सिद्धार्थनगर। खेसरहा अगर आप प्रोटीन और विटामिन ई की शरीर में पूर्ति में लिए मछली खाने के शौकीन हैं तो बड़े आकार वाली थाई मांगुर से थोड़ा फासला बनाए रखिए। स्वाद के लिए जरा सी असावधानी बरतने पर मछली की यह प्रजाति हृदय रोग, डायबिटीज, आर्थराइटिस जैसे वंशानुगत रोगों को बढ़ावा दे सकती है। चिकित्सा विज्ञान के शोधों में थाई मांगुर को जेनेटिक रोगों का वाहक पाए जाने पर दुनियां के कई देशों में इस प्रजाति के मत्स्य पालन को प्रतिबंधित किया जा चुका है, लेकिन कम समय में अधिक मुनाफा पाने केे लालच में मत्स्य पालक जिले के तालाबों में इसका कुनबा तेजी से बढ़ा रहे हैं। मत्स्य पालन केे लिहाज से जिले की आबोहवा हमेशा अनुकूल रही है।
इसलिए थाई मांगुर के प्रति मत्स्य पालकों का रुझान बढ़ा है।
मत्स्य विभाग के अधिकारी भी मानते हैं कि जो मत्स्य पालक तालाबों का पट्टा ले रहे हैं, उनका थाई मांगुर के उत्पादन में बढ़ता रुझान भविष्य के लिए खतरे की घंटी बजा रहा है। उनका कहना है कि छोटे आकार वाली देशी मांगुर तैयार होने मेें करीब तीन-चार माह का समय लगता है जबकि थाई मांगुर डेढ़-दो माह के अंतराल में दोगुने आकार की हो जाने से बाजार में भेजने लायक हो जाती है। प्रतिबंधित होने के कारण उसका बीज भी मछली की अन्य प्रजातियों की तुलना में सस्ती दरों पर मिल जाता है। मत्स्य पालकों को सिर्फ लागत और वजन से सरोकार रहता है। यही वजह है कि जिले मेें थाई मांगुर प्रजाति तेजी से पनप रही है। इस तरह कोई शिकायत मिलने पर विभागीय निरीक्षक तालाबों का निरीक्षण करते हैं तो मत्स्य पालक उनसे दबंगई दिखाने पर आमादा हो जाते हैं।
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