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Wednesday, February 5, 2025 12:30:15 PM

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24 में आजादी, 35 में हिन्दू राष्ट्र! इधर सन्निपात, उधर बारह बांट!!

24 में आजादी, 35 में हिन्दू राष्ट्र! इधर सन्निपात, उधर बारह बांट!!

रिपोर्ट : बादल सरोज

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने अपने हिसाब से भारत के इतिहास के पुनर्लेखन में एक नया अध्याय जोड़ते हुए, इस देश की आजादी के बारे में अब तक की सारी तथ्य, सत्य, विधिसम्मत, विश्व-स्वीकृत जानकारी को झूठा करार देते हुए स्थापना दी है कि असली आजादी तो वर्ष 2024 में अयोध्या में राममंदिर की प्राणप्रतिष्ठा संपन्न होने के साथ मिली है| इंदौर में 13 जनवरी को दिए अपने भाषण – संघ में इसे प्रबोधन कहा जाता है – में उन्होंने कहा कि “अयोध्या में रामलला प्राण प्रतिष्ठा की तिथि पौष शुक्ल द्वादशी का नया नामकरण ‘प्रतिष्ठा द्वादशी’ के रूप में हुआ है।” उन्होंने कहा कि यह तिथि ‘प्रतिष्ठा द्वादशी’ के रूप में मनाई जानी चाहिए, क्योंकि अनेक सदियों से ‘परचक्र’ (दुश्मन का आक्रमण) झेलने वाले भारत की सच्ची स्वतंत्रता इस दिन प्रतिष्ठित हुई थी।“

 

यहाँ भी उनका जोर पंचांग की तिथि के मुताबिक स्वतन्त्रता दिवस मनाने पर था, जो प्रचलित कैलेंडर के हिसाब से 2024 में 22 जनवरी को थी, इस साल 11 जनवरी को पड़ी। देश के गणतंत्र दिवस के महीने में यह सत्ता पार्टी के मात-पिता संगठन के प्रमुख का बयान है, किसी कंगना रनौत या अंजना ओम कश्यप या अर्नब गोस्वामी का प्रलाप नहीं है| इसलिए इसे यूँ ही नहीं लिया जा सकता|

 

बावजूद इसके कि भारत की आजादी के असली दिन 15 अगस्त 1947 के साथ इस कुनबे का बैर पुराना है, दुनिया के महान स्वतंत्रता संग्रामों में गिनी जाने वाली इस लड़ाई में इनकी भागीदारी विरोध, विश्वासघात और गद्दारी के कलुषित और कलंकित रिकॉर्ड वाली है| बावजूद इसके कि जब लाखों भारतीय दमन सह रहे थे, हजारों शहादतें दे रहे थे, तब सावरकर अकेले नहीं थे, जो माफीनामे भरकर इंग्लॅण्ड की महारानी के कसीदे काढ़ते हुए अपना बाकी जीवन उनकी सेवा में अर्पित कर देने के लिए रिहाई की याचना कर रहे थे, पूरा आरएसएस इसी मुद्रा में अंग्रेज हुक्मरानों के आगे साष्टांग दंडवत किये हुए था। बावजूद इसके कि देश पर लूट, विनाश और तबाही बरपाने वाली, बर्बरता के जघन्य रिकॉर्ड वाली 190 साल की ब्रिटिश गुलामी से मुक्त होने के दिन 15 अगस्त 1947 को जब पूरा देश उल्लास के साथ जश्न मना रहा था, भागवत जी का आरएसएस उस दिन काला दिवस मना रहा था। गांव, मजरों, टोलों से लेकर कस्बों, शहरों में हर भारतीय तिरंगा फहरा रहा था, खाकी नेकर-काली टोपी वाली इनकी ब्रिगेड काले झंडे लगवा रही थी| राष्ट्र ध्वज, राष्ट्रगान, संविधान सहित आजादी के सभी प्रतीकों को नकार और धिक्कार रही थी| बावजूद इसके कि आजाद भारत में भी 2004 यानि 57 वर्ष तक संघ ने अपने नागपुर मुख्यालय पर 15 अगस्त या 26 जनवरी को तिरंगा नहीं फहराया, क्योंकि इसने कभी स्वाधीनता दिवस को मान्यता नहीं दी ; यह कुछ ज्यादा ही गंभीर कथन है और सिर्फ उतना भर नहीं है,u जितना कहा गया है|

 

इन सन्दर्भों के साथ जोड़कर पढ़ा जाए, तो संघ के मौजूदा प्रमुख का असली आजादी का दिन 2024 की पौष शुक्ल द्वादशी को मानना उसी लीक पर चलने की बात लगती है, जिस पर यह आज तक चलता रहा है। फिलहाल इसमें अगर कुछ नया दिखता है, तो पहला तो यह है कि इस ऐलान से भागवत जी ने 2014 को असली आजादी बताने की मुहिम में अलग-अलग मोर्चों पर डटी कंगना राणावतों और ऊपर लिखे भक्तों की मेहनत पर पानी फेर दिया है और इस तरह पराधीनता को 10 वर्ष और आगे बढाते हुए खुद मोदी जी के कार्यकाल को भी गुलामी का दशक बता दिया है!! दूसरे हाथ से उन भले और सुधीजनों के भरम को भी दूर कर दिया है, जिन्होंने हर मस्जिद के नीचे मंदिर न ढूंढे जाने के उनके हालिया बयान को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया था, इतना अधिक गंभीरता से लिया था कि कुछ तो संघ के शाकाहारी होने के अनुमान तक लगाने तक पहुँच गए थे।

 

मगर यह एक कहीं ज्यादा बड़ी पटकथा का प्राक्कथन हैं, यह उजागर होने में पखवाड़ा भर भी नहीं लगा, जब इसी बात को आगे बढाते हुए, इसे और ठोस रूप देते हुए 76 वें गणतंत्र दिवस से ठीक दो दिन पहले प्रयागराज के महाकुम्भ से अखण्ड हिन्दू राष्ट्र के संविधान के तैयार हो जाने की घोषणा कर दी गयी। वसंत पंचमी 3 फरवरी को महाकुम्भ में ही इस कथित संविधान को जनता के लिए जारी भी कर दिया जायेगा। बताया गया है कि इसके बाद इसे चारों शंकराचार्यों के पास अनुमोदन के लिए भेजा जाएगा – उनके सील-सिक्के लगने के बाद यह लागू करने के लिए मोदी सरकार को भेंट किया जाएगा।

 

अखंड हिन्दू राष्ट्र के इस 501 पन्नों के संविधान में वर्णित प्रावधानों के अनुसार अब इस देश को करीब ढाई हजार साल पहले के चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल की तरह चलाया जाएगा। थोड़ा सा परिवर्तन है और वह यह कि इसकी राजधानी चंद्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र पटना नहीं, बल्कि काशी बनाई जाएगी। बाकी प्रावधानों में सरकार के लिए एक व्यवस्थापिका चुने जाने की बात है, मगर वह संसद नहीं, धर्म संसद होगी और उसमें बैठने वाले धर्म सांसद कहे जायेंगे। धर्म सांसद बनने और बनाने, उसके लिए चुनाव लड़ने और वोट डालने का अधिकार सिर्फ उन्हीं को होगा, जो सनातन धर्म को मानते हैं।

 

फिलहाल थोड़ी-सी गुंजाइश जैन, बौद्ध और सिख पंथों को मानने वालों के लिए छोड़ी गयी है, मगर वह भी सिर्फ फिलहाल के लिए ही लगती है, अलबत्ता मुसलमान, ईसाई, पारसियों सहित सभी विधर्मियों को इससे बाहर रखा जाएगा ; चुना जाना तो दूर की बात है, उन्हें तो वोट डालने का भी अधिकार नहीं होगा। धर्म सांसद बनने के लिए उम्मीदवार को वैदिक गुरुकुल का छात्र होना अनिवार्य होगा।

 

ये धर्म सांसद बाद में राष्ट्राध्यक्ष का चुनाव करेंगे, किन्तु चाहे जो राष्ट्र प्रमुख नहीं बन सकता ; उसकी योग्यताएं भी निर्धारित की गयी है। राष्ट्र अध्यक्ष का चयन गुरुकुलों से होगा। धर्मशास्त्र और राजशास्त्र में पारंगत व्यक्ति जिसने राज्य संचालन का पांच वर्ष का व्यवहारिक अनुभव लिया हो, वहीं राष्ट्राध्यक्ष पद के योग्य होगा। हिंदू राष्ट्र संविधान के अनुसार युद्ध के समय राजा की तरह इस राष्ट्राध्यक्ष को सीधे मोर्चे पर जाकर अपनी सेना का नेतृत्व करना होगा। अपने मंत्रिमंडल में भी राष्ट्राध्यक्ष उन्हीं को नियुक्त कर सकेगा, जो विषय विशेषज्ञ हों, धर्म शास्त्र ज्ञाता हों तथा इसी के साथ शूरवीर, शस्त्र चलाने में निपुण और प्रशिक्षित हों।

 

किसी एकछत्र सम्राट की तरह राष्ट्राध्यक्ष की शक्तियां असीमित और अपार होंगी ; देश की न्याय प्रणाली उसके अधीन रहेगी, वही सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के ऊपर होगा और वर्तमान न्याय प्रणाली की जगह हिंदू न्याय व्यवस्था लागू की जाएगी। बकौल हिन्दू राष्ट्र संविधान, यह संसार की सबसे प्राचीन न्याय व्यवस्था है। “राष्ट्राध्यक्ष के नियंत्रण में मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीश होंगे। कोलेजियम जैसी कोई व्यवस्था नहीं रहेगी। भारतीय गुरुकुलों से निकलने वाले सर्वोच्च विधिवेत्ता ही न्यायाधीश के पद को सुशोभित करेंगे। सभी को त्वरित न्याय सुनिश्चित किया जाएगा। झूठे आरोप लगाने वालों पर भी दंड का विधान होगा।“ राजकाज का संचालन चाणक्य, मनु और याज्ञवल्क्य के लिखे, कहे, बताये अनुसार ही किया जाएगा।

 

शिक्षा के क्षेत्र में निर्णय लेने का अधिकार यह हिन्दू राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष या उनके धर्म सांसदों के भरोसे छोड़ने का जोखिम नहीं लेता, अपने संविधान में ही शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन का प्रावधान कर देता है। इसके अनुसार, अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को गुरुकुलों में परिवर्तित किया जाएगा और शासकीय धन से संचालित सभी मदरसे बंद किए जाएंगे। मातृकुल (गुरुकुल) शिक्षा सभी के लिए अनिवार्य होगी। तीन से आठ वर्ष के सभी बालक, बालिकाओं को अनिवार्य रूप से वैदिक गुरुकुल शिक्षा ग्रहण करनी होगी। तभी उन्हें अन्य विद्यालयों में जाने की अनुमति मिलेगी। इसी के साथ सभी के लिए सैन्य शिक्षा अनिवार्य किये जाने का भी प्रावधान किया गया है।

 

सामाजिक ढांचे के बारे में चाणक्य, मनु और याज्ञवल्क्य और वेद, महाभारत, रामचरित मानस, सभी पुराणों आदि-इत्यादि को आधार बनाने के ऐलान के बाद भी कही कोई गफलत न रह जाए, इसलिए और भी स्पष्ट शब्दों में यह संविधान अपना लक्ष्य साफ़ करते हुए कहता है कि “हिंदू विधि का अंतिम व सर्वोच्च उद्देश्य वर्णाश्रम व्यवस्था की पुन: स्थापना है। कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था को विधिक रूप दिया जाएगा और जाति व्यवस्था समाप्त कर दी जाएगी। संयुक्त परिवार को बढ़ावा दिया जाएगा।“ स्त्रियों के बारे में भूले से भी कोई झोल न रह जाए, इसलिए उत्तराधिकार के मामले में बिना ज्यादा कुछ कहे ही ‘पिता की मृत्यु के बाद उनका उत्तराधिकारी श्राद्ध करने वाला ही होगा’ कहकर सब कुछ कह देता है ।

 

इस पूरी कवायद को सिर्फ कुछ लगुओं–भगुओं टाइप के फ्रिंज एलिमेंट्स की प्रचारलिप्सा कहकर अनदेखा नहीं किया जा सकता। 2022 की 29 जनवरी को जब हिन्दू राष्ट्र के संविधान को बनाने के इरादे और उसकी समिति का ऐलान किया गया था, तब भी मुख्यधारा के मीडिया ने उस खबर को कोई खास तवज्जो नहीं दी थी। यहां तक कि कार्पोरेटी हिंदुत्व के संयुक्त उपक्रम बन गए मीडिया ने भी इसे ज्यादा तूल नहीं दिया था। मगर ऐसा करने से इसमे निहित परियोजना मंद नहीं पड़ी — आशंकाएं कम नहीं हुईं। अब 2 वर्ष 12 दिन बाद बना हुआ बताये जाने वाले इस कथित संविधान की खबर पर भी मंद-मंद सा कवरेज दिखाई दे रहा है।

 

सनद रहे कि यह कुछ ऐन्वेई लोगो द्वारा पिनक या अत्युत्साह में आकर किया गया काम नहीं है ; तनिक-सी भी गहराई से देखा जाए, तो पता चल जाता है कि इसमें जितने भी प्रावधान किये गए हैं, वे सावरकर से लेकर गोलवलकर तक हिन्दुत्व विचारधारा के सभी पुरोधाओं द्वारा भारत के सामाजिकहैराजनीतिक ढांचे के पुनर्गठन के बारे में समय-समय पर व्यक्त की गयी रायों, धारणाओं, प्रस्थापनाओं की संगति में है ; उन्हें लगभग हू-ब-हू दोहराया गया है। भले इसे बनाने और जारी करने के लिए साधु-संत सम्मेलनों की आड़ ली जा रही है, इस पूरी परियोजना की सूत्रधार अखिल भारतीय विद्वत परिषद् है, जो आरएसएस का आनुषांगिक संगठन है।

 

कहने की आवश्यकता नहीं कि यह आउटसोर्सिंग भारत के संविधान के प्रति वैमनस्य की उसी निरंतरता में है, जिसे इस कुनबे ने लगातार जारी रखा है। अटल बिहारी बाजपेई के प्रधानमन्त्रित्व काल में तो बाकायदा संविधान समीक्षा के लिए आयोग तक का गठन कर दिया गया था। संघ की स्थापना के शताब्दी वर्ष में अब यही काम दूसरे तरीके से करने की कोशिश की जा रही है। संविधान समिति के संरक्षक शांभवी पीठाधीश्वर स्वामी आनंद स्वरूप महाराज ने बताया है कि इस संविधान में 2035 तक हिंदू राष्ट्र की घोषणा का लक्ष्य रखा गया है।

 

स्वतंत्रता आंदोलन की भट्टी में से तपकर निकले भारत के मौजूदा संविधान के शिल्पी, उसकी ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ अम्बेडकर ने उसी समय सचेत करते हुए कहा था कि हिंदू राष्ट्र का सीधा अर्थ द्विज वर्चस्व यानी ब्राह्मणवाद की स्थापना का है। वे हिंदू राष्ट्र को मुसलमानों पर हिंदुओं के वर्चस्व तक सीमित नहीं करते थे, उनके लिए हिंदू राष्ट्र का मतलब दलित, ओबीसी और महिलाओं पर द्विजों के वर्चस्व की स्थापना था। ठीक यही करने की साजिश यहाँ भी है। मनुस्मृति के नाम पर राज चलाने को आतुर इस कथित अखण्ड हिन्दू राष्ट्र के संविधान के निर्माणकर्ता अपने असली मकसद को नहीं छुपाते, बल्कि जब वे हिंदू राष्ट्र का मंत्रिमंडल चंद्रगुप्त मौर्य की तरह तैयार करने की बात करते हैं, तब उसे और खोल कर रख देते हैं।

 

ईसा पूर्व 324/321 से ई.पू. 297 तक राज चलाने वाले, स्वयं जैन धर्म में विश्वास करने वाले और सिकंदर के सेनापति की यूनानी बेटी कार्नेलिया से विवाह करने वाले चन्द्रगुप्त मौर्य को निम्न जाति – वृषल कुल – में उत्पन्न माना जाता था। इसलिए उनके प्रधानमंत्री चाणक्य ने यह शर्त रखी थी कि राजा मंत्रियों की सलाह पर ही चलेगा। उन्होंने बाकी मंत्रियों – अमात्यों – की नियुक्ति के लिए उपधा परीक्षण की अनिवार्यता तय की थी। जिसकी अंतिम परिणिति उच्च कुलीन – यथासंभव ब्राह्मणों – की ही मंत्री के रूप में नियुक्ति थी। यहाँ वर्णाश्रम लागू करने के बाद वैदिक शिक्षा और शास्त्र पारंगतता की शर्त से साफ़ हो जाता है कि असल में राज में किन्हें रहना है और जिन्हें रहना है, उन्हें क्या करना है।

 

डॉ. भागवत का आजादी को 77 साल बाद तक खींच लाने का प्रबोधन और वसंत पंचमी को इस कथित नए संविधान के बहाने देश को ढाई हजार वर्ष पीछे घसीट ले जाने का प्रयत्न इधर सन्निपात, उधर अब तक के हासिल का बारह बाँट करने की कोशिश है ; अंधियारे को सघन और स्थायी बनाने का प्रबंध है| यह संप्रभु, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य के नागरिकों को तय करना है कि वे ऐसा होने देने के लिए तैयार है या जैसे हमेशा भारत में हुआ है, इस तरह के तत्वों को एक बार फिर हाशिये से भी बाहर खदेड़ने के लिए एक बार फिर लामबंद होना चाहते है।

 

लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।

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