जेएनयू को ख़त्म किया जा रहा है ताकि हिन्दी प्रदेशों के ग़रीब नौजवानों के बीच अच्छी यूनिवर्सिटी का सपना ख़त्म कर दिया जाए. सरकार को पता है. हिन्दी प्रदेशों के युवाओं की राजनीतिक समझ थर्ड क्लास है. थर्ड क्लास न होती तो आज हिन्दी प्रदेशों में हर जगह एक जे एन यू के लिए आवाज़ उठ रही होती. ये वो नौजवान हैं जो अपने ज़िले की ख़त्म होती यूनिवर्सिटी के लिए लड़ नहीं सके. क़स्बों से लेकर राजधानी तक की यूनिवर्सिटी कबाड़ में बदल गई. कुछ जगहों पर युवाओं ने आवाज़ उठाई मगर बाक़ी नौजवान चुप रह गए. आज वही हो रहा है. जे एन यू ख़त्म हो रहा है और हिन्दी प्रदेश सांप्रदायिकता की अफ़ीम को राष्ट्रवाद समझ कर खांस रहा है.
यह इस वक्त का कमाल है. राष्ट्रवाद के नाम पर युवाओं को देशद्रोही बताने के अभियान के बाद भी जे एन यू के छात्र अपने वक्त में होने का फ़र्ज़ निभा रहे हैं. इतनी ताकतवर सरकार के सामने पुलिस की लाठियां खा रहे हैं. उन्हें घेर कर मारा गया. सस्ती शिक्षा मांग किसके लिए है? इस सवाल का जवाब भी देना होगा तो हिन्दी प्रदेशों के सत्यानाश का एलान कर देना चाहिए. क़ायदे से हर युवा और मां-बाप को इसका समर्थन करना चाहिए मगर वो चुप हैं. पहले भी चुप थे जब राज्यों के कालेज ख़त्म किए जा रहे थे. आज भी चुप हैं जब जे एन यू को ख़त्म किया जा रहा है. टीवी चैनलों को गुंडों की तरह तैनात कर एक शिक्षा संस्थान को ख़त्म किया जा रहा है.
विपक्ष अनैतिकताओं के बोझ से चरमरा गया है. वो हर समय डरा हुआ है कि दरवाज़े पर जो घंटी बजी है वो ईडी की तो नहीं है. सीबीआई की साख मिट्टी हो गई तो अब प्रत्यर्पण निदेशालय से डराया जा रहा है. भारत का विपक्ष आवारा हो गया है. जनता पुकार रही है मगर वो डरा सहमा दुबका है. इन युवाओं को लाठियां खाता देख दिल भर आया है. ये अपना भविष्य दांव पर लगा कर आने वाली पीढ़ी का भविष्य बचा रहे हैं. कौन है जो इतना अधमरा हो चुका है जिसे इस बात में कुछ ग़लत नज़र नहीं आता कि सस्ती और अच्छी शिक्षा सबका अधिकार है. साढ़े पांच साल हो गए और शिक्षा पर चर्चा तक नहीं है.
अर्धसैनिक बल लगा कर सड़क को क़िले में बदल दिया गया है. छात्र निहत्थे हैं. उनके साथ उनका मुद्दा है. देश भर के कई राज्यों में कालेजों की फ़ीस बेतहाशा बढ़ी है और उसके ख़िलाफ़ प्रदर्शन भी हो रहे. प्राइवेट मेडिकल कालेजों में बड़ी संख्या में पढ़ने वाले छात्र भी परेशान हैं. मगर सब जे एन यू से किनारा कर लेते हैं क्यों? क्या ये सबकी बात नहीं है? क्या हिन्दी प्रदेशों के नौजवानों अभिशप्त ही रहेंगे? जिस देश में मुद्दों का एवरेस्ट खड़ा हो और जहां आबादी का ज़्यादातर हिस्सा उस मुद्दों के एवरेस्ट पर चढ़कर फ़तह हासिल करने की बजाए बगल से गुज़रकर, देखकर भी नज़रअंदाज़ करने में विश्वास रखता आया हो, वहां अचानक जेएनयू विवाद का मुद्दा इतना बड़ा क्यों और कैसे हो गया कि न चर्चाएं खत्म हो रही हैं और ना ही लोगों के ख़ून का उबाल। कुछ छात्रों के जमा होकर ऐसे नारे लगाने से जिनपर सवाल उठाए जा सकते हों, पूरा देश अपने जवाब तैयार किए क्यों बैठा है? क्या वाकई उस शाम जेएनयू में कुछ ऐसा हुआ है जिसे लोग चाहकर भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते या कर पा रहे?
बीते दस दिन में जेएनयू विवाद देशद्रोह, देशभक्ति, यूनिवर्सिटी की स्वयात्तता, छात्रों के अधिकार, कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी, कुछ वकीलों की गुंडागर्दी, पत्रकारों की पिटाई से होता हुआ न जाने कहां से कहां पहुंच चुका है। लेकिन सवाल अब भी वही है कि इतना सबकुछ हुआ क्यों और कैसे? दरअसल, पूरा मसला भविष्य के नेताओं और मौजूदा नेताओं की राजनीति की भेंट चढ़ चुका है। उस शाम जिन छात्रों को अफ़ज़ल गुरु की फांसी में न्यायिक कत्ल की शक्ल नज़र आ रही थी उनमें से एक तबका ऐसा था जिसे उस चर्चा में अपनी भविष्य की राजनीति दिख रही थी, तो कुछ उस चर्चा को विवाद की शक्ल देने में अपना भविष्य तलाश रहे थे। चर्चा और विवाद के बीच की महीन दूरी उन नारों ने मिटाई जिनमें कश्मीर की आज़ादी की गूंज थी तो हर घर से अफ़जल गुरु के निकलने की बात भी। ये नारे किन्होंने लगाए ये भले न साफ़ हो, लेकिन इतना साफ़ है कि नारे लगाने की हवा देने वाले अपना फ़ायदा देख रहे थे। लड़ कर आज़ादी लेने की बात करने वालों में से ज्यादातर ने चेहरे क्यों ढक रखे थे, सोचिएगा।
जेएनयू में अगर ऐसी चर्चाओं का इतिहास पुराना है तो फिर उन ढके चेहरों के पीछे कौन सा डर छिपा था? भीड़ कई बार सिर्फ़ चलती है, बिना दिशा सोचे और देखे। ये गुमनाम चेहरे उस भीड़ को चला रहे थे और अब गायब हैं। कहां गए वो, क्या पहचान थी उनकी और क्यों छिपाई गई पहचान, सोचिएगा। उधर, वीडियो बनाने वाले अगर इतने ही गंभीर थे तो यूनिवर्सिटी प्रशासन के पास जाने की बजाए वीडियो को वायरल करने में क्यों लग गए? जिस जेएनयू का सच या कथित सच वो बताना चाह रहे थे, वो सच अगर उनकी नज़र में इतना विभत्स है तो वो वहां पढ़ क्यों रहे हैं? जेएनयू अगर देशद्रोहियों का गढ़ है तो वो उस गढ़ में क्या कर रहे हैं? वीडियो वायरल होकर हंगामा तो खड़ा कर सकता था, लोगों को राजनीति चमकाने का मौका तो दे सकता था लेकिन मसले का हल नहीं निकाल सकता था, ये वो भी जानते थे, लेकिन उन्हें भी हल नहीं मुद्दा चाहिए था जो उन्होंने हासिल कर लिया। इसपर भी सोचिएगा।
जो मसला यूनिवर्सिटी प्रशासन के अंदर ही सुलझाया जा सकता था, छात्रों को बुलाकर समझाया जा सकता था या फिर उनपर दंडात्मक कार्रवाई हो सकती थी, वो मसला थाने और कचहरी तक पहुंच गया। और सिर्फ़ वहीं तक नहीं, हर ड्रॉइंगरूम और बेडरूम तक भी पहुंच गया। हर न्यूज़ चैनल अपने हिसाब से और अपने अपने हिस्से का सच दिखाने लगे। क्या आपको पूरा सच कभी भी परोसा गया, इसपर भी सोचिएगा। दिल्ली पुलिस का मामलों को कायदे से हैंडल न करने का इतिहास है। चाहे रामदेव के आंदोलन में रात में घुसकर लाठियां भांजने वाली दिल्ली पुलिस हो या फिर बिना पूरे सबूत के जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार करने वाली दिल्ली पुलिस, हर बार वो आनन फ़ानन में क्यों रहती है? अपना काम करने की बजाय वो किसी को ख़ुश करने वाले कदम या किसी के कहने पर कदम उठाने के सवालों से हर बार क्यों घिर जाती है और इसबार भी ऐसा ही कुछ क्यों हुआ, सोचिएगा
यह इस वक्त का कमाल है. राष्ट्रवाद के नाम पर युवाओं को देशद्रोही बताने के अभियान के बाद भी जेएनयू के छात्र अपने वक्त में होने का फ़र्ज़ निभा रहे हैं.
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