(रिपोर्ट: अशफाक़ अहमद खाँ)
बहराइच– सांप्रदायिकता के बड़े खेल में बेहतर प्रदर्शन के लिए दंगाई अभी से ही जाति धर्म के ट्रैक सूट पहन वार्म अप कर रहे हैं| छोटी मोटी सांप्रदायिक झड़प से एक प्रकार से यह दंगाई खुद को अभ्यस्त कर रहे हैं| इनको पता है कि आने वाले चुनावी मौसम में धार्मिक उन्माद के यह खिलाड़ी अपने खेल से मतदाता रूपी दर्शक को प्रभावित कर राजनीतिक दलों की स्वार्थ सिद्धि में अहम भूमिका निभाएंगे| कहने को तो समाज में अमन चैन के दुश्मनों का कोई धर्म मजहब नहीं होता। मगर दुखद यथार्थ यह भी है कि सांप्रदायिक दंगों के दौरान यही दरिंदे अपने आप को धर्म के रहनुमा की तरह प्रोजेक्ट कर लेते हैं। खुद उनका समाज ही उन्हें एक हीरो या फिर आदर्श के तौर पर देखने लगता है| कानून को अपने धार्मिक उन्माद में पैरों तले रौंदने वाले ऐसे बलवाइयों को जब समाज एक अपराधी के तौर पर देखने के बजाए जब ऐसे अपराधियों को उनका समाज अपना आदर्श स्वीकार कर लेगा तो सामाजिक भाईचारे की भावना नफरत में बदलनी स्वभाविक है|
बीते शनिवार को बौंडी थाना क्षेत्र के खैरा बाजार में मूर्ति विसर्जन के दौरान हुए सांप्रदायिक झड़प को लेकर लोगों में अलग-अलग मत हैं| एक पक्ष का कहना है कि मूर्ति विसर्जन के दौरान दूसरे पक्ष ने बेवजह पथराव कर दिया वहीं दूसरे पक्ष का आरोप है कि उपद्रवियों ने जानबूझकर उनके धर्म स्थल के अंदर गुलाल फेंके तथा धर्म गुरुओं पर रंग फेंक कर उकसाया| जिस एक बात पर दोनों पक्षों का मत एक है वह यह कि प्रशासन की लापरवाही से ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है| स्थानीय लोगों का कहना है कि विसर्जन जुलूस में बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ को देखते हुए भी प्रशासन ने सुरक्षा के नाम पर मात्र चार पुलिसकर्मियों की तैनाती ही कर रखी थी|
खैरा बाजार के दंगों के निशान अभी भी दिख रहे हैं| धर्मस्थल के अंदर बिखरा गुलाल, टूटे गुंबद और कहीं टूटी तो कहीं राख के ढेर में तब्दील हुई दुकानों के नजारे साफ बयां करते हैं कि दंगाइयों पर उन्माद किस कदर हावी था| दो समुदायों के टकराव से उपजे ऐसे हालात के लिए किसी एक को दोषी मानना ना तो तर्कसंगत है और ना ही न्याय संगत|
बहरहाल खैरा बाजार के लोगों की दिनचर्या पुनः वापस पटरी पर लौट आई है| पुलिस, जिला प्रशासन व स्थानीय अमन पसंद लोगों की पहल का ही नतीजा है कि यहां का जनजीवन धीरे-धीरे सामान्य होता जा रहा है|
(( पंच परमेश्वर नहीं पंच पेशेवर हुआ प्रशासन ))
खैरा बाजार में सांप्रदायिक हिंसा के बाद हुई अब तक की कार्यवाही पर लोग दबी जुबान में प्रशासन की निष्पक्षता पर सवाल खड़े कर रहे हैं| आरोप है कि दबिश के नाम पर पुलिस ने बर्बरता की सारी हदें पार करते हुए 70 साल तक की बुजुर्ग महिलाओं को लाठियों से पीटा, घरों में रखे वाशिंग मशीन के साथ ही कई घरेलू सामानों को बर्बाद कर दिया| कुछ महिलाओं का आरोप है कि महिला पुलिस कर्मियों की अनुपस्थिति में पुलिस ने दबिश के दौरान ना केवल महिलाओं से दुर्व्यवहार किया बल्कि उनकी लाठियों से पिटाई भी की| यह आरोप ऐसे समय में लग रहे हैं जब जिलाधिकारी माला श्रीवास्तव स्वयं घटनास्थल का दौरा कर रही हैं| दंगाइयों के विरुद्ध कार्रवाई के जो आंकड़े बहराइच पुलिस अब तक दिखा रही है वह पूरी तरह से एकतरफा कहे जा सकते हैं| तो क्या यह मान ले कि दूसरे पक्ष के धर्म स्थलों में हुई तोड़फोड़, राख के ढेर में तब्दील हुए कारखाने को अंजाम देने वाले किसी दूसरे ग्रह से आए दंगाई थे? अमूमन ऐसे सवालों पर पुलिस का एक कंठस्थ जवाब यह होता है कि दूसरे पक्ष से अभी तक तहरीर नहीं मिली है| सवाल यह भी उठता है कि आखिर वह कौन सी वजह हैं जिनके कारण अपने कारखानों को जलाने वाले दंगाइयों के खिलाफ लोग पुलिस के पास न्याय मांगने से अब तक कतराते रहे हैं| क्या ऐसे पीड़ितों का पुलिस की निष्पक्षता पर से विश्वास उठ गया है? या फिर एक वर्ग विशेष के लोगों पर लगातार हो रही पुलिस कार्रवाई से दंगा पीड़ित इतने भयभीत हो चुके हैं कि
उन्हें न्याय के प्रतिनिधियों से भी अब डर लगने लगा है|
प्रशासन न्याय का वह पंच परमेश्वर माना जाता रहा है जो अलगू चौधरी और जुम्मन शेख में बिना भेदभाव किए न्यायिक कदम उठाता रहा है| मगर खैरा बाजार प्रकरण में यही पंच परमेश्वर क्या वास्तव में पंच पेशेवर की तरह बर्ताव कर रहा है? प्रशासन की अब तक की कार्रवाई तो इसी ओर इशारा कर रही है|
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