जिंदान के अंधेरों में कई दिन और रात बीत जाने के बाद एक दिन इमाम हुसैन की लाड़ली बेटी जनाबे सकीना ने अपने भाई इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के पास जाकर एक सवाल किया। जनाबे सकीना – भाई सज्जाद, आप इमामे वक़्त है और इमामे वक़्त हर इल्म से आरास्ता होता है मै आपसे एक सवाल करती हूँ कि आप मुझे बताएं “प्यास में कितनी मंज़िले होती हैं?
जनाबे सकीना का ये सवाल सुनकर जनाबे ज़ैनब तड़प गयीं। आगे बढ़कर सकीना को गोद में उठाया, प्यार किया और कहा मेरी बच्ची तू ऐसा क्यों पूछती है। इमाम सज्जाद ने कहा – फूफी अम्मा सकीना ने ये सवाल अपने वक़्त के इमाम से किया है और मुझ पर लाज़िम है की मै इस सवाल का जवाब दूँ। इमाम ने फ़रमाया- बहन सकीना, प्यास की कुल चार मंज़िलें होती है
पहली मंज़िल वो होती है जब इंसान इतना प्यासा हो की उसे आँखों से धुँआ धुँआ सा दिखाई दे और ज़मीन और आसमान के बीच का कोई फ़र्क़ महसूस न हो। जनाबे सकीना- हाँ मैंने अपने भाई क़ासिम को बाबा से कहते सुना था ” चचा जान मै इतना प्यासा हूँ की मुझे ज़मीन से आसमान तक सिर्फ धुआं सा दिखाई देता है। इमाम ने फिर फ़रमाया- प्यास की दूसरी मंज़िल है जब किसी की जुबान सुखकर तालु से चिपक जाए। जनाबे सकीना- हाँ जब भाई अकबर ने अपनी सुखी ज़ुबान बाबा के दहन में रखकर बाहर निकाल ली थी और कहा था “बाबा आपकी ज़ुबान तो मेरी ज़ुबान से ज़्यादा खुश्क है तब शायद मेरा बाबा प्यास की दूसरी मंज़िल में था। इमाम ने फिर फ़रमाया- प्यास की तीसरी मंज़िल वो है जब किसी मछली को पानी से बाहर निकाल कर रेत पर डाल दिया जाता है और वो मछली कुछ देर तड़पने के बाद बिलकुल साकित सी हो कर अपना मुंह बार बार खोलती है और बंद करती है। जनाबे सकीना- हां जब मेरे बाबा ने भाई अली असग़र को कर्बला की जलती रेत पर लिटा दिया था तो असगर भी वैसे ही तड़पने के बाद साकित सा था और अपना मुँह खोलता था फिर बंद करता था शायद मेरा भाई उस वक़्त प्यास की तीसरी मंज़िल में था। इमाम ने फिर फ़रमाया- प्यास की चौथी और आखिरी मंज़िल वो है जब इंसान के जिस्म की नमी बिलकुल खत्म हो जाती है और उसका गोश्त हड्डियों को छोड़ देता है फिर इंसान की मौत हो जाती है। इतना सुन कर जनाबे सकीना ने अपने हाथों को इमाम के आगे किया और कहा- भाई सज्जाद मै शायद प्यास की आखिरी मंज़िल में हूँ। देखो मेरे जिस्म के गोश्त ने हड्डियों का साथ छोड़ दिया है और मै अनक़रीब अपने बाबा के पास जाने वाली हूँ। सकीना के ये अलफ़ाज़ सुनकर कैद खाने में एक कुहराम बपा हो गया। अब हम अंदाजा लगा सकते है हम रोजे मैं प्यास की पहली मंजिल तक भी नही पहुँचते
अफसोस फ़िर भी कई लोग रोजा नही रखते है..अल्लाह हम सबको अहले बैत से इबरत हासिल करने की और रोज़े रखने की तौफ़ीक़ अत फरमा
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