उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा सीट पर होने वाले उपचुनाव में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल के साझा उम्मीदवार उतारने को लेकर दोनों पार्टियों के शीर्ष नेताओं के बीच बैठक हुई. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और आरएलडी के उपाध्यक्ष जयंत चौधरी के बीच लखनऊ में बैठक चल रही है. दोनों दलों के बीच अगर सहमति बन जाती है तो फिर कैराना और नूरपुर में आरएलडी-सपा का साझा उम्मीदवार घोषित कर सकती है.सपा दोनों सीटों पर उम्मीदवार उतारने का ऐलान पहले ही कर चुकी है. सूत्रों की माने तो कैराना लोकसभा सीट से पूर्व मंत्री किरनपाल कश्यप और नूरपुर विधानसभा सीट से नैमुल हसन को सपा अपना उम्मीदवार घोषित कर सकती है.कैराना के कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने दिल्ली आलाकमान को संकेत दिए हैं, कि वह सपा के साथ जाने की बजाय राष्ट्रीय लोक दल को समर्थन करना चाहते हैं. उधर, आरएलडी के विश्वस्त सूत्रों का कहना है कि उन्हें कैराना सीट पर उम्मीदवार उतारने पर अंतिम फैसला लेने के लिए एक-दो दिन का वक्त चाहिए. सूत्रों के मुताबिक आरएलडी विपक्षी एकता को बनाए रखने के लिए कैराना सीट छोड़ सकती है. लेकिन सपा की ओर से वादा किया जाए कि 2019 में उचित सीटें उन्हें दी जाएगी.आरएलडी कैराना लोकसभा सीट की बजाय नूरपुर विधानसभा सीट पर ज्यादा दिलचस्पी ले रही है. हालांकि, इन सीटों पर टिकट का फैसला एसपी और आरएलडी के बीच बातचीत के बाद ही आएगा.यूपी कांग्रेस के उपाध्यक्ष इमरान मसूद पहले ही संकेत दे चुके हैं कि अगर जयंत चौधरी चुनाव मैदान में उतरते हैं तो हम आरएलडी का समर्थन करने के लिए भी तैयार हैं. कांग्रेस की पांच में से तीन विधानसभा क्षेत्रों में स्थिति मजबूत है.कैराना लोकसभा सीट के तहत पांच विधानसभा सीटें आती हैं. इस लोकसभा सीट में शामली जिले की थानाभवन, कैराना और शामली विधानसभा सीटों के अलावा सहारनपुर जिले के गंगोह व नकुड़ विधानसभा सीटें आती हैं. मौजूदा समय में इन पांच विधानसभा सीटों में चार बीजेपी के पास हैं और कैराना विधानसभा सीट सपा के पास है. इन सीटों पर बीजेपी को 2017 में 4 लाख 33 हजार वोट मिले थे. जबकि बसपा प्रत्याशियों को 2 लाख 8 हजार और सपा के 3 प्रत्याशियों को 1 लाख 6 हजार वोट मिले थे. सपा ने शामली व नकुड़ सीटें कांग्रेस को दे दी थी.कैराना लोकसभा सीट 1962 में वजूद में आई. तब से लेकर अब तक 14 बार चुनाव हो चुके हैं. इनमें कांग्रेस और बीजेपी दो-दो बार चुनाव जीत सकी हैं. ये सीट अलग-अलग राजनीतिक दलों के खाते में जाती रही है. कैराना लोकसभा सीट पर पहली बार हुए चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर यशपाल सिंह ने जीत दर्ज की थी. 1967 में सोशलिस्ट पार्टी, 1971 में कांग्रेस, 1977 में जनता पार्टी, 1980 में जनता पार्टी (सेक्युलर), 1984 में कांग्रेस, 1989, 1991 में कांग्रेस, 1996 में सपा, 1998 में बीजेपी, 1999 और 2004 में राष्ट्रीय लोकदल, 2009 में बसपा और 2014 में बीजेपी ने जीत दर्ज कर चुकी है. कैराना लोकसभा सीट पर 17 लाख मतदाता हैं जिनमें पांच लाख मुस्लिम, चार लाख बैकवर्ड (जाट, गुर्जर, सैनी, कश्यप, प्रजापति और अन्य शामिल) और डेढ़ लाख वोट जाटव दलित है और 1 लाख के करीब गैरजाटव दलित मतदाता हैं. कैराना सीट गुर्जर बहुल मानी जाती है. यहां तीन लाख गुर्जर मतदाता हैं इनमें हिंदू-मुस्लिम दोनों गुर्जर शामिल हैं. इसीलिए इस सीट पर गुर्जर समुदाय के उम्मीदवारों ने ज्यादातर बार जीत दर्ज की हैं.कैराना में मुस्लिम आबादी अच्छी खासी होने के बाद भी 14 लोकसभा चुनाव में महज 4 बार ही मुस्लिम सांसद बने हैं. 2014 के चुनाव में बीजेपी के हुकुम सिंह के खिलाफ दो मुस्लिम उम्मीदवार थे. सपा ने नाहिद हसन को और बसपा ने कंवर हसन को उतारा था. 2013 में मुजफ्फरनगर दंगे के चलते वोटों का ध्रुवीकरण हुआ और दो मुस्लिम प्रत्याशी के होने से मुस्लिम वोट बंटने का फायदा हुकुम सिंह को मिला.बीजेपी को 5 लाख 65 हजार 909 वोट मिले थे. जबकि सपा को 3 लाख 29 हजार 81 वोट और बसपा को 1 लाख 60 हजार 414 वोट. ऐसे में अगर सपा-बसपा के वोट जोड़ लिए जाएं तो भी बीजेपी आगे है. लेकिन 2014 और 2018 की कहानी अलग है. 2017 में अगर सपा-बसपा को मिले वोट देखे जाएं और उसके हिसाब से उपचुनाव का अंदाजा लगाया जाए तो सपा-बसपा की दोस्ती, बीजेपी पर भारी पड़ सकती है.कैराना में सपा के मूल वोट यादव मत कम हैं, लेकिन मुसलमानों की आबादी बड़ी तादाद में है, जो सपा का ही वोटबैंक माना जाता है. जबकि इसी सीट पर दलित वोट काफी अहम हैं. यूपी के पिछले उपचुनाव की तरह अगर बसपा का वोट सपा की झोली में जाता है तो बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं. जबकि बीजेपी एक बार अपने मतों को एकजुट करके 2014 जैसा इतिहास दोहराने की कोशिश करेगी.
व्हाट्सएप पर शेयर करें
No Comments






