर और साथ ही, खासकर भाजपा शासित राज्यों में, हिंदुत्ववादी नेताओं द्वारा दिए जा रहे भड़काऊ भाषणों को देखकर, जिसमें मुसलमानों के खिलाफ नरसंहार करने और उनके सामाजिक और आर्थिक अधिकारों को छीनने का आह्वान किया जा रहा है, स्तब्ध रह जाते। ऐसी सभी दुखद घटनाएं, भाजपा से जुड़े उच्च संवैधानिक पदाधिकारियों की ओर से विरोध की एक भी आवाज के बिना, हो रही हैं।

 

संविधान की 75वीं वर्षगांठ के जश्न के समय हो रही ऐसी घटनाएं, 17 दिसंबर 1946 को संविधान सभा में अंबेडकर द्वारा दी गई चेतावनी की याद दिलाती है। उस समय कुछ लोग, जिस तरह से हिंदू-मुस्लिम मुद्दों पर कटुता और द्वेष के साथ बात कर रहे थे, उससे ऐसा लग रहा था कि वे मुसलमानों के खिलाफ युद्ध छेड़ रहे हैं।

 

अंबेडकर ने सख्त चेतावनी देते हुए कहा था कि “अगर कोई व्यक्ति हिंदू-मुस्लिम समस्या को बलपूर्वक हल करने की योजना बना रहा है, जो कि युद्ध के माध्यम से हल करने का दूसरा नाम है… ताकि मुसलमानों को अपने अधीन किया जा सके”, तो उन्हें डर था कि “[यह] देश उन पर लगातार विजय प्राप्त करने में लगा रहेगा”। इसलिए उन्होंने सत्ता में बैठे लोगों से इसे समझदारी से इस्तेमाल करने का आग्रह किया। उनके ये शब्द आज भारत में गूंज रहे हैं, क्योंकि देश आज धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण की चपेट में है।

 

*संभल मस्जिद पर हमला*

 

संविधान की 75वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर, उत्तर प्रदेश के संभल में मुसलमानों को भड़काने के लिए जहर उगला गया। उन्होंने न्यायालय के आदेश पर सर्वेक्षण की जा रही जामा मस्जिद के सामने ‘जय श्री राम’ के नारे लगाने का विरोध किया था। यह कई शताब्दियों पहले बनी एक मस्जिद है और इस्लामी तीर्थस्थल के रूप में इसकी स्थिति पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 द्वारा संरक्षित है। यह अधिनियम किसी भी पूजा स्थल के रूपांतरण को प्रतिबंधित करता है और किसी भी पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र को 15 अगस्त, 1947 की स्थिति में बनाए रखने का प्रावधान करता है। कथित तौर पर पुलिस की गोलीबारी में विरोध करने वाले मुसलमानों में से पांच की जान चली गई।

 

*बुलडोजर न्याय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का फैसला*

 

अधिकांश भाजपा शासित राज्यों में, कुछ अपराधों के आरोपी व्यक्तियों, विशेष रूप से मुसलमानों के घरों को ध्वस्त करने से न्यायिक विवेक इतना हिल गया है कि सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की 75वीं वर्षगांठ से ठीक 16 दिन पहले, 10 नवंबर, 2024 को अपने फैसले में, आरोपियों के घरों को ध्वस्त करके किए गए तथाकथित ‘बुलडोजर न्याय’ को सभ्य समाजों के लिए अस्वीकार्य बताया और इसे “कानूनविहीन, निर्मम स्थिति” कहा।

 

शीर्ष अदालत ने कहा कि “राज्य प्राधिकारियों द्वारा किए गए बुलडोजर विध्वंस ने अदालतों के अधिकार को नष्ट कर दिया, क्योंकि इसने अनिवार्य रूप से एक आरोपी व्यक्ति के अपराध को निर्धारित करने और उन्हें दंडित करने के लिए एक न्यायिक भूमिका निभाई… इस तरह से, इसने शक्तियों के पृथक्करण को बदनाम किया।”

 

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति बीआर गवई, जो फैसला सुनाने वाली पीठ का हिस्सा थे, ने कहा कि “बुलडोजर से मकान ढहाने की कार्रवाई प्राकृतिक न्याय, नागरिकों के आश्रय के अधिकार का उल्लंघन है और आरोपी के परिवार को सामूहिक दंड दिया गया है।”

 

केवल अपराध के आरोपी व्यक्तियों के घरों को इस तरह से ध्वस्त करना उस संविधान को ध्वस्त करने के समान है, जो लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रता का भंडार है।

 

*ईसीआई का संस्थागत पतन*

 

चुनाव कराने के मामले में भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) की निष्पक्षता और तटस्थता पर बार-बार सवाल उठते रहे हैं। याद करें कि मोदी सरकार के नक्शेकदम पर चलने के आरोपी मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) राजीव कुमार ने चुनावी बॉन्ड योजना (ईबीएस) के तहत राजनीतिक दलों को भारी मात्रा में दान देने वाले दानदाताओं की पहचान गुप्त रखने का समर्थन किया था, जो सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का उल्लंघन है, जिसमें ईबीएस को असंवैधानिक घोषित किया गया था।

 

सीईसी के इस तरह के आचरण से यह धारणा बनी है कि वे संवैधानिक रूप से निर्धारित स्वतंत्रता का उल्लंघन करते हुए कार्यपालिका के सामने झुक रहे हैं, जिसे बनाए रखना उनका कर्तव्य है। सीईसी कुमार जिस तरह से व्यवहार कर रहे हैं, वह अंबेडकर की 16 जून, 1949 को संविधान सभा में व्यक्त की गई आशंकाओं को साबित करता है, कि किसी मूर्ख या दुष्ट को चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त करने से रोकने के लिए संविधान में किसी प्रावधान के अभाव में, यह संभावना है कि ईसीआई कार्यपालिका के नियंत्रण में आ जाएगा।

 

दुखद बात यह है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य दो चुनाव आयुक्त कार्यपालिका के नियंत्रण में आ गए हैं। चुनाव आयोग की समझौतापूर्ण कार्यप्रणाली से इस तरह के संस्थागत पतन ने संविधान को अत्यधिक खतरे में डाल दिया है। नवंबर 2022 में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों में भी यह बात सामने आई थी, जब जस्टिस केएम जोसेफ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच ने मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की वर्तमान नियुक्ति प्रक्रिया की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा था कि नियुक्तियां कार्यपालिका की मर्जी के अनुसार की जा रही हैं। पीठ ने तब कहा था : “देश को चुनाव आयुक्तों के रूप में ऐसे व्यक्तियों की जरूरत है, जो आवश्यकता पड़ने पर प्रधानमंत्री से भी भिड़ने से पीछे न हटें, न कि एक कमजोर ‘हां में हां मिलाने वाले’ व्यक्ति की।”

 

*संवैधानिक नैतिकता*

 

यह दुखद है कि संविधान की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर देश का चुनाव आयोग सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्यक्त दृष्टिकोण से बहुत दूर है। इसने अपनी पार्टी भाजपा को वोट देने की अपील करते हुए प्रधानमंत्री मोदी के बार-बार दिए गए इस्लामोफोबिक भाषणों के लिए उन्हें जवाबदेह ठहराने में कोई हिम्मत नहीं दिखाई है। यह निश्चित रूप से हमारे लोकतंत्र और संविधान के भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है।

 

अम्बेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में संविधान के सफल संचालन के लिए हर स्तर पर संवैधानिक नैतिकता के व्यापक विकास की आवश्यकता को रेखांकित किया था।

 

संविधान द्वारा स्थापित संस्थाओं की स्वतंत्रता की रक्षा करना, संवैधानिक नैतिकता को निरंतर विकसित करने की दीर्घकालिक प्रक्रिया का हिस्सा है। 18वें आम चुनाव के दौरान आम जनता ने मोदी के शासन के हमले से संविधान को बचाने के लिए आगे आकर जो काम किया, उससे यह उम्मीद जगती है कि वे इसे आगे भी बचाएंगे और उन सत्ताधारियों से इसकी रक्षा करेंगे, जो इसे खंडित करने पर तुले हुए हैं।

 

‘न्यूजक्लिक’ से साभार। एस एन साहू भारत के राष्ट्रपति केआर नारायणन के विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी के रूप में कार्यरत थे।

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