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Tuesday, April 29, 2025 7:02:57 PM

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आरएसएस के अंग्रेज़परस्ती के इतिहास की पुनरावृत्ति है भारत-अमेरिका संबंधों का यह काल

आरएसएस के अंग्रेज़परस्ती के इतिहास की पुनरावृत्ति है भारत-अमेरिका संबंधों का यह काल

रिपोर्ट : अरुण माहेश्वरी

 

ट्रंप-2 के शासन का अब तक का यह काल हमें अभी से भारत-अमेरिकी संबंधों के इतिहास का सबसे शर्मनाक काल दिखाई देने लगा है। इसमें सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इस शर्म के लिए अकेले ट्रंप ज़िम्मेदार नहीं है। मोदी और उनकी सरकार भी अगर ज़्यादा नहीं, तो कम ज़िम्मेदार भी नहीं है। ट्रंप ने तो अपने चुनाव अभियान के दौरान ही पारस्परिक आयात शुल्क (Reciprocal tariff) के अपने इरादे को साफ़ तौर पर कहा था। इसी प्रकार, अवैध आप्रवासियों से अमेरिका को मुक्त करने की अपनी पुरानी नीति को भी दोहराया था। पर ट्रंप की इन नीतियों की दुनिया के दूसरे देशों ने कोई परवाह नहीं की, क्योंकि अन्य सभी राष्ट्रों को अपनी स्थिति और दुनिया में राष्ट्रों की परस्पर निर्भरता का एक सटीक अनुमान है। कोई भी अपने अस्तित्व को पूरी तरह से अमेरिका से जोड़ कर नहीं देखता है।

 

ट्रंप ने अपने पहले शासन के चार सालों में भी मेक्सिको से अवैध घुसपैठ को रोकने और अवैध आप्रवासियों को लेकर राजनैतिक उत्तेजना पैदा करने की कम कोशिश नहीं की थी। पर देखते-देखते उनके चार साल थोथी फुत्कारों में ही बीत गए। अमेरिका की इस कथित समस्या का जरा भी निदान संभव नहीं हुआ।

 

सारी दुनिया जानती है कि आप्रवासी का मसला सिर्फ़ दो देशों का मसला नहीं, मानव सभ्यता के इतिहास से जुड़ा हुआ मसला है। अमेरिका की सच्चाई तो यह है कि उस देश को आप्रवासियों ने ही आबाद, निर्मित और विकसित किया है। हाल के साल तक भी अमेरिका के विकास के हर पन्ने को, वह भले कृषि को लेकर हो या उद्योग को लेकर या डिजिटल क्रांति को लेकर, लिखने में आप्रवासियों की, अन्य देशों के वैध-अवैध श्रमिकों की प्रमुख भूमिका रही है।

 

यह अकारण नहीं है कि अमेरिका अपने देश को ‘अवसरों का देश’ के रूप में प्रचारित कर दुनिया भर के महत्वाकांक्षी युवकों को आकर्षित करता रहा है! भारत सहित अन्य देशों से नाना उपायों से वहाँ पहुँचने वाले आप्रवासी वहाँ अपराधों, लूट-मार या हत्याएं करने के लिए नहीं जाते हैं, अपनी बुद्धि और श्रम के बल पर उस देश के निर्माण में भाग लेकर अपने जीवन को सुधारने के लिए जाते हैं।

 

आप्रवासियों के आने के साथ सिर्फ़ उन आप्रवासियों का ही नहीं, उन देशों के स्वार्थ भी किसी-न-किसी रूप में जुड़े होते हैं जिन देशों को उन्होंने अपना भाग्य आजमाने के लिए चुना है। इसीलिए मानव सभ्यता के विकास के इतिहास को भी आप्रवासी का इतिहास कहा जाता है। इस विषय पर ट्रंप के पहले चार साल के शासन की विफलता ही उसकी तयशुदा नियति थी। और, आगे भी इस मसले पर ट्रंप लगातार राजनीतिक उत्तेजना तो पैदा करते रहेंगे, पर कभी भी इसमें उन्हें कोई बहुत बड़ी सफलता नहीं मिल पाएगी।

 

इसी प्रकार का ट्रंप का दूसरा बड़ा मसला है पारस्परिक आयात शुल्क का मसला। यह समस्या भी मूलतः मानव इतिहासों से जुड़ी एक और समस्या ही है। जैसे द्वितीय विश्व युद्ध में तबाह हो चुके पूरे यूरोप के पुनर्निर्माण के लिए मार्शल योजना और विश्व बैंक, आईएमएफ़ की तरह की ब्रेटनवुड संस्थाओं को सस्ते ऋणों आदि के साथ सामने आना पड़ा था। बिल्कुल उसी तर्ज़ पर वैश्विक असमानता के शिकार दुनिया के विकासशील देशों में विकास की गति को तेज करने के लिए विश्व वाणिज्य संगठन को विश्व वाणिज्य की ऐसी शर्तों को स्वीकारना पड़ा हैं, जिनमें आयात शुल्कों के ज़रिए विकासशील देश अपने लिए ज़रूरी पूंजी जुटा सकें और अपने बाजारों को बड़ी ताक़तों के नीतिगत दबावों से मुक्त रख सकें। इन व्यवस्थाओं ने दुनिया में कमज़ोर और शक्तिशाली राष्ट्रों के परस्पर हितों के बीच एक संतुलन बनाए रखने में एक असरदार भूमिका अदा की है और दुनिया में स्थिरता बनाए रखने का काम किया है। शांति और स्थिरता समूची मानवता के विकास की एक अनिवार्य शर्त है।

 

यही वजह है कि आज अमेरिका के स्तर की महाशक्ति यदि दुनिया में स्थिरता को ख़त्म करने का काम करती है, तो वह सबसे ज़्यादा अपना ही नुक़सान करेगी। ट्रंप का पारस्परिक आयात शुल्क का एक हथियार की तरह प्रयोग करने की योजना अंत में एक दिखावा ही साबित होगी, क्योंकि खुद अमेरिका के आर्थिक-राजनीतिक हित इस मामले में उसके खिलाफ उठ खड़े होंगे।

 

इसीलिए ट्रंप के पारस्परिक आयात शुल्क और उससे संभावित वाणिज्य युद्ध को लेकर चीन, रूस सहित यूरोप तक ज़्यादा चिंतित नहीं है। इस दिशा में ट्रंप के कदमों के अनुपात में ही वे अपनी तात्कालिक और दूरगामी नीतियाँ तैयार करने की रणनीति अपनाए हुए हैं।

 

इस पूरे परिप्रेक्ष्य में विचार का यह एक गंभीर सवाल है कि ट्रंप के क्रियाकलापों से भारत ही क्यों इतना ज़्यादा परेशान हो रहा है? क्यों ट्रंप भारत के अवैध आप्रवासियों को अन्य देशों के आप्रवासियों की तुलना में ज़्यादा सता रहे हैं और उनकी यातनाओं का सारी दुनिया के सामने प्रदर्शन भी कर रहे हैं? क्यों मोदी को ट्रंप बार-बार अपमानित करते हैं?

 

सबसे पहले तो मोदी की लाख कोशिश के बावजूद उन्हें अपने शपथ ग्रहण के आयोजन में आने नहीं दिया। और बाद में जब उन्हें बुलाया भी, तो समूचे प्रेस के सामने भारत को “टैरिफ़ किंग” बता कर मोदी को सीधे धमकी दे दी कि वे भारत को बख़्शेंगे नहीं। भारत पर अमेरिका से हथियार और ऊर्जा ख़रीदने के लिए खुले संवाददाता सम्मेलन में दबाव डाला। ऐसा करते हुए वे बार-बार मोदी पर “माई डीयर फ्रैंड” के व्यंग्य का तीर छोड़ने से भी नहीं चूक रहे हैं!

 

 

इस स्थिति पर विचार करने पर एक बात साफ़ नज़र आती है कि मोदी के प्रति ट्रंप के इस रवैये के मूल में कहीं-न-कहीं उनके मन अपने इस ‘मित्र’ के प्रति गहरी वितृष्णा का भाव काम कर रहा है। ऐसा लगता है कि मानो ट्रंप ने मोदी के चरित्र की उस प्रमुख कमजोरी को पहचान लिया है, जिसमें अपनी कोई चमक नहीं है, वह हमेशा अमेरिका और ट्रंप के प्रकाश से खुद को चमकाने की फ़िराक़ में रहता है।

 

शायद मोदी के अडानी वाले रोग की भी उन्होंने शिनाख्त कर ली है। वे जान गए हैं कि मोदी उस दास भाव के शिकार हैं, जो मालिक की दुत्कारों से ही उसके प्रति हमेशा विश्वसनीय बना रहता है। ऐसे भाव में जीने वाले को बराबरी का दर्जा देना उसे ख़तरनाक बनाने जैसा है।

 

इसीलिए ट्रंप ने एलेन मस्क, उनकी प्रेमिका, बच्चों और बच्चों की आया के साथ मोदी की बैठक कराई!! अमेरिकी प्रशासन ने भी यह देख लिया है कि मोदी का जितना अपमान किया गया, वे उतना ही ज़्यादा मुस्कुराते हैं और अमेरिका को आयात शुल्क के मामलों में उतनी ही ज़्यादा रियायतें एकतरफ़ा ढंग से देते जा रहे हैं। अमेरिका जाने के पहले ही अमेरिकी उत्पादों पर आयात शुल्क में कमी शुरू हो गई थी। मस्क परिवार से मुलाक़ात के बाद उसकी टेस्ला गाड़ियों पर आयात शुल्क को 115 प्रतिशत से कम करके सिर्फ़ 15 प्रतिशत कर दिया गया है।

 

इस प्रकार, अभी के अमेरिका-भारत संबंधों में जो अजीब क़िस्म की विकृति दिखाई देती है, उसके मूल में अकेले ट्रंप नहीं, हमारे मोदी जी भी एक प्रमुख कारक है।आरएसएस की पुरानी नीति, कि अंग्रेज़ों की कृपा से भारत में सत्ता हासिल करो, मोदी अभी ट्रंप पर आज़मा रहे हैं और बदले में चाहते हैं कि उन्हें ‘विश्व गुरु’ आदि-आदि मान लिया जाए। ट्रंप ने लगता है कि मोदी के इस छद्म को पहचान लिया है और उसका लाभ लेते हुए बार-बार मोदी को उनकी औक़ात बताने से नहीं चूकते!

 

ट्रंप और मोदी के बीच इस प्रभु-दास वाले संबंध ने ही आज अमेरिका-भारत संबंधों की सूरत इतनी बिगाड़ दी है कि हर स्वाभिमानी भारतीय को उस पर गहरी शर्म का अहसास हो रहा है। ट्रंप आगामी चार साल तक मोदी को ऐसे ही अपना व्हिपिंग ब्वाय बना कर रखना चाहेंगे।

 

इस पूरे मामले में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि भारत में बीजेपी के ‘राष्ट्रवादियों’ ने इस पूरी खींच-तान में भारत की ब्रीफ़ को त्याग कर ट्रंप और अमेरिका की ब्रीफ़ थाम ली है2

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