रिपोर्ट : संजय पराते
नोटबंदी के बाद मोदी सरकार का दावा था कि आतंकवाद की कमर तोड़ दी गई है। संविधान के अनुच्छेद-370 को खत्म करते हुए दूसरा दावा था कि आतंकवाद की जड़ को खत्म कर दिया गया है। संसद में इस सरकार ने बार बार अपनी पीठ ठोंकी है कि कश्मीर घाटी में सब ठीक है, आतंकवाद कांग्रेस के जमाने की चीज रह गई है। कल पहलगाम में पर्यटकों पर हुए हमले ने साबित कर दिया कि जम्मू कश्मीर में न आतंकवाद की जड़ खुदी है और न कमर टूटी है।
कुछ ही दिनों पहले पाकिस्तान ने आरोप लगाया था कि बलूचिस्तान में ट्रेन पर हुए हमले में भारत का हाथ है। भारत और पाकिस्तान की सरकारों के बीच ऐसे आरोप-प्रत्यारोप चलते रहते हैं। लेकिन क्या यह बात मानी जा सकती है कि केवल पाकिस्तान ही भारत पर आतंकी हमला करता रहता है और पाकिस्तान के अंदर भारत कोई गड़बड़ी नहीं करता? हो सकता है कि ये आतंकी हमला इसी की प्रतिक्रिया हो। यदि न भी हो, तो भी इस हमले के पाकिस्तान प्रायोजित होने में किसी को कोई संदेह नहीं है। सवाल सिर्फ यही है कि यदि पहलगाम हमले में पाकिस्तान का हाथ है, तो भारत सरकार की आंख और कान (इंटेलीजेंस) कहां थी, क्या कर रही थी? जैसी कि खबरें छनकर आ रही है कि ऐसी अनहोनी होने की भनक इंटेलीजेंस को थी, उसका सक्रिय न होना या निष्क्रियता की हद तक जाकर ऐसी सूचनाओं को नजरअंदाज करना हमारी इंटेलीजेंस की सक्षमता पर और बड़े सवाल खड़े करता है। इतना ही बड़ा सवाल खड़ा होता है कश्मीर मामले को डील करने में केंद्र सरकार की नीतियों की विफलता पर। पिछले 12 सालों में कम-से-कम 6 बड़े हमले हुए हैं, जिनमें कम-से-कम 95 लोगों की जान गई है। पिछला हमला तो पिछले साल जून में ही हुआ था। भाजपा सरकार लोगों को सुरक्षा देने में और हमलावरों को पकड़ने में बार-बार फेल हुई है।
संविधान के अनुच्छेद-370 को हटाने और जम्मू-कश्मीर से राज्य का दर्जा छीन लेने के बाद इस राज्य की सुरक्षा व्यवस्था के मामले में राज्य सरकार और विधानसभा की कोई खास भूमिका नहीं है। इस राज्य और यहां के नागरिकों की सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी केंद्र सरकार और उसके अधीनस्थ गृह मंत्रालय और केंद्रीय सुरक्षा बलों की और इस प्रदेश के उपराज्यपाल की है। इसलिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और उपराज्यपाल मनोज सिन्हा को इस घटना की और इससे निपटने में सरकार की नाकामी की पूरी जिम्मेदारी लेनी चाहिए।
इस समय इस केंद्र शासित प्रदेश की आबादी लगभग 1.4 करोड़ होगी। पुलिस, अर्ध सैनिक बलों और सैन्य बलों को मिलाकर 4 लाख से ज्यादा जवान यहां तैनात है, यानी हर 35 नागरिक पर एक जवान। इतने सघन सशस्त्रीकरण के बावजूद, किश्तवाड़ जंगल के रास्ते से हमलावरों का आना, पर्यटकों पर 15 मिनट तक अंधाधुंध गोलीबारी करके 27 लोगों की हत्या कर देना आश्चर्य की बात है। लेकिन इससे ज्यादा आश्चर्य इस बात पर है कि इतने संवेदनशील क्षेत्र में भी इस हमले के समय पुलिस या सुरक्षा बल का कोई जवान तक तैनात नहीं था, जो हमलावर आतंकवादियों पर गोली चलाता। यही कारण है कि सुरक्षा बलों की ओर से एक भी गोली नहीं चली और न ही हमले के तत्काल बाद पीड़ितों को कोई मेडिकल सुविधा मिली। इसके कारण होने वाली मौतों की संख्या बढ़ गई। देश के किसी भी हिस्से में लोगों के जान-माल की रक्षा की जिम्मेदारी से सरकार मुकर नहीं सकती। फिर यह हमला केंद्र की मोदी सरकार की असफलता नहीं, तो और क्या मानी जाएगी?
पाकिस्तान प्रायोजित इस हमले की जितनी निंदा की जाए, कम है, लेकिन इतना ही यह भी साफ है कि कश्मीर के मामले में इंटेलीजेंस की चौकसी और भारत सरकार की नीतियां बार-बार फेल हुई है। हमले के तुरंत बाद गोदी मीडिया और संघी गिरोह का यह प्रचार भी अब पूरी तरह से झूठा साबित हो गया है कि पर्यटकों से उनका धर्म पूछ-पूछकर हिंदुओं को गोलियां मारी गई है। साफ है कि इस घटना की आड़ में भाजपा और संघी गिरोह ‘हिंदू-मुस्लिम’ और ‘भारत-पाकिस्तान’ के नाम पर नफरत की राजनीति करने और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के खेल में लग गया है, ताकि बिहार और कुछ राज्यों के होने वाले चुनावों में फायदा उठा सकें। अब यह संभव है कि मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक भावना और पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवादी भावना उभारने के लिहाज से मोदी सरकार कोई ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ भी कर दें।
इस आतंकी हमले में केवल हिन्दू ही नहीं, एक मुस्लिम भी, जिनका नाम सैयद हुसैन शाह है, और कुछ विदेशी पर्यटक भी मारे गए हैं। हमले के बाद पीड़ितों की सेवा में कश्मीर का मुस्लिम समुदाय जिस एकजुटता के साथ सामने आया, वह अभूतपूर्व है। सोशल मीडिया में एक स्टोरी तैर रही है कि छत्तीसगढ़ के चिरमिरी के 11 लोगों को किस तरह एक स्थानीय मुस्लिम कपड़ा व्यापारी नजाकत अली ने बचाया है। इस हमले में कर्नाटक से आए पर्यटक मंजूनाथ भी मारे गए हैं। हमले में जीवित बची उनकी पत्नी पल्लवी के इस वक्तव्य को भी नोट करने की जरूरत है — “उस दहशत और लाचारी के पल में तीन कश्मीरी युवक आए और हमें बचाया। हमारी मदद करते हुए वे बिस्मिल्लाह, बिस्मिल्लाह कहते रहे। उन्होंने हमें सुरक्षित जगह पर पहुंचाया। मैं आज उन्हीं की वजह से ज़िंदा हूं। वे अब अजनबी नहीं रहे — वे मेरे भाई हैं।” इस तरह की दसियों स्टोरी अभी और सामने आएंगी। यही हिंदू-मुस्लिम एकता की सिल्वर लाइन है, जो न आतंकियों की गोलियों से मिटने वाली है और न संघी गिरोह की नफरत फैलाने वाली सांप्रदायिक राजनीति से। कश्मीर की असली ताकत यही है।
यह बात आईने की तरह साफ है कि इस हमले से कश्मीर के पर्यटन उद्योग का बहुत नुकसान होने जा रहा है। लेकिन इन हमलों के पीछे जो लोग हैं, वे कश्मीर के लोग तो नहीं ही हैं, क्योंकि कोई अपनी रोजी रोटी और आजीविका पर लात नहीं मारता। असली दुश्मन तो वे लोग हैं, जो विभाजन, हिंसा और नफ़रत की राजनीति से फ़ायदा उठाते हैं।
इस कत्लेआम के विरोध में कश्मीर घाटी बंद रही। इस बंद के समर्थन में सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस, अपनी पार्टी और माकपा सहित घाटी की लगभग सभी राजनैतिक धाराएं साथ आई। कई सामाजिक-धार्मिक और व्यापारिक संगठनों और नागरिक समाज के विभिन्न तबकों ने इस आतंकी हमले की खुलकर खिलाफत की है और बंद का समर्थन किया है। घाटी में कई जगहों पर शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन भी हुए, जिसमें प्रदर्शनकारियों ने हमले की निंदा की है। आतंकी हमले का ऐसा एकजुट विरोध पिछले 35 साल में पहली बार देखने को मिल रहा है। घाटी में बंद की सफलता से हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच दरार डालने की आतंकी कोशिशें नाकाम साबित हुई है। यह कश्मीर के सुखद भविष्य का संकेत है।
कश्मीर के मामले में संवेदनशील सैन्य सूचनाएं पाकिस्तान तक पहुंचाने के आरोप में जो लोग पकड़े गए हैं, उनमें से कई संघी गिरोह से ही जुड़े हुए हैं। अभी तक गिरफ्तार लोगों में न कोई मुस्लिम है, न ईसाई, और न ही कोई सिख या बौद्ध। मनोज मंडल (मध्यप्रदेश), ध्रुव सक्सेना (बिहार), राजीव शर्मा — इनमें से ऐसे ही कुछ नाम हैं, जिनके भाजपा से संबंध जगजाहिर थे। मध्यप्रदेश में तो थोक के भाव में आरएसएस के 11 कार्यकर्ता, जिनमें एक भाजपा पार्षद भी शामिल था, जासूसी के आरोप में गिरफ्तार हुए हैं। इसलिए यह बात जोरदार ढंग से कही जा सकती है कि भाजपा-संघ का राष्ट्रवाद छद्म-राष्ट्रवाद हैं, जो व्यक्तिगत या राजनीतिक लाभ के लिए आम जनता की देशभक्ति की भावना का शोषण करता है।
संघी गिरोह को पहलगाम के आतंकी हमले में छुपे संकेतों को सही अर्थ ग्रहण करना चाहिए। कश्मीर की समस्या एक राजनीतिक समस्या है और इसलिए इसका समाधान भी राजनीतिक ही होगा। कश्मीर की समस्या का जितना संबंध पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से है, उतना ही संबंध भाजपा की नीतियों से भी है। इन नीतियों ने इस राज्य का विखंडन कर उसकी अस्मिता को रौंदने का काम किया है, इन नीतियों ने कश्मीर की कॉरपोरेट लूट के लिए दरवाजे खोले हैं। संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाकर कश्मीर की विशेष स्थिति को खत्म करने का मकसद भी यही था। भाजपा की नीतियों ने पूरे देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिए जो मुस्लिम विरोधी भावनाएं पनपाई हैं, वह पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद को खाद-पानी देने का काम करता है। इसलिए, यदि इस आतंकवाद का मुकाबला करना है, तो हिंदुत्व की राजनीति के साथ कॉरपोरेटों के गठजोड़ को शिकस्त देने के लिए आम जनता को लामबंद करना होगा। कश्मीर के संदर्भ में असली राजनैतिक चुनौती यही है।
लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।
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