रिपोर्ट : बादल सरोज
मध्यप्रदेश में इन दिनों पतझड़ की बहार है और प्रदेश का वह अंचल, जिसे मालवा कहा जाता है, इसका सबसे बदतरीन शिकार है। सप्ताह भर में एक के बाद एक दर्जन भर से अधिक मामले सामने आये हैं, जो अल्पसंख्यक आबादी को चिन्हांकित कर उनका कट्टरपंथी गिरोहों द्वारा उत्पीड़न करने के चलते निंदनीय तो हैं ही, उनमें निबाही जा रही पुलिस और प्रशासन की भूमिका को देखते हुए चिंतनीय भी हैं।
ज्यादा विस्तार में न जाएँ – सिर्फ घटनाओं को ही गिन लें – तो एक स्पष्ट रुझान और पैटर्न नजर आता है। इंदौर में अपने ही कॉलेज की गरबा नाइट (नवरात्रि नृत्य) में हिस्सा लेने पर रविवार की रात को चार मुस्लिम युवाओं को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। इससे पहले शनिवार की रात को इंदौर के हिंदू बहुल कांपल गांव में एक मुस्लिम परिवार पर तब हमला कर दिया गया, जब उन्होंने गांव छोड़ने से इंकार कर दिया। इस हमले में पांच लोग घायल हो गए। झाबुआ में एक हिंदुत्ववादी संगठन ने एक चर्च को गिराने की धमकी दी, जिसके बाद अल्पसंख्यक समुदाय को प्रशासन से सुरक्षा की अपील करनी पड़ी। खंडवा में एक मुस्लिम युवक को कॉलेज कैंपस में कथित तौर पर उसकी धार्मिक पहचान के चलते पीटा गया। 22 साल के नवाज खान कॉलेज में प्रवेश की “मेरिट लिस्ट” में अपना नाम देखने के बाद कॉलेज से बाहर आ रहे थे, तभी उनका नाम पूछा गया और हमला कर दिया। जब वो पुलिस में शिकायत दर्ज कराने पहुंचा, तो पुलिस वालों ने मामला दर्ज करने इंकार कर दिया। पुलिस ने कहा, “इसका कोई केस नहीं बनता, छोटा-मोटा मारपीट का मामला है।” पुलिस ने तभी मामला दर्ज किया, जब नवाज ने खंडवा एसपी के पास गुहार लगाई। लेकिन पुलिस ने अब तक ना तो आरोपियों की पहचान की है और ना ही किसी को गिरफ्तार किया है। नीमच में एक दरगाह पर दो दर्जन अज्ञात लोगों ने 2 और 3 अक्टूबर के बीच की रात को हमला कर दिया। रतलाम में विश्व हिंदू परिषद के सदस्यों ने वहां गरबा करवा रहे 56 पंडालों में मुस्लिमों के प्रवेश को प्रतिबंधित करते हुए पोस्टर भी लगा दिए हैं। बड़वानी जिले में तो हद्द ही हो गई, जब 10 वर्ष के एक मुस्लिम बच्चे को गरबा पंडाल में देखकर, उसके एक ऐसे पड़ोसी, जिससे उनका विवाद चल रहा था, ने शोर मचाकर उन्माद खड़ा कर दिया। बड़वानी के महाराष्ट्र से लगे सेंधवा शहर में घटी यह घटना पल भर में बड़ों के बतकहाव और फिर दफा 144 से होते हुए कर्फ्यू तक पहुंच गई। संघ की माहिरी इसी में तो है।
इन पंक्तियों के लिखे जाने के बीच ही मालवा के धार से खबर आयी है कि ईद मिलादुन्नवी के दिन जलूस लेकर “विवाद” हुआ, पुलिस ने “हल्का लाठीचार्ज कर समझाईश दी।” इसी तरह की हरकत जबलपुर में हुयी। वहां जलूस के दौरान हुए “हंगामे” से नौबत आँसू गैस तक आ पहुंची।
दतिया हालांकि मालवा से अलग है, किन्तु वहाँ भी इसी तरह की घटना में रविवार को पुलिस ने ईसाई समुदाय से ताल्लुक रखने वाले 10 लोगों के ऊपर कथित तौर पर धार्मिक किताबों को बांटने के आरोप में मुकदमा दर्ज कर लिया। मध्यप्रदेश का गृह मंत्री इसी सीट से विधायक है।
इन सभी मामलों को मिलाकर अल्पसंख्यक समुदाय के 19 लोगों पर अलग-अलग धाराओं में मुक़दमा दर्ज किया गया है, इनमें 12 लोगों की गिरफ्तारी हुई है। ऑक्सफोर्ड कॉलेज इंदौर के कैंपस में हुए गरबा कार्यक्रम में चार मुस्लिम युवकों पर बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने हमला कर दिया। उनके ऊपर “लव जिहाद” का आरोप लगाया। इन छात्रों को सार्वजनिक तौर पर अपमानित करने के बाद गांधी नगर पुलिस स्टेशन ले जाया गया, जहां पुलिस ने उन्हें “सार्वजनिक उपद्रव” और कोविड नियमों का उल्लंघन करने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया। अगले दिन बिना इनका पक्ष सुने ही एसडीएम पराग जैन ने वारंट जारी कर उन्हें इंदौर सेंट्रल जेल भेज दिया, जबकि कार्यक्रम के आयोजक अक्षय तिवारी के ऊपर सिर्फ़ कोविड नियमों के उल्लंघन का मामला दर्ज किया गया। खुद पुलिस एसपी महेशचंद जैन ने माना कि चारों के खिलाफ़ की गई कार्रवाई “अनुचित” थी और उन्होंने उनकी हिरासत के खिलाफ़ सुझाव दिया है। लेकिन एसडीएम पराग जैन का कहना है कि चारों को पुलिस की रिपोर्ट के आधार पर “सार्वजनिक उपद्रव” के आधार पर गिरफ्तार किया गया है। एसडीएम ने यह भी कहा कि इन लोगों को जेल इसलिए भेजा गया है, क्योंकि उनके परिवार बेल बॉन्ड पेश करने में नाकाम रहे थे। वहीं छात्रों के रिश्तेदार का कहना है कि ना तो उन्हें एफआईआर की कॉपी दी गई और ना ही उन्हें बताया गया कि उनके बच्चे कहां हैं।
पिछले महीने ही इंदौर के हिंदू बहुल गोविंद नगर में चूड़ी बेचने के चलते तस्लीम अली की पिटाई कर दी गई थी। चूड़ीवाला अभी भी जेल में हैं। स्वाभाविक नतीजा यह निकला कि हमलावरों के हौंसले बढ़े हैं और राज्य भर में अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ अत्याचार के मामले धड़ाधड़ सामने आने लगे।
इंदौर का गाँव इन हमलों की थीम स्पष्ट कर देता है। यहां पहले गाँव के अकेले मुस्लिम परिवार को गाँव छोड़ देने के लिए धमकाया गया, फिर रात में धावा बोलकर उसका जो भी था, वह लूट लिया गया। इसके बाद भी जब वह बचा-खुचा असबाब समेटकर नहीं गया, तो दिनदहाड़े मारपीट कर घर के सारे लोग घायल कर दिए गए और मजबूरन जान बचाने उन्हें शहर आना ही पड़ा। रिपोटा-रपाटी हुयी है। कुछ अखबारों ने भी छापा है। प्रशासन ने जो भी किया, वह शोर मचने के बाद किया और सिर्फ इतना किया कि गुंडई करने वालों से एक-एक लाख रूपये के बांड्स भरवा लिए। इस दिखावे की कार्यवाही को लेकर भी संघ और भाजपा “नाराज” है – इस नाराजगी में सांसद और विधायक भी उनके साथ हैं। मालवा के बाकी जिलों में भी इस तरह के काम मुसलमानों के सामाजिक बहिष्कार, उनकी दुकानों का बायकॉट किये जाने से आगे की बात है। यह घेटोआईजेशन – सामाजिक पृथक्कीकरण – का चरण है।
घेटो नाम का शब्द डिक्शनरी से बाहर निकालकर वास्तविक जीवन में उतारने का श्रेय “श्रीमान” हिटलर को जाता है। उन्होंने अपने नाज़ीवाद की शुरुआत यहूदियों को चिन्हांकित कर चलाये नफरती अभियान से की थी। यहूदियों पर हमले, उन्हें जर्मनी की आम बसाहटों से खदेड़कर अलग-थलग “यहूदी ओनली” रिहाइशों में धकेल दिया गया था। बाद में उनके साथ क्या हुआ, इसका वर्णन मानव इतिहास के सबसे कलुषित और कलंकित इतिहास का अध्याय है। शिंडलर्स लिस्ट नाम की अकादमी पुरुस्कारों से सम्मानित फिल्म सहित अनेक फिल्में भी इस पर बनी हैं। इसी तरह का सामाजिक बहिष्करण इटली के मुसोलिनी ने किया था – यहां निशाने पर मजदूर वर्ग के आंदोलन और सामाजिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक मोर्चों पर सक्रिय लोग थे। इनके अलावा मानव इतिहास में घेटोआईजेशन का धतकरम किसी और ने नहीं किया। बिना किये हुआ जरूर – जैसे संयुक्त राज्य अमरीका में काले और अश्वेतों की बसाहटें अलग हो गयीं। लेकिन इन्हें इस तरह धकेल कर नहीं भेजा गया – आर्थिक रूप से उनकी जिंदगी इतनी मुश्किल बना दी गयी कि कथित सभ्य लोगों की आधुनिक बसाहटों में उनका जीना ही मुहाल हो गया। जैसे भारत में मानवीय सुविधाओं से वंचित बस्तियों में धकेली गई आबादी का एक आर्थिक-सामाजिक प्रोफाइल होता है – ठीक वैसे ही। इंदौर में भी ऐसी अनेक बस्तियां हैं, जहां आर्थिक रूप से और सामाजिक रूप से वंचित समुदाय के लोग रहते हैं – यह सामंती-पूंजीवादी पृथक्कीकरण है। इन बस्तियों में रहने का आधार धर्म कभी नहीं रहा। इसीलिये अब जो हो रहा है, वह उससे अलग है।
मालवा में जो लोग इस काम में लगे हैं, वे मनसा-वाचा-कर्मणा हिटलर और मुसोलिनी के अनुयायी है। वे अपना विचार और संगठन का ढांचा दोनों ही, यहां तक कि ड्रेस भी अपने इन दो आराध्यों से लेकर आये हैं। हिटलर की तरह की ही उनकी रणनीति है ; देश की आबादी के बीच से एक समुदाय विशेष को छाँटकर उसे दुश्मन घोषित करना, बाकी सबको उससे खतरा बताना, झूठी कहानियां गढ़कर नफ़रत और उन्माद पैदा करना, उनके पक्ष में संविधान और लोकतंत्र की बात करने वालों को गरियाना और आखिर में हमला बोल देना। इसी बीच इसी के साथ जनता को लूटने और उसका जीवन दूभर करने की नीतियां अपनाते हुए चंद, अँगुलियों पर गिने जाने लायक सेठों की सम्पत्तियाँ कल्पना से भी परे तादाद में बढ़ा देना। व्याकुल और बेचैन जनता कुछ करने की सोचे, इससे पहले ही लोकतंत्र को सिकोड़ कर तानाशाही का सबसे घिनौना रूप ला देना। इंदौर और मालवा में ठीक यही आजमाया जा रहा है। हिटलर इसे नाज़ीवाद के नाम पर लाया था – मुसोलिनी ने इसे फासीवाद का नाम दिया था। इंदौर और मालवा में जो यह सब कर रहे हैं वे – भाजपा और आरएसएस – इसे हिन्दुत्व का नाम देते हैं। वह हिन्दुत्व, जिसे उसका नामकरण करने वाले सावरकर ने एक ऐसी शासन प्रणाली बताया था, जिसका हिन्दू धर्म या उसकी परम्पराओं के साथ कोई रिश्ता नहीं है।
यही हिन्दुत्वी गिरोह है, जो अभी इंदौर के गाँवों और मालवा के इलाकों के मुसलमानों को निशाने पर लिए हुए है। झाबुआ, अलीराजपुर में ईसाई उसके निशाने पर हैं। कल असली हिन्दुत्व का पूर्ण पाठ होगा, तो दलित-आदिवासी निशाने पर होंगे और उसके साथ ही महिलायें भी बाहर की बजाय अंदर धकेल दी जाएंगी।
समस्या इतनी भर नहीं है कि मुट्ठी भर – इंदौर प्रसंग में 16 और बाकी प्रसंगों में 8 से 10 गुण्डे – उत्पात मचाये हुए हैं। असली समस्या यह है कि भारत के संविधान की शपथ लिए बैठा प्रशासन कुछ करने के लिए तैयार नहीं है। वह पूरी तरह तटस्थ भी नहीं है, बिना किसी लाज-शरम के हुड़दंगी जमात के साथ है।
इंदौर और मालवा को ही जागना होगा। मालवा की ‘डग डग रोटी – पग पग नीर’ की परम्परा भले न बच पायी हो, किन्तु भाईचारे और सौहार्द्र की रवायत को बचाना ही होगा – वरना कुछ भी नहीं बचेगा। न अमन न चैन, न काम न धाम, न नौकरी न आराम। सुकून की बात है कि इंदौर और मालवा की वामपंथी ताकतों ने दिलेरी के साथ इन हमलों की निंदा-भर्त्सना ही नहीं की, सडकों पर निकल कर इनका विरोध भी किया है। प्रशासनिक दफ्तरों पर प्रदर्शन कर समुचित कार्यवाही की मांग भी की है। सन्नाटा तोड़ने के लिए एक हुँकार काफी होती है, अन्धेरा चीरने के लिए शमा न मिले, तो गुस्साई आँखों की चमक भी बहुत होती है। मालवा में हिटलरी अमल बिना जनप्रतिरोध का सामना किये नहीं होने दिया जायेगा।
पर याद रहे कि चुनौती बड़ी है और लगातार बढ़ रही है। अंदाजा लगाने को एक तथ्य ही काफी है। इस बार, ईद मीलाद उल नबी के मौके पर निकाले गये जुलूस मप्र के तीन जिलों में गंभीर झड़पों के शिकार हुए–जबलपुर, बड़वानी और धार। सब मिलकर लगेंगे, तभी यह भारी बोझ उठाया जाएगा। अकेले किसी के बस की बात नहीं है।
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