भगवान राम की दिव्यता में माता कौशल्या का तप
(27 सितम्बर, सन 1942 को गाजियाबाद जिले के ग्राम खुर्रमपुर- सलेमाबाद में, एक विशेष बालक का जन्म हुआ जो बचपन से ही जब भी यह बालक सीधा, श्वासन की मुद्रा में लेट जाता या लिटा दिया जाता, तो उसकी गर्दन दायें-बायें हिलने लगती, कुछ मन्त्रोच्चारण होता और उपरान्त विभिन्न ऋषि-मुनियों के चिन्तन और घटनाओं पर आधारित 45 मिनट तक, एक दिव्य प्रवचन होता। पर इस जन्म में अक्षर बोध भी न करने वाला ग्रामीण बालक, उसके मुख से ऐसे दिव्य प्रवचन सुनकर जन-मानस आश्चर्य करने लगा, बालक की ऐसी दिव्य अवस्था और प्रवचनों की गूढ़ता के विषय में कोई भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। इस स्थिति का स्पष्टीकरण भी दिव्यात्मा के प्रवचनों से ही हुआ। कि यह आत्मा सृष्टि के आदिकाल से ही विभिन्न कालों में, शृङ्गी ऋषि की उपाधि से विभूषित और इसी आत्मा के द्वारा राजा दशरथ के यहाँ पुत्रेष्टि याग कराया गया,और अब जब वे समाधि अवस्था में पहुँच जाते है तो पूर्व जन्मों की स्मृति के आधार पर प्रवचन करते ,यहाँ प्रस्तुत हैं माता कौशल्या का दिव्य और तपस्वी जीवन )
राजा दशरथ के काल में,रघुकुल प्रणाली में कुछ न्यूनता आ गयी थी। क्योंकि वे ऐश्वर्य में संलग्न हो गये। अज के पुत्र का नाम दशरथ था। वह भी ऐश्वर्य में इतना आ गया की उनकी भी तीन पत्नियां थी,वे उन्हीं में संलग्न रहते और उन्हें यह विचार न रहा कि तुझे राज्य का पालन कैसे करना है । लंका के राजा रावण ने महाराजा रघु के अधिकतर साम्राज्य पर अपना अधिपत्य जमा लिया था। केवल राजा दशरथ का ही इस पृथ्वी पर सूक्ष्म का राज्य अयोध्या रह गया था,जहाँ रावण का राज्य नही था,इसलिए माता कौशल्या को भगवान राम को जन्म देने की आवश्यकता हुई,क्योंकि माता कौशल्या यह जानती थी,कि मेरा पति तो ऐश्वर्य में आ गया है पर राष्ट्र का उत्थान होना चाहिये। वशिष्ठ मुनि और अरून्धती भी यही चाहते थे,क्योंकि रावण का राज्य सुन्दर नही था,उसमें दुराचार की मात्रा अधिक थी और चरित्र नाम की कोई वस्तु नही थी| (प्रवचन सन्दर्भ 9-11-1968)
परम्पराओ से हमारे यहाँ तीन संस्कार कराना अपराध मना गया है। भगवान राम ने स्वयं अपने में स्वीकार किया कि हमारी रघुवंश परम्परा है,राजा सगर से लेकर जो वंश चला आ रहा है,इस वंश में आ करके महाराज अज के पुत्र जो राजा दशरथ थे,उन्होंने पुत्र के मोह में तीन संस्कार कराये और प्रमाद में परिणित हो गये। जिसका परिणाम यह हुआ कि राजा रावण का राष्ट्र सर्वत्र पृथ्वी पर फैल गाया |
(प्रवचन सन्दर्भ 9-11-1973)
माता कौशल्या का शिक्षण
माता कौशल्या के गुरू का नाम तत्वमुनि महाराज था। तत्वमुनि महाराज की आयु 284 वर्ष की थी,वह अखण्ड ब्रह्मचारी थे। एक समय शिक्षा अध्ययन करते-करते जब कौशल्या दर्शनों का अध्ययन कर रही थी,तो उनके मन में एक विचार आया,कि-हे गुरूदेव! मै गृहस्थ आश्रम में परिणित नही होना चाहती। ऋषि ने कहा-पुत्री! जैसी तुम्हारी इच्छा,परन्तु कौशल्या ने अधिक अध्ययन किया तो एक समय रात्रि में अपने गुरू के द्वार पर पंहुची और चरणों का छूकर बोली कि-हे प्रभु! मेरी इच्छा है,कि मै अपने गर्भस्थल से एक ऊंचे और महान बालक को जन्म देना चाहती हूं। उस समय गुरू ने पुनः से आज्ञा दी कि-पुत्री! जैसी तुम्हारी इच्छा हो।
माता कौशल्या का राजा दशरथ से संस्कार
कौशल्या का यह संकल्प था,कि वह एक ऐसे महान बालक को जन्म देगी,जो संसार से आततायियो का नाश करके धर्म की पताका फहरायेगा। यह विचार ऋषि मुनियों में चर्चा का विषय बन गया और यह वार्ता महाराजा रावण को भी प्रतीत हो गयीं,रावण ने कौशल देश के राजा से कहा-अपनी पुत्री हमको अर्पित करो, हम इससे संस्कार तो नही करांएगे,पर इस कन्या को बन्दी करके रखेंगे। कौशलेश ने अपनी पुत्री कौशल्या को,रावण को दे दिया और रावण ने उस कन्या को,समुद्र के मध्य में एक टापू पर दुर्ग बनाकर यन्त्रों में ओत-प्रोत कर दिया।
राजा दशरथ को भी यह बात पता चल गई,अतः जब वे रानी कैकेयी के साथ कुबेर को युद्ध में परास्त कर लौट रहे थे,तो मार्ग में समुद्र के बीच में बनें दुर्ग में अपने वाहन से पंहुचे और वहाँ से उस यन्त्र को लाए,जिसमें कौशल्या को बन्द किया हुआ था। इस प्रकार माता कौशल्या को रावण के बन्दीगृह से मुक्ति कराया तथा कुछ समय के पश्चात कौशल्या का संस्कार राजा दशरथ के साथ हो गया और संस्कार होने के पश्चात वह गृह में प्रविष्ट हो गई,रघु परंपरा के अनुसार वह राष्ट्र-गृह में आ पंहुची।
त्रेता के काल में जब राजा दशरथ के कोई सन्तान का जन्म नही हुआ,तो उन्होंने सन्तान के लिए संस्कार भी कराए, परन्तु उनसे भी सन्तान का कोई उर्पाजन नही हुआ। तो ऋषि मुनियों की एक सभा में यह निर्णय हुआ कि पुत्रेष्टि याग होना चाहिए। क्रमशः…..
संकलन कर्ता कृष्ण अवतार त्यागी
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