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Sunday, May 4, 2025 1:55:30 PM

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हुए तुम दोस्त जिसके, दुश्मन उसका आसमाँ क्यूँ हो!!

हुए तुम दोस्त जिसके, दुश्मन उसका आसमाँ क्यूँ हो!!

रिपोर्ट : बादल सरोज

पिछले दस-आठ दिन जितने विरले घट-अघट इस देश और दुनिया ने देखे हैं, उतने इससे पहले कम ही देखे गए हैं, एक के बाद एक साथ तो पहले कभी भी नहीं देखे। पहला अघट 22 अप्रैल को भारत का स्विटज़रलैंड बताये जाने वाले कश्मीर के पहलगाम में घटा, जब मुट्ठी भर आतंकी आये, परिवार के साथ सैर करने गए पर्यटकों से उनका धर्म पूछा, उसके बाद उनमें से स्त्रियों और बच्चों को अलग किया और पुरुषों को गोली मार दी।

यह साधारण आतंकी हमला नहीं था। एक तो इसलिए कि यह दुनिया में सबसे अधिक सैन्य उपस्थिति वाले माने जाने वाले कश्मीर में हुआ था, उस इलाके में हुआ था, जिसे मोदी सरकार एकदम निरापद और सुरक्षित आदि-इत्यादि बताती रही है। इसलिए भी कि नरसंहार करने वाले किसी मुम्बईया फिल्म की तरह आसमान से उतरे और पूरी निश्चिन्तता के साथ जघन्यता को अंजाम देकर हवा में ही गुम हो गए। डेढ़ घंटे तक न कोई पुलिस आई, न सेना ही दिखी। इसी के साथ इसलिए भी इस नरसंहार के जरिये जिस तरह का सन्देश दिया गया, उसका दुष्ट इरादा स्पष्ट था। आतंकी जिस पटकथा को मंचित कर रहे थे, उसे लिखने वालों की मंशा भारत में पहले से तीखे हो रहे हिन्दू-मुसलमान के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को और ज्यादा तीव्र और जहरीला बनाने की थी।

देश के ज्यादातर लोगों ने आतंकी हमले के जरिये फैलाए गए इस जाल को समझा और इसके खिलाफ पूरे भारत को एकजुट बनाए रखने की आवश्यकता महसूस की ; इसे समुचित और एक स्वर में प्रत्युत्तर देने का अवसर माना। सर्वदलीय बैठक इसी तरह की एक विरली घटना थी, जब केंद्र सरकार के हर मामले में झूठ के बाद झूठ बोले जाने, सर्वदलीय बैठक के बाद केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के नाते मंत्री किरण रिरिजू द्वारा दिए अपने वक्तव्य में से महत्वपूर्ण अंश को खुद ही डिलीट किये जाने, देश पर इतने बड़े हमले के बाद हो रही सर्वदलीय बैठक में आने की बजाय बिहार के आगामी चुनावों के लिए सभाओं में रहने के खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के असामान्य और अस्वीकार्य आचरण के बावजूद विरोधी दलों ने इसे तूल नहीं दिया। इन सबको नजरअंदाज करते हुए दुनिया, खासकर आतंकियों और उनके सरपरस्तों को सन्देश दिया कि ऐसे मामलों में भारत एक साथ खड़ा है।

सर्वदलीय बैठक ने एक स्वर से जघन्य हमलों की निंदा की, दोषियों को दण्ड दिए जाने और ऐसा करने, करवाने वालों को सबक सिखाये जाने पर दृढ़ रुख अपनाया। इस बैठक में शामिल प्रायः सभी दलों ने आगाह भी किया कि इसे धार्मिक आधार पर देखना आतंकियों की कुटिल इच्छा को पूरा करना होगा, इसलिए ऐसे प्रयासों पर भी रोक लगाई जानी चाहिए। दोहराने में हर्ज नहीं कि लोकतांत्रिक प्रणाली में राजनीतिक पटल पर इतनी पूर्ण एकजुटता कम ही देखी जाती है, दुनिया में भी ऐसा कम ही हुआ दिखा है। सनद रहे कि 9/11 के अमरीका के ट्विन टावर पर हुए आतंकी हमलों के समय भी इस तरह की एकजुटता नहीं दिखी थी।

मगर जितनी विरल यह एकजुटता थी, उतनी ही, बल्कि उससे कई गुना वह गैर जिम्मेदारी थी, जो सरकार में बैठे विचार कुटुंब, यहाँ तक कि खुद केंद्र सरकार के मंत्रियों और भाजपा के नेताओं और आरएसएस की आईटी सैल ने दिखाई। वे तुरंत ही साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज करने के अपने पसंदीदा काम में लग गए। घटना घटते ही तुरंत संघी आईटी सैल और भाजपा के आधिकारिक ट्विटर और सोशल मीडिया अकाउंट्स जहरीली मुहिम में ऐसे धुआंधार तरीके से जुट गए, जैसे वे पहले से ही तैयार बैठे थे। उधर आतंकियों ने पहलगाम में नृशंस हत्याएं की और इधर इनकी वाल्स पर नफ़रती पोस्टर बंटने शुरु हो गए थे। इधर पूरा देश शोक में स्तब्ध था, आतंकी हमले में मारे गए पर्यटकों और उन्हें बचाने में मार डाले गए कश्मीरियों की मृत देहों से बहने वाला खून अभी तक सूखा भी नहीं था कि पूरा गिरोह इस नरसंहार के बहाने राजनीतिक नारा तैयार करके अलग अलग भाषाओं में, एक जैसी इबारत के अलग अलग तरह के पोस्टर्स लेकर भारतीयों के ही एक हिस्से और सारे विपक्ष के खिलाफ उन्माद भड़काने की आपराधिक करतूतों में लग गया।

आनन-फानन में टूल किट भी बन गयी और देश भर के भाजपा कार्यकर्ता, व्हाट्सएप्प गिरोह और हाउसिंग सोसायटियों में पधरे अंकलों की फ़ौज, मीडिया में बैठे इसी प्रजाति के चिरकुट और पेड ट्रोल आर्मी एक स्वर में इस कैंपेन को आगे बढ़ाने में लग गए। महज घंटे-दो घंटे में सारे देश में पहुंचा दी गयी इन सारी पोस्ट्स में दुःख या शोक का एक शब्द भर भी नहीं था। एक निहित सुप्त उल्लास, आल्हाद-सा टपक रहा था। यह फुर्ती का उदाहरण था या तैयारी का? जो भी था, मगर अपने सार और रूप दोनों यह भारतीय जनता में विभाजन करने का वही काम कर रहा था, जिसे पहलगाम में नरसंहार करने और उनसे ऐसा करवाने वाले चाहते थे।

बात सिर्फ प्यादों तक महदूद नहीं थी, वजीर भी इसी नफरती मोर्चे पर डटे हुए थे। मोदी के मंत्री पीयूष गोयल ने इस आतंकी हमले के लिए भारतीय लोगों की देशभक्ति पर ही सवाल उठा दिया है। उन्होंने कहा कि पहलगाम जैसे आतंकवादी हमले तब तक देश को परेशान करते रहेंगे, जब तक 140 करोड़ भारतीय देशभक्ति और राष्ट्रवाद को अपना “सर्वोपरि धर्म” नहीं मानते। पीयूष गोयल की यह बात “सूप बोले तो बोले, चलनी भी बोल उठी, जिसमे बहत्तर सौ छेद” की कहावत की याद दिलाने वाली है। देशभक्ति और राष्ट्रवाद को सर्वोपरि मानने वाली कथा वे सुना रहे थे, जो जिनकी पूरी महाकथा ही आजादी की लड़ाई के साथ अलगाव, धोखा, गद्दारी. माफीनामों और वजीफों से लिपी-पुती पड़ी है। पिछले 20 वर्षों में नीचे से ऊपर और बहुत ऊपर तक बैठकर पाकिस्तान और आईएसआई के लिए जासूसी करते पकडे गए लोगो में ज्यादातर वे हैं, जिनकी इस कुनबे के साथ संबद्धता के जाहिर-उजागर प्रमाण हैं।

सीधी सी बात है कि यह सिर्फ राष्ट्रवाद धूर्तों की आख़िरी शरणस्थली वाला प्रसंग भर नहीं है, यह हिन्दू-मुसलमान करने की एक ऐसी निकृष्ट कोशिश है, जो संकट और त्रासदी के समय में भी इस्तेमाल करने से ये ठग बाज नहीं आ रहे। यही कुत्सा और गैरजिम्मेदारी की अति वाली राजनीतिक महत्वाकांक्षा थी, जिसे न मोदी ने रोका, न संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कोई हिदायत दी। आगरा में दो मुसलमानों पर पहलगाम की कथित प्रतिहिंसा में गोली चला दी गयी, जिनमें से एक की मौत भी हो गयी। “हत्या करने वालों, 26 का जवाब 2600 को मारकर लेंगे” का विडियो भी जारी कर दिया। योगी सरकार उस विडियो को इन्टरनेट वालों से कहकर डिलीट करवाकर अब कोई कहानी गढ़ने में लगी है। आगरा में कोई गल्प गढ़ भी लेंगे, मगर उत्तराखण्ड में खुद सरकार के संरक्षण में कश्मीरियों पर होने वाले हमलों, महाराष्ट्र और देश के दूसरे स्थानों पर कश्मीरी विद्यार्थियों और शाल बेचने वालो को निशाना बनाकर की जाने वाली हिंसा, गया में एक पत्रकार पर हमला, असम में अचानक से हजार बांग्लादेशी ढूंढकर उन्हें खदेड़ने का सार्वजनिक समारोह किया जाना, और इन सबमें इसी गिरोह की लिप्तता साफ़ कर देती है कि पहलगाम नरसंहार करने वाले आतंकियों के दिखाए रास्ते पर चलकर उनके एजेंडे को पूरा करने का बीड़ा कौन उठाये हुए है। यह सचमुच में ज्यादा ही विरली कारगुजारी है।

सैन्य शास्त्र में सीधे युद्ध के अलावा जो तरीका सबसे ज्यादा अपनाया जाता है, वह दुश्मन देश में फूट और विघटन, उसकी जनता में बिखराव और विभाजन, एक दूसरे के प्रति बैर भाव और अफरातफरी फैलाने का होता है। इसके लिए वे हजारों करोड़ रुपया खर्च करते हैं। ऐसा करने वालों के लिए फिफ्थ कॉलमिस्ट – पंचमांगी – शब्द भी है। सरकारों और देश के प्रति लगाव रखने वालों की जिमेदारी इस पंचमांगी साजिशों को असफल करने की होती है ; यहाँ खुद सरकार में बैठी पार्टी और उसके तंत्र किसकी भूमिका निबाह रहे है, इसके लिए उन्हें खुद अपने गरेबान में झाँक कर देखना चाहिए। जहाँ इस तरह के ‘दोस्त’ हों, वहां किसी और दुश्मन की दरकार ही कहाँ बचती है!

यह इसके बावजूद है, जब पहलगाम के हादसे के शिकार हुए, उससे बचकर लौटे खुद इन्हीं की पार्टी के पदाधिकारी और इन्हीं की विचारधारा से जुड़े लोगों की आँखों देखी सच्ची कहानियां कुछ और ही हैं। वे उस हमले के दौरान कश्मीरियों द्वारा दिखाए गए अदभुत साहस की गाथाएँ लिख-लिखकर बता और सुना रहे हैं, अपनी और अपने परिवार की जान बचाने के लिए रुंधे गले से घोड़े वाले, होटल वाले, ऑटो वाले, गाइड कश्मीरियों, नजाकतों, शाहिदों और हुसैनों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर रहे हैं। जब मोदी सरकार के नियंत्रण वाली हवाई जहाज़ों की कम्पनियां अपना किराया दस गुना बढ़ाकर पूरी निर्लज्जता के साथ पीड़ितों को लूटने का अपना ‘राष्ट्रधर्म’ दिखा रही थीं और सरकार हाथ पर हाथ धरे ऐसा होते हुए देख रही थी, तब इस हमले से आहत, स्तब्ध और दुखी खुद्दार मेजबान कश्मीरी घबराए हुए पर्यटकों को पीठ पर लादकर सुरक्षित बचाने के बाजिब और निर्धारित किराए, मजदूरी और टिप्स के पैसे तक लेने से इनकार कर रहे थे।

अगले दिन पूरा कश्मीर बंद रखा गया। कश्मीर की विधानसभा ने ही नहीं, उसके हर गाँव-बस्ती में इस आतंकी नरसंहार के खिलाफ वे सडकों पर उतरे। मगर जिन पर इस तरह के हादसों को रोकने की पूरी जिम्मेदारी थी और जिसे निबाहने में वे पूरी तरह विफल रहे, केंद्र में सत्तारूढ़ उस पार्टी की सारी मुहिम ही इन कश्मीरियों और मुसलमानों के खिलाफ थी।

देश के नामी अभिनेता, निर्देशक, रंगकर्मी एम के रैना, जो मूलत: कश्मीरी भी हैं, ने इसे कुछ इस तरह पूछा है कि “मेहमान मुसलमानों की टैक्सियों में आए, मुसलमानों के स्वामित्व वाले होटलों में ठहरे, मुसलमानों द्वारा पकाया गया खाना खाया, मुसलमानों के टट्टुओं पर सवार हुए, मुसलमानों के मार्गदर्शन में ट्रैकिंग की। जब आतंकवादियों ने अपना हमला शुरू किया, तो वे मुसलमानों द्वारा बचाये गये, बचाव करते हुए मरने वाला पहला व्यक्ति मुसलमान था। जो लोग सबसे पहले मदद करने आए, वे मुसलमान थे। टट्टू के मालिक, ऑटो की सवारी और सुरक्षित स्थान तक ले जाने के लिए अपनी पीठ की सवारी मुसलमानों द्वारा की गई। प्राथमिक उपचार और बचाव मुसलमानों द्वारा किया गया, एम्बुलेंस मुसलमानों द्वारा चलाई गई, अस्पतालों में मुसलमान डॉक्टरों और नर्सों द्वारा इलाज किया गया। टैक्सी चालक, जो पर्यटकों को श्रीनगर वापस ले गए, वे मुसलमान थे। और इसके बावजूद सोशल मीडिया पर हर जगह कहा जा रहा है कि : “सभी मुसलमान आतंकवादी हैं।”

यह सिर्फ अति नहीं है, असल में यही इस कुनबे की रीति है। वे यही कर सकते है, क्योंकि वे यही करना जानते हैं। इसे विभाजन ही दिखता है, वही सूझता है और उसका तडका लगाकर वोट कैसे जुगाड़े जाएँ, हमेशा इसी जुगाड़ में रहते हैं। सऊदी की यात्रा से लौटकर प्रधानमंत्री पहलगाम नहीं, मधुबनी गए और अब कालातीत हो चुके नीतीश कुमार के साथ मंच पर खुलकर खिलखिलाए और चुनावी सभा में आतंकियों को अंग्रेजी में धमकाया। ये चुनावी सभाएं उनके लिए इतनी अहम् थी कि उन्हें आतंकी हमले के विरुद्ध देश की एकजुटता दिखाने के लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में शामिल होने का समय नहीं मिला। उनके लिए मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि देना भी रेड कारपेट पर चलने के एक इवेंट की तरह था।

धर्म पूछकर गोली चलाने को मुद्दा बनाया जाना जरूरी है। यह बहुत ही निंदनीय और अमानवीय बात है। मगर इसे वे लोग मुद्दा बनाएं, जो खुद धर्म पूछकर, नाम पूछकर हमले, हत्याएं और पक्षपात करते हों, जिनके सर्वोच्च नेता शमशान और कब्रिस्तान के नाम पर वोट मांगते हों और भारतीयों को उनके कपड़ों से पहचानते हों, तो यह कुछ ज्यादा ही निकृष्ट पाखंड है।

मगर इतने तीखे स्वर में राग विभाजन गाने और इनके पालित, पोषित मीडिया द्वारा उसे चौबीस घंटा, सातों दिन गुंजाने के बावजूद जब देश भर में मुसलमानों और कश्मीरियों के खिलाफ उन्माद भड़काने और जनता को उसमें उतारने की इनकी मनोकामना, जितनी ये चाहते थे उतनी, पूरी नहीं हुई। उलटे खुद प्रभावित और बाकी सजग भारतीय सरकारी दावों पर सवाल उठाने लगे, उनके झूठों और अर्धसत्यों की जांचपड़ताल करने लगे। जाहिर-उजागर विफलताओं को देखने लगे, तो खीज में आकर अब ये सवाल उठाने वालों का मुंह बंद कर देने पर आमादा है ।

इसका एक तरीका ट्रौल आर्मी के भेड़ियों को छू कर देने का है,। जनसता के सम्पादक रहे राहुल देव जैसे पत्रकार, जिन्हें कोई भी वामपंथी या जनवादी नहीं कह सकता, भी इस ट्रौलिया ब्रिगेड से इतने परेशान हुए कि अपनी बेटी को निशाना न बनाने की गुहार लगाते हुए उन्हें सोशल मीडिया से उसका फोटो हटाना पड़ गया। राहुल देव अकेले नहीं हैं, मगर निशाने पर नए-नए आये हैं। भोजपुरी की युवा लोक गायिका नेहा सिंह राठौर और इसी तरह की एक और लोकप्रिय यू-ट्यूबर डॉ. मेडुसा को उनकी अभिव्यक्तियों के लिए देशद्रोह सहित कई धाराओं में एफआईआर में नामजद कर दिया गया। 4 पीएम नाम के न्यूज़ चैनल को तो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताकर बंद ही करवा दिया गया। कई दीगर चैनल्स और यू-ट्यूबर्स के साथ भी ऐसा या तो किया जा चुका है या किये जाने की तैयारी है।

कथित मुख्यधारा मीडिया को पूरी तरह तबेले में बांधने के बाद अब जनता के बीच सन्देश और सच पहुंचाने के बचे खुचे स्रोत भी सुखाने और देश को भुतहा बंजर बना देने की साजिशें तेज कर दी गई हैं। मकसद यही है कि लोग विफलताओं पर सवाल न उठायें, कि लोग आसानी से ध्रुवीकरण की मथनी में मथ जाएं, कि लोग नदियों का पानी बंद करने के कथित जवाब के साथ यह न पूछें कि क्रिकेट, फिल्म और पानी बंद करने के एलानों के साथ क्या पाकिस्तान के साथ अडानी, अम्बानी, जिन्दलों के व्यापारों और अजित डोभाल के सपूत की पाकिस्तानियों के साथ मिलकर चलाई जा रही कंपनियों पर कोई बंदिश या प्रतिबंध लगेंगे या सब हवा हवाई होगा।

देश ने जिस सौहार्द और समझदारी का परिचय दिया है, उसे भावनात्मक से तर्कपूर्ण और तथ्यात्मक बनाकर ही निरंतरित रखा जा सकता है, मजबूत बनाया जा सकता है। और चूंकि हुक्मरान यह नहीं होने देना चाहते, थे, इससे ठीक उलटा करना चाहते हैं, इसलिए ‘हम भारत के लोगों’ को ही यह करना होगा ।

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