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Wednesday, April 23, 2025 1:24:31 PM

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सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की साजिश का हिस्सा है औरंगजेब पर हमला

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की साजिश का हिस्सा है औरंगजेब पर हमला

रिपोर्ट  : संजय पराते

 

महाराष्ट्र का पूरा नागपुर आज कर्फ्यू की चपेट में है। इसी नागपुर में आरएसएस का मुख्यालय है, जहां बरसों तक तिरंगा नहीं फहराया गया था। जिन लोगों ने इस मुख्यालय में घुसकर तिरंगे को फहराने का दुस्साहस किया था, उन्हें मुकदमेबाजी का सामना करना पड़ा था। भाजपा को दिशा-निर्देश भी यही से जारी होते हैं, क्योंकि भाजपा कोई स्वतंत्र राजनैतिक दल नहीं है, बल्कि आरएसएस की राजनैतिक भुजा मात्र है। इस बात को स्वीकार करने में पहले संघी गिरोह शर्माता था। लेकिन पिछले एक दशक में राजनैतिक वातावरण इतना बदला है कि भाजपा खुलेआम आज संघ को अपना मातृ संगठन स्वीकार करती है। संघ भी आज खुलेआम भाजपा को जीताने के लिए काम करती है। दोनों के अंदरूनी संबंध आज जगजाहिर है और लुका छिपी का खेल खत्म हो गया है।

 

संघ इस वर्ष कुछ महीनों बाद ही अपनी स्थापना का शताब्दी वर्ष मनाने जा रहा है। इस शताब्दी वर्ष में उसका लक्ष्य है : भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना/घोषित करना। बहरहाल, तमाम कुचालों के बावजूद उसका यह सपना पूरा नहीं होने जा रहा है। यह पहला मौका है कि प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति सहित तमाम संवैधानिक संस्थाओं के प्रमुख पदों पर संघी गिरोह ने कब्जा कर लिया है और अपनी इस ताकत और प्रशासन को अपने नियंत्रण में रखने की ताकत का वह बेजा इस्तेमाल संविधान को निष्क्रिय करने और संवैधानिक मूल्यों को कमजोर करने के लिए कर रहा है। इसके बाद भी, हिंदू राष्ट्र का उसका सपना दूर की बात है, तो इसलिए कि भारत में धर्मनिरपेक्षता की जड़ें बहुत गहरी हैं। हालांकि नफरत और तनाव को फैलाकर और सांप्रदायिक दुष्प्रचार के जरिए इसकी जड़ों में मट्ठा डालने का काम लगातार किया जा रहा है।

 

अब इस काम के लिए औरंगजेब को हथियार बनाया जा रहा है। तथ्यों और वास्तविकताओं को किनारे करके, मुगल काल की चुनिंदा घटनाओं की सांप्रदायिक व्याख्या करने में संघी गिरोह को महारत हासिल है। इतिहास का उपयोग वह वर्तमान भारत के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए ही करता है। इस कोशिश में वह शिवाजी महाराज को हिंदुओं के नायक के रूप में और औरंगजेब को मुस्लिम खलनायक के रूप में पेश करता है। लेकिन औरंगजेब काल के इतिहास के उसकी सांप्रदायिक व्याख्या को बल मिला “छावा” नामक प्रचार फिल्म से, जिसके लेखक शिवाजी सावंत का हिंदुत्ववादी दृष्टिकोण किसी से छुपा हुआ नहीं है। इस फिल्म को देखने के बाद उत्तेजित दर्शकों ने बिना किसी कारण के मुस्लिम समुदाय के जान-माल पर हमले किये और प्रशासन निष्क्रिय रहा या कहिए, उसे निष्क्रिय रहने का आदेश दिया गया। फिर औरंगजेब की कब्र उखाड़ने की मांग हुई, 17वीं शताब्दी के मृत बादशाह का पुतला 21वीं शताब्दी में जलाया जाता है और इस तरह सुनियोजित रूप से उस दंगे और तनाव का आयोजन किया जाता है, जिसका मूर्त रूप नागपुर में संघी गिरोह की सरपरस्ती में देखने को मिल रहा है। औरंगजेब की कब्र उखाड़ने के लिए ठीक प्रकार का माहौल बनाया जा रहा है, जिस प्रकार का माहौल बाबरी मस्जिद के ध्वंस के लिए बनाया गया था। मस्जिद हो या कब्र, या हो दरगाह-मजार, असली बात है संघ-भाजपा का मकसद पूरा होना। इस काम के लिए उसने अपनी तमाम हिंदुत्ववादी सेनाओं को पूरे देश में लगा दिया है। ये सेनाएं अपने विध्वंसक काम को राष्ट्रवाद का नाम देती है और भाजपा राज में ये सेनाएं ही कानून व्यवस्था का काम संभाल रही है, पुलिस तो उसकी केवल सहयोगी है।

 

औरंगजेब की सेना और प्रशासन में बड़ी संख्या में हिंदू अधिकारी शामिल थे। राजा जय सिंह प्रथम, राजा जसवंत सिंह और राजा रघुनाथ दास उसके शासन के अंग थे। शिवाजी के साथ युद्ध सहित उसने अपने कई अभियानों में कई मराठा सरदारों और हिंदू योद्धाओं को नियुक्त किया। शिवाजी और मराठों के साथ उनका युद्ध धार्मिक दुश्मनी से नहीं, बल्कि क्षेत्रीय नियंत्रण से प्रेरित थे। औरंगज़ेब ने कई हिंदू मंदिरों को ज़मीन और धन दान किया, जिसमें उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर और बनारस के विश्वनाथ मंदिर के पुजारियों को सहायता उल्लेखनीय है। उसके काल में ही गुजरात में शत्रुंजय पहाड़ियों में जैन मंदिरों को संरक्षण दिया गया था। उसने कानूनी बहुलवाद को बरकरार रखा, अर्थात् हिंदुओं पर उनके अपने धार्मिक कानून लागू होते थे और मुस्लिम कानून मुसलमानों पर लागू होते थे। उसने नागरिक मामलों में गैर-मुसलमानों पर शरिया लागू नहीं किया। औरंगजेब ने कई भ्रष्ट अधिकारियों को बर्खास्त करके प्रशासनिक सख्ती बरती और ऐसा उसने उनके धर्म की परवाह किए बिना किया।

 

उसके शासन काल में 1679 में गैर-मुसलमानों पर जजिया कर लागू किया गया था, लेकिन यह कर ब्राह्मणों, महिलाओं, बच्चों और गरीबों पर लागू नहीं होता था और उनकी सेना और प्रशासन में हिंदुओं को इससे छूट दी गई थी। इसी तरह, उन्होंने मुस्लिमों पर जकात (इस्लामी कर) लगाया। लेकिन ये कर राजस्व के प्राथमिक स्रोत नहीं थे। भूमि राजस्व प्राथमिक कर था, जो सभी पर समान रूप से लगाया जाता था, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो।

 

औरंगजेब का शासन में राजनीतिक व्यावहारिकता थी, तो सैन्य और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से भी संचालित था। औरंगजेब सामंती शासन का प्रतीक है, न कि लोकतांत्रिक शासन था। काशी विश्वनाथ और केशव देव मंदिर को उसने ध्वस्त किया, क्योंकि इसके संरक्षकों ने औरंगजेब के खिलाफ विद्रोह कर दिया था और यह उसकी राजनैतिक आवश्यकता थी। सभी मुगल बादशाहों ने इसी तरह की कार्यवाहियों की थी और तब यह न धार्मिक कट्टरता मानी जाती थी और न धार्मिक सहिष्णुता। इस्लाम की सख्त व्याख्या करने के कारण उसने अपने दरबार में संगीत पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन यह भी सत्य है कि नृत्य और संगीत कला का अभूतपूर्व विकास मुगल काल में ही हुआ है। अन्य मुगल शासकों के विपरीत, औरंगज़ेब ने एक साधारण जीवन जिया और निजी खर्चों के लिए राज्य के धन का इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया था।

 

औरंगजेब के बारे में इतिहास की सच्चाई यही है। संघी गिरोह इनमें से कुछ चुनिंदा चीजों को उठाकर उसकी व्याख्या इस तरह करता है कि उसके हिन्दुत्व के काम में आए। इतिहास का विकृतिकरण इसे ही कहते हैं। इस विकृतिकरण के चलते, मुगल शासन के 300 साल बाद, हिंदुस्तान को अंग्रेजों से राजनैतिक आजादी मिलने के बाद और एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की स्थापना होने के बाद भी आज वह हिंदुओं को उत्पीड़ित और मुस्लिमों को उत्पीड़क के रूप में पेश कर रहा है।

 

इस दौरान जितने भी लोगों ने औरंगजेब के शासन का सम्यक, संतुलित और ऐतिहासिक आंकलन पेश किया है, संघी गिरोह ने उन पर राष्ट्रद्रोह का ठप्पा लगाने और मुस्लिमों का पक्ष लेने का आरोप लगाया है और उनके खिलाफ झूठे मामले बनाने की कोशिश कर रही है। इतिहास के सच को नकारने के लिए वह अपनी ताकत इस्तेमाल आम जनता को उत्पीड़ित करने के लिए कर रही है। लेकिन इस खतरे को उठाते हुए भी हम कहना चाहेंगे : कहेंगे, हां कहेंगे हम, औरंगजेब का शासन धर्मनिरपेक्ष था, जिस पर हिंदुस्तान को गर्व है! शिवाजी महाराज धर्मनिरपेक्ष थे, जिस पर हिंदुस्तान को गर्व है। न औरंगजेब सांप्रदायिक था, न शिवाजी कट्टर। इस देश में विकसित हिंदुस्तानी तहजीब के ये दोनों अंग थे। औरंगजेब और शिवाजी के बिना इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती।

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