महराजगंज। बृजमनगंज क्षेत्र के बंगला चौराहे पर तीन दिवसीय राष्ट्रीय संत श्री असंग देव महराज का कार्यक्रम का आयोजन किया गया है कार्यक्रम के दूसरे दिन पूरा पाण्डाल श्रद्धालुओ से भरा हुआ था। श्रद्धालुगण संत श्री असंग देव महराज का प्रवचन मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे। संत श्री असंग देव महराज ने प्रवचन के द्वारा बताया कि'अतिथि देवो भव' अर्थात् अतिथि यानि घर आए मेहमान को भगवान मानो। ऐसा हमें समझाकर अतिथि का सम्मान करना सिखाने वाली भारतीय सांकृतिक परम्परा ही हो सकती है कोई अन्य नहीं।
असंग देव महाराज ने बताया कि हमारे ग्रन्थों के अनुसार अतिथि साधु, सन्तों या विद्वानों को कहते थे। ये वे लोग होते थे जो दुनियादारी से दूर रहकार समाज का दिशा-निर्देश करते थे। ऐसे ज्ञानी जन कभी भी किसी भी गाँव या प्रदेश में चले जाते थे। जहाँ शाम या रात हो गयी वहीं डेरा डाल लेते थे। जन-साधारण को ज्ञानोपदेश देकर एक-दिन रुककर आगे निकल जाते थे।
ये विद्वत जन मोह-माया से परे किसी स्थान पर अधिक समय नहीं ठहरते थे। इन लोगों के आने का कोई निश्चित समय नहीं होता था। इसलिए अ + तिथि यानि बिना तिथि आने वाले कहलाते थे। बिना नखरा किए जो भी उन्हें मिल जाता था, उसे खा लिया करते थे।
वास्तव में ये अतिथि समाज की धरोहर होते थे, जिनके भरण-पोषण करने का दायित्व समाज पर होता था। ये समाज पर बोझ नहीं होते थे, बल्कि समाज का उचित मार्गदर्शन करके उनकी आत्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते थे।
आजकल अन्यों की तरह अतिथि के मायने भी बदल गए हैं। अतिथि तो अब भी हमारे घरों में आते हैं पर बिना बताए नहीं आते। आज इस भौतिक युग में चारों ओर मारामारी हो रही है, आपाधापी मची हुई है। किसी को किसी से मिलने का समय ही नहीं है। सच्ची बात तो यह है कि कोई किसी से मिलना ही नहीं चाहता। सभी अपने को तीसमारखाँ समझते हैं। अगर मजबूरी में मिलना भी पड़े तो सभी को भारी पड़ता है। सब समय न होने का रोना रोते रहते हैं।
वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है केवल हममें इच्छा शक्ति की कमी है। वैसे अपनी मर्जी से व्यर्थ में हम घण्टों बरबाद कर देते हैं। खैर, फिर भी मेहमानों का आना जाना तो लगा ही रहता है।
मेहमान भी अब बहुत समझदार हो गए हैं। वे भी दूसरे की मजबूरी जानते हैं। इसलिए बिना पूर्व सूचना के नहीं आते। जो लोग हमें पसन्द होते हैं, उनका स्वागत हम गर्मजोशी से करते हैं। जिन्हें हम नापसन्द करते हैं, उनके घर आने पर हम अनमने हो जाते हैं। उनका सत्कार हम करते तो हैं पर भार समझ कर।
आज के युग में किसी के घर में कुछ दिन रहने की बात बड़ी विचित्र-सी प्रतीत होती है। परन्तु कुछेक स्थितियों में रहने के लिए भी आना होता है। जब किसी के घर रहने की आवश्यकता हो तो तो अपने अतिथि धर्म का निर्वहण करना चाहिए। कहना यही है कि मेहमान को दूसरे के घर में मेहमान न बनकर घर के सदस्य की भाँति व्यवहार करना चाहिए। ऐसा करने पर वह बोझ नहीं बनता बल्कि सबका प्रिय बन जाता है। जब वह पुनः कभी वहाँ जाता है तो खुले दिल से उसका स्वागत किया जाता है।
इसके विपरीत जो अपनी अकड़ में रहकर दूसरे के घर की व्यवस्था के अनुरूप ढलना नहीं चाहता वह अतिथि अपने मेजबान की आँखों में खटकता है। उससे कोई प्रसन्न नहीं होता और सभी यही मनाते हैं कि वह शीघ्र ही चलता बने।
मित्रों अथवा सम्बन्धियों के घर जाते समय अपने आप को सन्तुलित रखना चाहिए। बच्चों को भी अनुशासन में रहने के लिए समझाना चाहिए। तभी किसी के घर जाने में सम्मान मिलता है। बच्चों की उद्दण्डता के कारण भी कई बार अतिथि व आतिथेय में मनमुटाव हो जाता है। इस अप्रिय स्थिति से हमेशा बचने का प्रयास करें।
असंग देव महाराज ने बताया कि अतिथि को भगवान की तरह मानने की परम्परा वाले अपने देश में समय व परिस्थितियों के चलते चाहे कुछ स्वाभाविक बदलाव आए हैं परन्तु आज भी अतिथि का स्वागत-सत्कार अपनी सामर्थ्य के अनुसार किया जाता है। बिना सोचे आँख मूँद कर किसी बात को मानने के बजाय न कहने की आदत भी डालिए। जीवन में बहुत से ऐसे मोड़ आते हैं जब मनुष्य के समक्ष दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उस समय भी यदि न नहीं कह पाए तो बहुत बड़ी समस्या में भी घिर सकते हैं। तब 'न' कहिए और सुखी रहिए। सुनने में थोड़ा विचित्र लग रहा है पर यह एक सच है। इसका स्वयं अनुभव कीजिए फिर बताइएगा कि ऐसा करना उचित होता है।
घर-परिवार में अक्सर ऐसा होता है कि माता-पिता, पति-पत्नी, आस-पड़ोस में आम व्यवहार में कई बातें नापसन्द होती हैं। उस समय उनकी बातों को न चाहते हुए भी चुप रह जाते हैं और बाद में अपने मन में जलते-कुढ़ते रहते हैं। तब उस समय हमारे पास अपना मन मसोस कर रह जाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं बचता। ऐसा करने से स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। हम अनचाहे रोगों को दावत दे देते हैं। कई बार देखा है सोचते और कुढ़ते लोग कुण्ठा का शिकार हो जाते हैं।
उस समय यदि मन कड़ा करके न कह देते तो शायद मानसिक परेशानी से मुक्ति मिल जाती। इसका यह तात्पर्य कदाचित नहीं कि हर बात के लिए न कह दिया जाए। कभी-कभी अनावश्यक न कह देने से परिवारों में विघटनकारी स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। ऐसे समय चुप लगाना श्रेयस्कर होता है या फिर विवाद की स्थिति टलने के बाद अपने मन की बात स्पष्ट करनी चाहिए।
माता-पिता सन्तान के हित चिन्तक होते हैं। अगर वे बच्चों को उनके किसी व्यवहार के लिए रोकते हैं या डाँट-डपट करते हैं तो बच्चों को उनका कहना मानना चाहिए। यह नहीं सोचना चाहिए कि वे उनका कहना न मानकर उन्हें नजरअन्दाज कर रहे हैं। हाँ, इस प्रसंग में मैं इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि यदि बच्चों को माता-पिता की कोई बात पसन्द नहीं आती तो उन्हें चुप रहकर उनकी बात माननी चाहिए।
समय बीतने पर जब उनका गुस्सा ठंडा हो जाए तब अपनी बात दृढ़तापूर्वक रखनी चाहिए यदि वह बात उचित है तो। यदि वे मान जाएँ तो बहुत अच्छी बात है और न मानें तो यह समझ लेना चाहिए कि उनकी माँग नाजायज़ है। वे बड़े हैं और अधिक अनुभवी हैं तथा उन्हें दुनियादारी का ज्ञान भी बच्चों से अधिक होता है।
इसके अतिरिक्त भी बहुत-से ऐसे पल आते हैं जब बच्चे सही होते हैं। उस समय माता-पिता को अनावश्यक हठ करके उनकी बात को न नहीं कहना चाहिए।
बड़ों की गलत बातों को न अवश्य कहना चाहिए पर फिर भी कोशिश यही होनी चाहिए कि परिवार में किसी भी प्रकार से कटुता न आए।
इसी प्रकार आस-पड़ोस में भी दूसरों के गलत फैसलों पर अपनी मोहर न लगाएँ बल्कि उन्हें सही-गलत के बारे में भी समझाएँ। वे लोग यदि विवेकी होंगे तो आपकी बात की गहराई को समझकर आपका लोहा मानेंगे और सयम-सयम पर आपसे विचार-विमर्श भी करेंगे।
कार्यक्रम के आयोजक राजन जायसवाल एवं राधेश्याम जायसवाल ने बताया कि संत जी महराज जी का आश्रम छत्तीसगढ़ में है। कार्यक्रम के अध्यक्ष अशोक भाई गुप्ता ने बताया कि संत असंग देव महराज के दर्शन मात्र से ब्यक्ति के अंदर की दुर्बुद्धि सद्बुद्धि मे परिवर्तित हो जाता है। सुखद सत्संग प्रबचन
आयोजक राजन जायसवाल,
अध्यक्ष अशोक भाई गुप्ता
गणेश गुप्ता, धर्मेंद्र वर्म, हरिद्वार गुप्ता, रामबेलास् यादव, राघवेंद्र जाय सवाल, आशीष जायसवाल, जगदम्बा जायसवाल उपस्थित रहे।
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